Swapn ho gaye Bachpan ke din bhi - 13 in Hindi Children Stories by Anandvardhan Ojha books and stories PDF | स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (13)

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स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (13)

स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (13)
'वह गहरी नीली फोम की जर्सी...'

मेरे ख़यालों के बियाबान में गहरे नीले रंग की फ़ोम की एक जर्सी अपनी बाँहें फैलाये उड़ती रहती है लगातार। वह कभी बारिश में भीगती है, कभी ठण्ड में ठिठुरती है और कभी गर्म हवाओं में झुलसती किसी काँटेदार वृक्ष में उलझी फहराती रहती है--हाहाकार मचाती हुई, मुझे पुकारती हुई और मैं अनासक्त भाव से मुँह फेरे रहता हूँ। अब तो उससे विरक्त हुए प्रायः आधी सदी बीतने को है, वह फिर भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती ! सोचता हूँ, यह कैसी विरक्ति है, कैसा विराग है, जो आज तक ख़यालों से चिपका हुआ है ? क्या विराग भी राग की चादर में अपना चेहरा छिपाये पीछे लगा रहता है? मैं सोचता ही जाता हूँ, किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता।

दीपावली और छठ के बाद से ही बिहार में ठण्ड पड़ने लगती है। उत्तर भारत के हर प्रदेश में मौसम अपने प्रचण्ड वेग से उतरता है--अति-वर्षा होती है तो प्रचण्ड ताप भी आसमान से उतरता है और शीतकाल में हाड़ कँपा देनेवाली भीषण ठंड भी पड़ती है।

१९६८ के जाड़ों की याद है मुझे ! उस साल भीषण ठण्ड पड़ी थी। तब मेरी माँ (श्रीमती भाग्यवती देवी) गंगा के पार हाजीपुर में पदस्थापित थीं, उनका सरकारी कार्यालय और आवास एक ही परिसर में था। छठ-पूजन में मैं अपनी बड़ी दीदी और पिताजी के साथ वहाँ गया था। माँ ने छठ का व्रत किया था और बड़े भक्ति-भाव से छठ मइया और भगवान् भास्कर का पूजन किया था। व्रत के पारायण के पहले उगते सूर्य को अंतिम अर्घ्य दिया जाता है। मुझे स्मरण है, हम सुबह-सुबह कौनहारा घाट (जहाँ गज-ग्राह का युद्ध हुआ था) पहुँच गए थे। गुलाबी मीठी ठण्ड तभी पसर गयी थी। माँ ने गंडक नदी के पावन जल से आचमन किया, स्नान किया और सूर्य को अर्घ्य दिया। बाल-सूर्य क्षितिज पर मुस्कुराते हुए प्रकट हुए थे, उदयाचल रक्ताभ हो उठा था। अर्घ्य-दान के बाद माँ ने सूप हमें सौंप दिया और अपनी अञ्जलि से जल का तर्पण करने लगीं। नदी के तेज प्रवाह से निकलने के पहले मुख-प्रक्षालन करते हुए उनके मुख से कृत्रिम दाँत का एक सेट निकलकर नदी के तीव्र प्रवाह में जा गिरा। अब वह कहाँ मिलनेवाला था ? हम सभी लौट आये।...

हमें हाजीपुर में अभी एक दिन और रुकना था। माँ दो दिनों के उपवास के बाद अत्यल्प भोजन ग्रहण कर विश्राम करने गयीं। जब शाम के वक़्त प्रकृतिस्थ होकर जागीं, तो पटना के घर-परिवार के लिए प्रसाद के अलग-अलग पैकेट बनाने लगीं। तभी माँ-पिताजी के सामने मैंने अपनी बात रखी। तब मैं महाविद्यालय के प्रवेश-द्वार पर खड़ा था। दो-तीन महीने बाद मैट्रिक की परीक्षा होनेवाली थी। मेरा कोट पुराना और छोटा पड़ गया था। मैंने माँ-पिताजी से कहा--'अगले सत्र में मुझे कॉलेज में जाना है। मुझे एक जर्सी दिलवा दीजिये। लगता है, इस साल जाड़ा भी खूब पड़ेगा।' उन्हीं दिनों चमड़े और फ़ोम की शानदार जर्सी का चलन हुआ था, धनवान परिवारों के मेरे कई मित्र ऐसी जर्सियाँ पहनकर विद्यालय आते थे और हम सबों के बीच अलग चमकते दीखते थे।

मेरे आग्रह का विरोध करते हुए माँ ने कहा--'अभी तुम्हारे बढ़ने की उम्र है और तुम्हारा कोट पुराना जरूर हुआ है, लेकिन इतना छोटा भी नहीं हुआ कि तुम उसे पहन न सको। इस साल ठहर जाओ, अगले साल नया कोट सिलवा दूँगी।' माताजी की बात तो पत्थर की लकीर हो गयी। लेकिन मैं भी पिताजी का हठी मानधन था, अपनी ज़िद पर अड़ा रहा।

हाजीपुर से पटना लौटकर मैं आये दिन पिताजी को अपनी नयी जर्सी के लिए परेशान किया करता। नवम्बर के समाप्त होते-न-होते पटना में शीत का प्रकोप बढ़ गया था। मैंने पिताजी को इतना हलकान कर दिया कि एक दिन खीझकर उन्होंने कहा--'ठीक है भाई, आज शाम तुम मेरे दफ़्तर आ जाना, वहीं से पटना मार्केट चलूँगा और तुम्हें मनचाही जर्सी दिलवा दूँगा।' उस उम्र में कितना नादान था मैं, पिताजी की अनमनी स्वीकृति पाकर खिल उठा। ये न सोचा कि यह पिताजी की विवश स्वीकृति है--नाख़ुशी से भरी हुई।

वह १९६८ की २९ नवम्बर की शाम थी। मैं यथासमय पिताजी के दफ़्तर जा पहुँचा और वहाँ से पटना मार्किट ! मैंने २५० रुपये की गहरे नीले रंग की फ़ोम की एक जर्सी पसंद की। पिताजी ने उसे मेरे लिए खरीद लिया। मैं प्रसन्नचित्त घर लौटा। उस ज़माने में २५० रुपये भी बहुत होते थे, महीने-भर की पूरी तनख़्वाह का एक-तिहाई भाग...! लेकिन मैं खुश था, मेरी इच्छा-पूर्ति हो गयी थी। लेकिन यह ख़ुशी तो बस चार-पाँच दिन की ही थी।...

४ दिसंबर की सुबह ९-१० बजे आकाशवाणी, पटना से पिताजी के अनुज सहकर्मी केशव पांडेयजी मेरे घर आये। पिताजी स्नान के पहले खुले आँगन में बैठकर तैल-मर्दन कर रहे थे। पांडेयजी पिताजी के सम्मुख करबद्ध आ खड़े हुए। वह कुछ बोलते ही नहीं थे। पिताजी ने बार-बार उनसे आगमन का कारण पूछा, लेकिन वह जड़वत् खड़े रहे। अंततः पिताजी ने खीझकर कहा--"अरे, कोई मर गया है क्या?' अमूमन ऐसा होता था कि किसी बड़े साहित्यिक, राजनेता, उच्च पदेन अधिकारी का निधन हो जाता, तो आकाशवाणी से तुरंत गाड़ी आ जाती और पिताजी को तत्काल उसी गाड़ी से आनन-फानन में आकाशवाणी जाना पड़ता। पिताजी ने इसी कारण यह प्रश्न किया था। पिताजी की आशंका निर्मूल नहीं थी, लेकिन जिस निधन की सूचना लेकर केशव पांडेयजी आये थे, वह बिजली हमारे ही घर पर गिरी थी, यह तो हमारे अवचेतन में भी कहीं नहीं था। हाजीपुर में मेरी माताजी का स्वर्गवास हो गया था, इस समाचार से पूरा घर शोकार्त्त हो गया।

उसी क्षण हम सभी भागे-भागे महेन्द्रू घाट से पानी का जहाज पकड़कर पहलेजा घाट होते हुए हाजीपुर पहुँचे। काल अपना क्रूर कर्म कर गुज़रा था और सर्वत्र फैला था--रुदन, विलाप, शोक, संताप! मेरी छोटी बहन और अनुज तो वहीं माँ के साथ थे , अब हम सभी आ पहुँचे थे, मिल-जुलकर आर्त्त-विकल, विह्वल होने के लिए। नियति की इस प्रवञ्चना से उस दिन हम सभी स्तब्ध रह गए थे।

माँ के आवास से कौनहारा घाट की दूरी कम नहीं थी। हाजीपुर जैसे अविकसित क्षेत्र में शव-वाही वाहन उन दिनों कहाँ मिलनेवाले थे ! हम माँ को अपने कन्धों पर ही ले चले--कभी दायें, कभी बायें कन्धे पर लिए हुए ! देर शाम तक माँ की देह-भस्म को हम उसी कौनहारा घाट पर, गंडक नदी के जल-प्रवाह में विसर्जित कर आये, जहाँ डेढ़-एक महीने पहले माँ अपने दाँतों का एक सेट विसर्जित कर आयी थीं।

उस कठिन कृत्य से निवृत्त होकर देर रात हम घर आये--विक्षिप्त होने की हद तक शरीर और मन से क्लान्त हुए...! मैंने अपनी नयी जर्सी उतारी और तह करके रख दी। विकलता से भरी वह रात किसी तरह गुज़र ही गयी। दो दिनों में पिताजी ने हाजीपुर का जाल समेटा और हम सभी पटना लौट आये।

कुछ दिनों बाद कहीं बाहर जाने के लिए मैंने एक सप्ताह पहले खरीदी हुई अपनी नयी जर्सी निकाली, तो देखा कि उसके दोनों कन्धों का फ़ोम बुरी तरह उधड़ गया है। संभवतः माँ को श्मशान-भूमि ले जाते हुए बाँस की रगड़ से वह क्षतिग्रस्त हो गया था। जर्सी फ़ोम की थी, उसकी मरम्मत भी नहीं हो सकती थी। माँ की बात न मानने का मुझे बड़ा कठोर दण्ड मिला था। मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे थे। मैंने उस जर्सी का परित्याग कर दिया। उसके बाद के जीवन में कभी जर्सी-नुमाँ कोई वस्त्र मैंने कभी धारण नहीं किया।

अब तो माँ और उस अभिशप्त जर्सी को गुज़रे लगभग आधी शती बीत गयी है, लेकिन माँ की अवज्ञा के स्मरण के साथ-साथ वह नीली फ़ोम की जर्सी आज भी याद आती है मुझे।...

चौंसठ वर्षों के जीवन में न जाने मेरे कितने वस्त्र बने-खरीदे गए होंगे--झबले से लेकर कुर्ते-पायज़ामे तक, पैंट-शर्ट से लेकर कोट-बंडी-सूट तक--समय पाकर वे सब पुराने पड़े होंगे, जीर्ण-शीर्ण हुए होंगे, बाँटे-फेंके गए होंगे--आज किसी की याद भी नहीं आती; लेकिन वह अजीब नामुराद नीली जर्सी ऐसी थी, जो मेरे ज़ेहन से कभी उतरी ही नहीं, जबकि सबसे ज़्यादा विराग मुझे उसीसे हुआ था !

आप कहेंगे, इस एकांत-रुदन के अश्रु-कण को कागज़ पर पसारने की आवश्यकता क्या थी ? आपका प्रश्न स्वाभाविक ही होगा; लेकिन जिस जर्सी से मुझे वर्षों पहले अनुराग-विराग हुआ था और जिसे मैंने अपने शरीर से उतार फेंका था, वह कहीं गयी नहीं थी--मेरी अंतरात्मा से लिपटी रह गयी थी, आज उसे ही अपने चेतन-अवचेतन और अपनी आत्मा से उतार देने की चेष्टा का यत्न-भर है यह लेखन। मुझे सफलता मिली तो ठीक, अन्यथा वह चिपकी ही रहेगी मुझसे--ताउम्र!...

सुना-जाना है, जीवन-मृत्यु वस्त्र बदलने के सामान है। तो क्या अब अगले जन्म में वस्त्र बदलने के बाद ही मेरी माँ मुझे दिलवायेंगी नया कोट या नयी जर्सी और क्या तभी छूटेगा इस नीली जर्सी से मेरा पिण्ड ? कौन जाने... ?

(क्रमशः)