स्वप्न हो गये बचपन के दिन... (2)
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी...? (क )
बात बहुत पुरानी है। तब की, जब आलोक-भरे इस संसार को देखने के लिए मैंने आँखें भी नहीं खोली थीं, उसके भी कई-कई बरस पहले की। यह कहानी मैंने पिताजी से सुनी थी जो मेरी स्मृति में कहीं चिपक कर रह गयी है। आप सुनेंगे? कहूँ कहानी, वही पुरानी... ?
मैंने अपनी पितामही (रामदासी देवी) को बाल्यकाल में देखा था, तब वह ८०-८५ के बीच की रही होंगी। वृद्धावस्था की उस उम्र में भी वह बहुत सुन्दर दिखती थीं, जबकि रुग्ण और शय्याशायी थीं! अत्यंत ममतामयी, मृदुभाषिणी और स्वच्छ-निर्मल मन की महिला! सारा खानदान उन्हें 'भौजी' की जगह जाने क्यों 'भौजा' कहता था, शायद इसलिए कि वह खानदान की सबसे बड़ी बहू थीं! उनकी ननदें और देवर मेरी बड़ी बुआ और पिताजी के हमउम्र थे। पितामही थीं तो वाराणसी की, लेकिन बनारसी भाषा बिसारकर अच्छी भोजपुरी बोलने लगी थीं; क्योंकि उनकी ससुराल की भाषा वही थी। पितामही के सभी बच्चे सुदर्शन और सर्वगुण-संपन्न थे! उद्भट विद्वान, संस्कृतज्ञ, सदाचारी और अनुशासनप्रिय कठोर पिता (साहित्याचार्य पं. चन्द्रशेखर शास्त्री) तथा उदार, करुणामयी, ममतामयी माता की छाया में उन सबों की परवरिश हुई थी। पितामही की दो बेटियाँ थीं--मेरी बड़ी बुआ और छोटी बुआ--दोनों एक-से बढ़कर एक--सुदर्शना! उन दोनों ने अपनी माता के सारे गुण ग्रहण कर लिये थे--मीठा बोलना, परदुःखकातर हो जाना और परोपकार के लिए सदैव प्रस्तुत रहना आदि-आदि।
संभवतः, वह १९२८-३० का ज़माना रहा होगा। तब छोटी उम्र में ही विवाह की परंपरा थी। बालपन में ही छोटी बुआजी (इंदिरा तिवारी) का विवाह बिहार में, भोजपुर के एक गाँव 'चनउर' के सम्भ्रांत तिवारी परिवार में हुआ था। छोटे फूफाजी (रामसकल तिवारी) सरकारी पद (तहसीलदार) पर तो थे ही, उनके पास जोत की बहुत उपजाऊ पर्याप्त भूमि थी! लेकिन, निपट देहाती गाँव था--बहुत पिछड़ा हुआ! उन दिनों दो कोस पैदल या किसी बैलगाड़ी से चलकर ही वहाँ पहुँचना सम्भव हो पाता था। तब विवाह के बाद गौने की प्रथा थी। विवाह के ४-५ बरस बाद छोटी बुआजी का गौना हुआ था। छोटी बहन के स्नेह से बँधे पिताजी प्रायः उनसे मिलने के लिए इलाहाबाद से 'चनउर' जाया करते थे। वह ज़माना ऐसी रूढ़ियों से बँधा था कि नव-वधू के मायके से भी कोई आये, तो उसे तत्काल मिलने की अनुमति नहीं मिलती थी। उसे बाहरी दालान, ओसारे या बैठके में ही रोक लिया जाता था। थोड़ी देर बाद घर की कोई बालिका पीतल के परात में जल लेकर आगंतुक के पास आती थी। लोटे से जल डालकर आगंतुक के पाँव पखारती थी और, यह काम वह पूरे मनोयोग से, परिश्रमपूर्वक, करती थी, जिससे पदयात्रा की थकन मिट जाए! तत्पश्चात्, गुड़, मिस्री अथवा मनकुन्ती दाना मिश्रित गुड़ का एक विशेष प्रकार का लड्डू खिलाकर पेय-जल दिया जाता था।
और तो सब ठीक था, लेकिन इलाहाबाद के शहरी माहौल से आये पिताजी को ये पद-पखारन और पद-चम्पन बहुत अखरता था! फिर भी छोटी बहन की नयी-नयी ससुराल में वह कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं करते थे! उसके बाद शुरू होती थी पुरुष-प्रधान वर्ग की नीरस चर्चा, जिसमें आगंतुक के परिवार के प्रत्येक बुज़ुर्ग से लेकर बच्चों तक के कुशल-क्षेम की जानकारी ली जाती थी। जिससे यह परिलक्षित हो कि आगंतुक के परिवार के सभी सदस्यों की उन्हें भी बहुत फ़िक्र है! क्या ठिकाना, होती भी हो; लेकिन ऐसे प्रश्नों में जितनी आत्मीयता झलकती थी, उससे अधिक औपचारिकता ! जो भी हो, गाँव की सोंधी मिट्टी की वह ख़ास तरह की मिठास थी। मर्यादाओं का निर्वाह सजगता से होता था और मेहमानों की बहुत आवभगत होती थी।
आगंतुक बेचारा मन-ही-मन ऐंठता रहता था, मुस्कुराता हुआ सम्बद्ध-असम्बद्ध प्रश्नों के उत्तर देता जाता था, लेकिन अपने जिस स्वजन-परिजन से मिलने को वह आतुर-उद्विग्न होता, उससे मिलने की नौबत न आती थी। आगंतुक की दशा 'दरस को दुक्खन लागे नैन' जैसी हो जाती थी। सुबह के आये हुए व्यक्ति को मन मारकर पहले नाश्ता, फिर भोजन करने तक, बाहर ही रुके रहना पड़ता था। जब दोपहर का चौका-बर्तन सिमट जाता था, तब आगंतुक को गोबर से लिपे-पुते दो बड़े-बड़े आँगन पार करके तीसरे आँगन में ले जाया जाता था। उस तीसरे आँगन में बने अनेक छोटे-छोटे कमरों में एक कमरा उसका होता था, जिससे मिलने की आस लिए बेचारा प्रियजन तड़प रहा होता था।...
छोटी बुआजी की ससुराल का घर बिलकुल ऐसा ही था--मिट्टी की मोटी दीवारों तथा फूस-खपरैल की छतों वाला बड़ा-सा घर! पहले आँगन में सानी-पानी की नादों के साथ मवेशियों का अड्डा और अन्न का भण्डार था। दूसरे और तीसरे आँगन में रहाइशी कमरे थे--बड़े-से आँगन के चौतरफे बने हुए! कमरे भी ऐसे, जिनमें खिड़कियाँ नहीं थीं, हवा-प्रकाश के लिए सिर्फ प्रवेश-द्वार को ही पर्याप्त माना गया था। दिन में भी उस एकलौते द्वार को बंद कर दिया जाए तो कमरे में अन्धकार उपस्थित हो जाता था! लेकिन आश्चर्य, कमरे बहुत शीतल, गोबर से लिपे हुए--परम पवित्रता का बोध देते हुए-से थे । होशगर होने के बाद मैं भी छोटी बुआ के गाँव-घर कई-कई बार गया और पिताजी से सुनी हुई इस कहानी की कथाभूमि अपनी आँखों देख आया।
बहरहाल, शुरूआती दिनों में, उपर्युक्त समस्त प्रेममय अत्याचारों को बार-बार सहकर भी पिताजी अपनी छोटी बहन से मिलने वहाँ जाते रहे! ऐसी ही कई मुलाकातों के बाद, एक बार पिताजी प्रचण्ड गर्मी के दिनों में वहाँ सुबह-सुबह पहुँचे तो तीसरे आँगन में पहुँचने में उन्हें दिन के ढाई-तीन बज गए थे। छोटी बुआजी ने एक चारपाई पर चादर डालकर पिताजी को बिठाया और स्वयं दरवाज़े के पास बैठ गयीं। भीषण गर्मी तो थी ही, पूरे आँगन में अरहर की दाल भी फैली हुई थी। पिताजी ने समझा कि दाल की निगरानी के लिए बहन वहाँ बैठ गयी हैं। भाई-बहन में बातें होने लगीं, लेकिन पिताजी की चारपाई से बुआजी थोड़ी अधिक दूरी पर बैठी थीं। सहजता से संवाद हो सके, इसलिए पिताजी ने बुआजी से कहा--'इतनी दूर क्यों बैठी हो, थोड़ा पास आ जाओ!'
बुआजी ने कहा--'ना भइया, एहिजे ठीक बा। तनी हावा लागऽता !' (नहीं भैया, यहीं ठीक है, थोड़ी हवा लग रही है)
फिर तो घर-परिवार की बातें शुरू हो गयीं और एक-डेढ़ घंटा कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला। अचानक पिताजी ने देखा कि बुआजी आहिस्ता-आहिस्ता थोड़ा अंदर सरक आई हैं। पहले तो बुआजी ने एक पल्ला धीरे-से भेड़ा, फिर दूसरा भी बंद करने लगीं। जैसे-जैसे दूसरा पल्ला बंद होता जा रहा था, वैसे-वैसे कमरे में अँधेरा बढ़ रहा था। पिताजी ने पूछा--'दरवाज़ा क्यों बंद कर रही हो?'
बुआजी ने अपनी एक उँगली होठों पर रखकर पिताजी को चुप रहने का इशारा किया, फिर पिताजी के थोड़ा पास सरककर बोलीं--' भइया, चुपे रहऽ !' (भैया, चुप ही रहिये।)
पिताजी ने पूछा--'काँहें ?' (क्यों?)
बुआजी ने बहुत राज़दारी से धीमी आवाज़ में कहा--'जानत नइखऽ, पटिदारिन रहरिया चोरावऽतिया, हमरा देखि लीही तऽ लजा जायी !' (आप नहीं जानते, पट्टिदारिन अरहर की दाल चुरा रही है, मुझे देख लेगी तो लज्जित हो जायेगी!)
उनकी बात सुनकर पिताजी विस्मित हुए और उन्होंने पूछा--'दाल किसकी है?'
बुआजी सतर्कता के साथ मंद स्वर में बोलीं--'रहरिया तऽ हमरे हऽ, बाकिर लेइओ जाई, तऽ केतना ले जाई ? ओकरा मनसान्ति से ले जाय दऽ ! हमरा कछु घटी ना !' (दाल तो हमारी ही है, लेकिन वह ले भी जायेगी तो कितनी? उसे मनःशान्ति से ले जाने दीजिये। मेरा कुछ घटेगा नहीं।)
पिताजी तो आश्चर्य से अवाक् रह गए। छोटी बुआजी की कही यह बात वह आजीवन नहीं भूले। जब कभी यह कथा वह किसी को सुनाते, तो अंत में कबीर के इस सूफ़ियाना पद का उल्लेख करना नहीं भूलते--'जो घर जारै आपना, चले हमारे संग...!'
पितामह और दादीमाँ के दिये संस्कार उस दिन खुलकर बोल उठे थे। लेकिन सोचता हूँ, इस मायामय संसार में आज ऐसी विभूतियाँ कितनी होंगी...?
(क्रमशः)