पूर्व कथा को जानने के लिए पिछले अध्याय अवश्य पढ़ें….
     गतांक से आगे
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    इसके कुछ दिनों के पश्चात की घटना थी।दोपहर में विकास जी के बेटे मानस का फोन आया कि आन्टी जी जल्दी से घर आ जाइए,मम्मी की तबीयत अत्यधिक खराब हो गई है।वे आनन फानन में पहुंचीं तो ज्ञात हुआ कि छत पर कपड़े फैलाकर सीढ़ियों से नीचे उतरते समय 3-4 सीढ़ियों से फिसलकर आंगन में जा गिरी थीं।विकास जी किसी कार्य वश दिल्ली गए हुए थे।आरती मानस की सहायता से सरला को लेकर अस्पताल पहुंची,जांच के बाद डॉक्टर ने बताया कि पेट के बल गिरने के कारण रसौली फट गई है, तुरंत ऑपरेशन करना होगा।विकास जी रास्ते में थे,किन्तु उनके आने का इंतजार नहीं किया जा सकता था।अतः स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए डॉक्टर ने ऑपरेशन प्रारंभ कर दिया।वैसे मानस बीस साल का युवक था परंतु मां की ऐसी स्थिति देखकर बेहद घबरा गया था।
   ब्लीडिंग बहुत ज्यादा हो चुकी थी,आरती का ब्लड ग्रुप मैच कर गया था, तुरंत उनका खून लेकर चढ़ाया गया, तबतक विकास जी भी आ गए।ऑपरेशन कर बच्चेदानी तो निकाल दिया गया, परन्तु सरला की हालत अत्यधिक गम्भीर थी।पिता-पुत्र को सरला के पास छोड़कर आरती घर वापस आ गई।काफी प्रयत्नों के बाद भी अगली रात को ही सरला स्वर्ग सिधार गई।दुखद घटना थी, सबसे ज्यादा दुःख तो मानस के लिए हो रहा था।आरती जानती थी कि बच्चों के लिए माता पिता दोनों अनिवार्य होते हैं।जैसे वह लाख कोशिशों के बावजूद दीपक-ज्योति के लिए पिता के स्नेह की क्षतिपूर्ति नहीं कर पाती थी, उसी तरह पिता भी तमाम प्रयासों के बाद भी मां के ममता की भरपाई नहीं कर सकता है।
   दुःख की इस घड़ी में उसने जमाने की परवाह न करते हुए पिता-पुत्र को पूर्ण मानसिक सम्बल प्रदान किया।अब दोनों का रात का खाना आरती के यहां ही बनने लगा था।तीनों बच्चे आपस में काफी सहज हो चुके थे।
   बीतते समय के साथ मानस बीकॉम करने के बाद एमबीए करने दिल्ली चला गया, ज्योति गाजियाबाद से ही एमए करने लगी एवं दीपक आगरा से इंजीनियरिंग करने लगा।विक्रम ने अपने पास रहने का प्रस्ताव दिया था जिसे दीपक ने अस्वीकार कर दिया एवं हॉस्टल में रहना पसंद किया।बच्चे बड़े हो चुके थे, वे पिता के अपराध को क्षमा करने को कतई तैयार नहीं थे।ज्योति का एमए फाइनल होने वाला था, तभी राहुल के ऑफिस में एक युवक ने ज्वाइन किया था जो सजातीय था, वह ज्योति के लिए उपयुक्त प्रतीत हुआ, फिर दोनों परिवारों की आपसी सहमति से विवाह संपन्न हो गया।
   बेटी की विदाई के बाद घर बिल्कुल सूना हो गया।आरती एवं विकास के अकेलेपन ने दोनों को बेहद करीब ला दिया।
   एक दिन जब वह सोकर उठी तो उसके सर में तेज दर्द था, सोचा था चाय बनाकर साथ में सर दर्द की गोली ले लेगी,लेकिन उठने की हिम्मत ही नहीं हुई।थोड़ी देर में उसका शरीर बुखार से तपने लगा।जैसे तैसे फोन कर विकास जी को बुलाया।विकास जी उसे डॉक्टर को दिखा कर दवा ले आए।चाय बिस्किट के साथ दवा देकर, उसके माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखने लगे।अपनेपन के उस स्पर्श का अहसास तन के साथ साथ मन को भी शीतलता प्रदान कर रहा था।आज वर्षों बाद किसी पुरूष के प्रेमपूर्ण स्पर्श ने उसके अंदर की मृतप्राय स्त्री में प्रांण फूंककर जीवन का संचार कर दिया था।पांच दिन तक विकास जी ने उसे बिस्तर से उठने ही नहीं दिया था।उसके साथ साथ सास का भी पूरा ध्यान रख रहे थे।
   अब दोनों के मौन प्रेम ने एक दूसरे को मन ही मन स्वीकार कर लिया था।वे युवा प्रेमियों की भांति नेत्रों से प्रेम सुधा का पान कर रहे थे।आरती को इस अद्भुत अनुराग का अहसास मंत्रमुग्ध कर रहा था।उसे अब अनुभव हो रहा था कि प्रेम जीवन को कितना सुंदर बना देता है।उसका मरुस्थल की भांति शुष्क हृदय प्रेम अमृत की एक एक बूंद को समेट लेना चाहता था।
   एक दिन जब विकास आए तो सास मुहल्ले में कथा समारोह में गई हुई थीं।आरती ने आसमानी रंग की साड़ी पहन रखी थी, अब वह हल्का सा श्रृंगार भी करने लगी थी, आज आईने में स्वयं के देखकर मुस्कुरा उठी थी।वाकई प्रेम चेहरे पर एक अलग ही नूर उत्पन्न कर देता है।वह चाय बनाने किचन में आई तो विकास भी पीछे पीछे आ गए।
   "आज आप बेहद खूबसूरत लग रही हैं"कहते कहते उन्होंने उसकी दोनों हथेलियों को अपने हाथों में थाम लिया।उस दिन उनका प्यार शरीर के स्तर पर भी एकाकार हो गया।ततपश्चात विकास जी ने पूछा कि आप नाराज तो नहीं हैं।आरती की उस समय कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या जबाब दे,अतः चुप रही।विकास उस समय कुछ उलझे से चले गए।वह खुद भी उलझ गई थी।
   बचपन से घुट्टी की तरह पिलाए गए संस्कार उसे विचलित कर रहे थे।तभी उसके अंदर की विद्रोही औरत चीख उठी कि तुम परित्यक्ता हो,भले ही कागजों पर तुम्हारा तलाक नहीं हुआ है।तुम्हें भी अपनी जिंदगी अपने अनुसार जीने का पूरा हक है।आधा जीवन तो व्यतीत कर दिया दूसरों के हिसाब से जीते हुए।किसी अपराधबोध को अंतर में पालने की आवश्यकता नहीं है।
   अब आरती तन-मन से बेहद हल्का महसूस कर रही थी।विकास को बुलाया शाम की चाय साथ पीने के लिए।अब आरती ने अपने लिए भी जीना प्रारंभ कर दिया था।अब वह मुस्कुराने लगी थी, गुनगुनाने लगी थी।
   ज्योति एक बेटे की मां बन चुकी थी।इस बार जब वह मायके आई तो माँ में आए सुखद परिवर्तन को उसने तुरंत महसूस कर लिया था, भले ही आरती-विकास बच्चों के आने पर सामान्य मित्र की ही भांति व्यवहार करते थे, किन्तु ज्योति अब एक परिपक्व औरत बन चुकी थी, वह स्त्री-पुरूष के गूढ़ सम्बन्धों को अच्छी तरह समझती थी, साथ ही आज की खुले विचारों की युवती थी।उसने बातों बातों में माँ को जता दिया कि वह उनके लिए बेहद खुश है,और सदैव उनके साथ है।वह मां के एकाकी जीवन की प्रत्यक्षदर्शी रही है।बेटी की सहमति पाकर आरती के मन में जो थोड़ा सा भय था वह भी समाप्त हो चुका था।
   अब वह अपने रिश्ते को बिना कोई सामाजिक नाम दिए जीवन के इस नए पथ पर चल पड़ी थी।
   दीपक की पढ़ाई पूरी करने के बाद बिजली विभाग में नोकरी लग गई, फिर यथासमय उसका विवाह हो गया एवं वह अपने परिवार के साथ लखनऊ शिफ्ट हो गया।सभी अपने अपने जीवन में आगे बढ़ चुके थे।कुछ वर्ष पश्चात सास का भी देहांत हो गया।बेटे ने साथ चलने को कहा था, परन्तु अब वे यहीं प्रसन्न थीं।विकास जी का बेटा भी सपरिवार दिल्ली में सेटल हो गया था।दोनों बच्चे तीज त्यौहार पर कभी सपरिवार,कभी अकेले आकर मिल लेते थे।तीनों बच्चों ने उनके अनाम रिश्ते को सहर्ष स्वीकार कर लिया था।
   कुछ समय पूर्व विकास के अस्वस्थ होने की सूचना मिली थी, दूसरा हार्ट अटैक हुआ था।दीपक-ज्योति तो आगरा जाकर देख आए थे।बाद के वर्षों में ऋतु को भी विक्रम के पहले परिवार के बारे में ज्ञात हो गया था, उसने भी यथास्थिति को स्वीकार कर लिया था।
   अब मृत्यु होने की बाद बेटा होने के नाते दीपक दाह संस्कार कर अपने पितृ ऋण से निवृत्त हो गया था।
   सच है जिंदगी इतनी अप्रत्याशित है कि कब कौन सा मोड़ ले ले इंसान कल्पना भी नहीं कर पाता।देखे हुए तमाम स्वप्न, बनाई हुई विभिन्न योजनाएं पल भर में धराशायी हो जाती हैं, फिर भी नए रास्तों की तलाश जारी रहती है।मनुष्य जीने के लिए नूतन मार्ग निकाल ही लेता है।
            समाप्त
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   यह कथा मात्र मेरी कल्पना है।आप सभी पाठकों को कथा पढ़ने हेतु अपना अमूल्य समय देने के लिए मैं हृदय से आभारी हूं।धन्यवाद।
      रमा शर्मा'मानवी'
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