Aaghaat - 36 in Hindi Women Focused by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | आघात - 36

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आघात - 36

आघात

डॉ. कविता त्यागी

36

अपने संकल्प को कार्यरूप में परिणत करने के लिए उसने अपनी सहेली नेहा के माध्यम से एक वकील से सम्पर्क किया। उस वकील के परामर्शानुसार पूजा ने रणवीर के विरुद्ध कोर्ट में गुजारे-भत्ते का केस फाइल कर दिया और तलाक की बहस के लिए निर्धारित तिथि में उपस्थित भी हुई। रणवीर ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि पूजा उसके विरुद्ध कोर्ट में खड़ी हो सकती है और गुजारे-भत्ते की माँग कर सकती है। उसको तो यह भी आशा नहीं थी कि पूजा कोर्ट में उपस्थित होने का साहस भी कर सकती है। उसके मनःमस्तिष्क में पूजा की मात्र एक छवि थी। वह छवि थी - एक सीधी-सादी घरेलू पतिव्रता स्त्री की छवि, जिसको चाहे जितना शारीरिक-मानसिक रूप से प्रताड़ित करो, पर वह मुँंह से अपशब्द तक नहीं निकाल सकती । परन्तु, पूजा ने आज उसके भ्रम को तोड़कर एक नये रास्ते पर नया कदम बढ़ाया दिया था।

पूजा ने अपना अधिकार पाने के लिए अब जिस नये रास्ते पर कदम रखा था, कौशिक जी को तथा यश को यह बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं था। वह नहीं चाहते थे कि उनके घर की बेटी थाना-कचहरी के आस-पास भी जाए ! परन्तु, पूजा अब वहाँ से पीछे लौटने के लिए तैयार नहीं थी । वहाँ तक वह स्वयं नहीं आयी थी, रणवीर ने उसको वहाँ आने के लिए विवश किया था । अब वह उस रास्ते पर चलने के लिए विवश थी।

कौशिक जी ने अपनी सामर्थ्य-भर प्रयास किया था कि उनकी बेटी और दामाद के बीच की दूरियाँ कम हो जाएँ, परन्तु ऐसा नहीं हो सका और उनके बीच की दूरी बढ़ते-बढ़ते कोर्ट तक पहुँच ही गयी। कौशिक जी यह सब सहन न कर सके। उन्हें हृदयाघात हुआ और वे अचानक स्वर्ग सिधार गये। पिता की मृत्यु से पूजा बिल्कुल टूट-सी गयी। उन्हीं का अवलम्ब लेकर तो वह आज तक अपनी विषम से विषम परिस्थितियों से संघर्ष करके भी जिजीविषा से परिपूर्ण थी । अब कौन उसको कष्टों में भी स्वस्थचित्त रहते हुए कठिनाइयों से संघर्ष करने की प्रेरणा देगा ? पूजा को ऐसा अनुभव हो रहा था कि आज वह बिल्कुल निरावलम्ब हो गयी है। जन्म से ही उसको यह बताया-सिखाया गया था कि स्त्री की हर अवस्था में किसी न किसी रूप में पुरुष का अवलम्ब मिलना उसका सौभाग्य होता है। आज दुर्भाग्यवश नियति ने पिता के रूप में मिला हुआ उसका अवलम्ब छीन लिया था, जिन्होंने सदैव उसके कष्टों को दूर करने का प्रयत्न किया था।

पिता के देहान्त के पश्चात् पूजा को उनकी एक-एक बात ऐसे याद आ रही थी कि उसका चित्त विचारों की एक लम्बी शृंखला पर तैरने लगा -

‘‘वयः संधि प्राप्त करते ही मैं समाज और परिवार की दृष्टि में भार-स्वरूप हो गयी थी। उस भार को हल्का या कम करने का एक ही निश्चित उपाय था - मेरा विवाह ! प्रत्येक भारतीय पिता के समान मेरे पिता भी अपनी बेटी के लिए एक योग्य और उच्चकुल में उत्पन्न वर की खोज में निकल पड़े, जो उनकी बेटी का अवलंब बन सके । वर्षों की खोज के उपरान्त उन्होंने रणवीर के रूप में एक योग्य तथा उच्चकुल में उत्पन्न वर पाकर मेरा विवाह सम्पन्न कराया और भारतीय संस्कृति के अनुरूप पूर्ण आशा-विश्वास के साथ सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देकर मुझे रणवीर के हाथों में सौंप दिया। रूढ़-स्थूल अर्थों में उस आशीर्वाद के अनुसार मैं आज तक सौभाग्यवती रही हूँ ! किन्हीं अंशो में मुझे आज भी सौभाग्यवती माना जा सकता है, किन्तु यदि गम्भीरतापूर्वक विश्लेषण करके सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए, तो मैं पति के सम्बन्ध में कभी भी सौभाग्यवती नहीं रही ! किसी नवविवहिता को जब यह ज्ञात होता है कि उसके पति का किसी अन्य स्त्री के साथ अवैध सम्बन्ध है, फिर भी सात फेरों के संबन्ध का या सामाजिक मर्यादा का निर्वाह करने के लिए उसे जीवन-भर उस पति के साथ सामंजस्य करके रहना है , तब वह स्वयं को सौभाग्यवती कैसे मान सकती है ? विवाह से आज तक मेरा दाम्पत्य-जीवन झटके खा-खाकर आगे बढ़ा। कभी मेरे वैवाहिक जीवन में अधिक तनाव रहा, तो कभी कम । इन वर्षों में मेरे जीवन मे ऐसा बहुत ही कम समय आया था, जबकि मैं पूर्णतः तनावमुक्त और प्रसन्नचित् रही थी ! मेरी इस विषम दशा को मरे पिता से अधिक कोई भी नहीं समझ सकता था ! मेरे पिता को मेरी पीड़ा का एहसास था और सदैव वे मेरी पीड़ा को कम करने के लिए प्रयत्नशील रहते थे ! अपने जीते-जी वे मेरी चिन्ता करते रहे और मेरे दाम्पत्य जीवन में सुख-समृद्धि आने की प्रतीक्षा करते रहे । किन्तु उनकी यह अभिलाषा अधूरी ही रह गयी । और अन्त में, ..... अन्त में उनके स्वर्गवास का कारण भी मेरे दाम्पत्य-जीवन की असपफलता ही रहा !....... मेरी गृहस्थी टूटकर बर्बाद होने का आघात वे सहन नहीं कर सके !’’

पिता को याद करते-करते, सोचते-सोचते पूजा अकेले बैठी हुई रोने लगी-

‘‘काश ! मैं अपने पिताजी को......!’’

अपने पिता की मृत्यु का दोषी स्वयं को मानकर पूजा अत्यन्त व्याकुल हो गयी थी । उसका अन्तःकरण पुनः स्वयं से ही तर्क-वितर्क करने लगा -

‘‘पति-पत्नी अपने सुख-चैन के लिए एक-दूसरे पर इतने निर्भर हो जाते हैं कि एक-दूसरे के सान्निध्य का, विश्वास का, प्रेम का अभाव उनकी मनःस्थिति दुर्बल और उनके जीवन को नीरस कर देता है । प्रेम-विश्वास और परस्पर-सान्निध्य के अभाव से उनका जीवन रुक-सा जाता है ! परन्तु, जब पति-पत्नी में से किसी एक का प्रेम और विश्वास एकपक्षीय हो, तब ? और दूसरा पक्ष पहले पक्ष - प्रेम करने वाले पक्ष के प्रेम के प्रति संवेदनाहीन होकर उसको महत्त्व न दे, उसका तिरस्कार करे, तब ?....... मेरे जीवन में ऐसा ही तो है ! मेरे हृदय में पति के लिए प्रेम और विश्वास कूट-कूट कर भरा हुआ था, पर रणवीर ने तो कभी मुझसे प्रेम किया ही नहीं ! मेरा प्रेम सदैव एकपक्षीय ही रहा ! वह तो उस वैवाहिक सम्बन्ध को ढो रहा था, जिसमें वह तब बँधा था, जब उसकी प्रेमिका ने उसका साथ छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह कर लिया था ! अब, जब वह वापिस लौटकर रणवीर के पास आयी, तब रणवीर ने मेरे एकनिष्ठ प्रेम को ठुकरा दिया ! मेरा तिरस्कार करते हुए उसको मेरी पीड़ा का तनिक भी अनुभव नहीं हुआ !........ उसने न तो मेरे प्रेम को समझा, न ही इस पवित्र बन्धन की लाज रखकर अपनी पत्नी के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया ! ऐसी स्थिति में मैं क्या कर सकती थी ? मैं तो पूर्णरूप से रणवीर पर निर्भर थी, उसके प्रति समर्पित थी और आज भी हूँ ! मुझे तो पति के प्रति एकनिष्ठ प्रेम और समर्पण के अतिरिक्त कुछ सिखाया ही नहीं गया था ! और वाणी ? वह किसी को प्रेम कैसे कर सकती है ? वह तो पैसे के पीछे भागती है ! रणवीर को भी तो वह अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए ही इस्तेमाल कर रही है, पर रणवीर इस बात को समझ ही नहीं रहा है कि.......! आज के युग में प्रेम नहीं,पैसा सत्य है ! पैसा है, तो व्यक्ति प्रेम के बिना भी सुखी रह सकता है ! वाणी का एकमात्र लक्ष्य पैसा था, न प्रेम करना, न प्रेम पाना ! अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसने पहले किसी अन्य स्त्रा का घर उजाड़ा था , अब मेरा घर बर्बाद कर रही है ! वह सुखी है, क्योंकि उसके पास पैसा है ! वह पैसा चाहे कहीं से भी, किसी भी तरह से क्यों न आए ! पर मैं ? मैं तो पैसे के लिए भी दूसरों पर ही निर्भर हूँ ! अब पिताजी भी नहीं रहे ! कहाँ से बच्चों को खिलाऊँगी, पहनाऊँगी और कहाँ से उन्हें पढ़ाऊँगी ?’’

***

इसी प्रकार के विचारों में उलझकर उसके दिन और रात बीतते जा रहे थे। कौशिक जी की मृत्यु से वह टूट गयी थी। इस शोक से पूरी तरह उभरना उसके लिए बहुत कठिन था। वह महीना-भर में अपने और बच्चों के बारे में सोचने-करने योग्य स्वस्थयचित्त हो पायी थी। सामान्यावस्था में आते ही उसने अपनी वर्तमान स्थिति और भविष्य के विषय में विचार-मंथन आरम्भ कर दिया। जब-जब वह इस विषय पर सोचती थी, तब-तब उसको अपने पिता द्वारा समझायी गयी उन बातों का स्मरण हो आता था, जो उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व पूजा को उसके दाम्पत्य-जीवन को सँवारने का निर्देश देते हुए समझायी थी ! तब वह सोचने के लिए विवश हो जाती थी कि उसको रणवीर के साथ अपने दाम्पत्य-जीवन को पुनः पटरी पर लाने का एक और प्रयास करना चाहिए ? अथवा नहीं ?

पिता के निर्देशों से प्रेरित पूजा जब रणवीर के विषय में आशावादी दृष्टिकोण रखकर सोचती थी, तब उसका चित्त सारे परिणामों को सकारात्मक रूप में ग्रहण करता था और उसकी आँखों में सुखमय मधुर कल्पनाएँ तैरने लगती थी कि उसके बच्चों को पिता का स्नेह मिल जाएगा सामाजिक मान-प्रतिष्ठा बनी रह जाएगी और परिवार को आर्थिक समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी ! किन्तु, जब वह नकारात्मक दृष्टिकोण रखती थी, तब रणवीर से सम्बन्ध सुधरने का पुनः प्रयास उसको व्यर्थ लगता था । अपने विचारों की इसी उठा-पटक के कारण इस विषय पर कोई भी निर्णय लेना उसके लिए कठिन हो रहा था । अन्त में उसने आशावादी दृष्टिकोण रखते हुए पति के साथ सम्बन्धें को पुरानी राह पर लाने का निर्णय लिया। अपने दाम्पत्य-सम्बन्धों में एक बार पुनः प्राण फूँकने का प्रयास करने का निश्चय करके वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चली ।

अपनी लक्ष्यसिद्धि के लिए इस बार पूजा ने एक योजना बनायी । उसकी योजना का सर्वप्रथम चरण यह था कि वह किसी ऐसे अनुभवी-प्रौढ़ व्यक्ति को अपने साथ लेकर रणवीर से मिलेगी, जो उसका निकट-सम्बन्धी हो और सम्बन्धों के महत्व को भली-भाँति समझता हो !

अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए पूजा ने रणवीर के ताऊजी, जो नोएडा से बहुत दूर लखनऊ में रहते थे, उनसे सम्पर्क किया और उन्हें अपने दाम्पत्य-जीवन की सारी समस्याओं से यथातथ्य अवगत करा दिया ।

ताऊजी सौम्य प्रकृति के व्यक्ति थे। वे सम्बन्धों का निर्वाह भली-प्रकार से करने के पक्ष में थे और इसके लिए जीवन में त्याग-तपस्या को पर्याप्त महत्व देते थे। परन्तु अपने इन्हीं विचारों को अपने व्यवहार में परिणत करने के साथ-साथ वे किसी भी सम्बन्ध के निरर्थक बोझ को ढ़ोने के पक्ष में नहीं थे । वे कहते थे कि सम्बन्धों को जीने में आनन्द है, उन्हें भारस्वरूप ढोने में नहीं ! इसलिए जो सम्बन्ध जीवन में निरर्थक बोझ बन जाएँ, उनसे मुक्ति पाना या उन्हें सीमित कर देना ही उचित होता है । ताऊजी के इन विचारों से पूजा पहले से ही परिचित थी। फर भी, उसने रणवीर के साथ अपने सम्बन्धों में पुनः प्राण-प्रतिष्ठा करने के लिए उनकी सहायता माँगी। ताऊजी उसकी मांग को अस्वीकार नहीं कर सके । उन्होंने पूजा को आश्वस्त करते हुए कहा -

‘‘पूजा, जब से तुम रणवीर के साथ परिणय-सूत्र में बंधी हो, तभी से मैं तुम्हारे त्याग-तपस्या, मितभाषी स्वभाव और रणवीर के प्रति तुम्हारे एकनिष्ठा प्रेम के विषय में सुनता रहा हूँ ! एक पतिव्रता स्त्री के रूप में तुम्हारा चरित्र स्पृहणीय है। इसलिए मैं तुम्हारी सहायता करने के लिए तत्पर हूँ ! मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है ! बताओं, तुम मुझसे किस प्रकार की सहायता की अपेक्षा रखती हो ?

‘‘ताऊजी, मैं चाहती हूँ कि आप मेरे साथ चलकर रणवीर से बातें करें और उन्हें समझाएँ कि विवाह-विच्छेद के नकारात्मक प्रभाव न केवल मुझे और रणवीर को बल्कि हमारे बच्चों को भी अपनी चपेट में ले रहे हैं ! हमारे तलाक का केस हमारे बेटों की उन्नति के मार्ग का रोड़ा बन रहा है ! हम दोनों के लडाई-झगडे़ में बच्चे नियन्त्रणहीन होकर दिशाहीन हो सकते हैं और जीवन की अंधेरी गलियों में भटककर किसी अनुचित-अग्राह्य मार्ग पर जा सकते है !’’

‘‘बेटी, मैं तुम्हारी और बच्चों की स्थिति को तथा उस स्थिति से उत्पन्न पीड़ा को समझ सकता हूँ ! तुम जैसा चाहती हो, वैसा करने के लिए मैं तैयार हूँ ! लेकिन, बेटी, मुझे इसमें सन्देह है कि इस विषय पर रणवीर मेरे समझाने समझेगा ! मैं उन लोगों की प्रकृति से भली प्रकार परिचित हूँ ! न तो रणवीर किसी के यथोचित परामर्श को सुनता-महत्व देता है और न ही उसकी मम्मी उसको ऐसा करने देती है !....... इसीलिए मैंने अपने भाई के देहान्त के पश्चात् उनके साथ अपने सम्बन्ध बहुत ही सीमित कर लिए थे । फिर भी, तुम्हारे लिए मैं उनसे बात करूँगा और प्रयास करूँगा कि वे लोग उचित-अनुचित का भेद समझकर उचित निर्णय लें, जिससे तुम्हारा घर भी टूटने से बच जाए और बच्चों का भविष्य भी बर्बाद न हो !’’

‘‘ताऊजी, आप मेरी सहायता करने के लिए तैयार हो गये, इसके लिए मैं आपकी बहुत-बहुत आभारी हूँ !’’

‘‘नहीं बेटी, इसमें आभार कैसा ? यह तो मेरा कर्तव्य है ! मुझे प्रसन्नता है कि हमारे घर में तुम-सी समझदार बहू है ! बताओ, मुझे कब आना है ?’’

‘‘शीघ्रातिशीघ्र ! जब आपको सुविधा हो !’’

‘‘ठीक है ! मैं यथाशीघ्र रणवीर से सम्पर्क करूँगा और समय निश्चित करके तुम्हें सूचना दूँगा !’’

रणवीर के ताऊजी से बातें करके पूजा थोड़ी-सी आश्वस्त हो गयी थी। पूजा से बातें करने के पश्चात् दो घंटे के अन्दर ही ताऊजी ने रणवीर के साथ बातें करके पूजा को फोन द्वारा सूचित किया कि रणवीर अपनी मम्मी के पास है और उसने मिलने के लिए रविवार का दिन निश्चित किया है । उन्होंने पूजा को यह निर्देश भी दिया कि अपने कार्यक्रम की सफलता के लिए उसे अपने तथा रणवीर के कुछ अन्य सम्बन्धियों से सम्पर्क स्थापित करके उनसे भी वहाँ पर आने का निवेदन करना चाहिए ताकि रणवीर पर न्यायोचित निर्णय लेने का दबाव बढ़े !

ताऊजी के निर्देशानुसार पूजा ने रणवीर के और अपने निकट सम्बन्धियों में बहुतों के साथ सम्पर्क किया। उन्हें अपनी समस्या बताते हुए अपनी यथास्थिति से अवगत कराया और समस्या को सुलझाने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित कराने का निवेदन किया। उन सम्बन्धियों में से, जिनसे पूजा ने सम्पर्क किया था, कुछ ने तो वहाँ आने में अपनी असमर्थता प्रकट करके क्षमा माँग ली, परन्तु अधिकांश ने पूजा की सहायता करने का निवेदन स्वीकार करके निर्धारित स्थान तथा समय पर पहुँचने का आश्वासन दे दिया। उन सबकी सहायता का आश्वासन पाकर पूजा की चिन्ता बहुत कम हो गयी । उसे अनुभव होने लगा था कि अब दिल्ली अधिक दूर नहीं है !

किन्तु, रविवार को जब पूजा वहाँ पहुँची और बातें आरम्भ हुई, तो परिस्थिति उसकी कल्पना के नितान्त विपरीत थी । वे सभी सम्बन्धी, जिन्हांने पूजा की सहायता करने के लिए वहाँ आने का उसे आश्वासन दिया था, उनमें से कुछ तो आये ही नहीं थे । शेष, जो आये थे, वे पूजा के विपक्ष में खडे़ होकर अन्याय और अनीति का साथ दे रहे थे। पूजा के पक्ष में निर्भय और निस्वार्थ होकर न्यायोचित बात कहने वाले केवल दो ही व्यक्ति थे- रणवीर के ताऊजी तथा रणवीर का चचेरा भाई विनय। इन दो सज्जनों की अनीति और अन्याय के विरुद्ध वाणी अपनी-अपनी हाँकने वाले रणवीर और रणजीत के पावस ऋतु के मेंढकों की टर्र-टर्र के समान अपशब्दों तथा अपमान-जनक व्यवहार के सामने दबकर रह गयी और वे पूजा को न्याय दिलाने में सफल नहीं हो सके । रणवीर के भाई रणजीत तथा उसकी माँ ने तो यहाँ तक कह दिया कि पूजा के साथ रणवीर का विवाह सम्पन्न होने से पहले वे वाणी को अपने घर की बहू मान चुके थे और अभी भी वे वाणी को अपने घर की बहू के रूप में ही देखते हैं !

अपने दाम्पत्य-सम्बन्धों को पुनः जीवन प्रदान करने के अपने अन्तिम प्रयास में पूजा विफल हो गयी थी । अब उसके पास एक ही विकल्प बचा था - न्यायालय की शरण में जाना । यह विकल्प उसके लिए अत्यावश्यक भी था, क्योंकि पिता की मृत्यु के पश्चात् उसके लिए और उसके बच्चों के लिए आर्थिक सम्बल के रूप में रणवीर के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं था । उस सम्बल को प्राप्त करने के लिए ही उसने ताऊजी के सहयोग से रणवीर को वापिस लाने का निर्णय लिया था। उसमें विफल होने के पश्चात् अब वह न्यायालय में जाने के लिए विवश थी ।

डॉ. कविता त्यागी

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