Aaghaat - 20 in Hindi Women Focused by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | आघात - 20

Featured Books
  • સંઘર્ષ - પ્રકરણ 20

    સિંહાસન સિરીઝ સિદ્ધાર્થ છાયા Disclaimer: સિંહાસન સિરીઝની તમા...

  • પિતા

    માઁ આપણને જન્મ આપે છે,આપણુ જતન કરે છે,પરિવાર નું ધ્યાન રાખે...

  • રહસ્ય,રહસ્ય અને રહસ્ય

    આપણને હંમેશા રહસ્ય ગમતું હોય છે કારણકે તેમાં એવું તત્વ હોય છ...

  • હાસ્યના લાભ

    હાસ્યના લાભ- રાકેશ ઠક્કર હાસ્યના લાભ જ લાભ છે. તેનાથી ક્યારે...

  • સંઘર્ષ જિંદગીનો

                સંઘર્ષ જિંદગીનો        પાત્ર અજય, અમિત, અર્ચના,...

Categories
Share

आघात - 20

आघात

डॉ. कविता त्यागी

20

समय का चक्र अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। ज्यों-ज्यों पूजा का प्रसव-काल निकट आ रहा था, त्यों-त्यों कौशिक जी की चिन्ता बढ़ती जा रही थी। उनकी चिन्ता का मुख्य कारण था कि अभी तक उन्होंने अपने समाज और निकट सम्बन्धियों में किसी को पूजा के गृह-क्लेश के विषय में कुछ नहीं बताया था और न ही बताना चाहते थे। पूजा का प्रसव-समय निकट आते देखकर कई महीने से मायके में आकर रहती हुई बेटी के विषय में पास-पड़ोसी तथा अन्य निकट-सम्बन्धी अनेक तरह के प्रश्न पूछने लगे थे । समाज के लोग अनुमान लगाने लगे थे कि पूजा किन्हीं असामान्य परिस्थितियों के कारण ही इतने समय से मायके में रह रही है। पास-पड़ोस में चर्चा चलने लगी थी -

‘‘पूजा की गर्भावस्था के चलते भी उसका पति कभी आते-जाते दिखाई नहीं दिया है ! लगता है, ससुराल वालों को न बहू की चिन्ता है, न बच्चे की ! ताली तो हमेशा दोनों हाथों से ही बजती है, एक हाथ से कभी ताली नहीं बजती ! घर में दो बर्तन होते हैं, तो परस्पर टकराते भी हैं, पर ऐसा कभी नहीं देखा कि गर्भवती बहू को मायके भेजकर उसकी सुध ही न ले।’’ यद्यपि इस प्रकार की बातें अभी तक मुँह छिपे ही कही जाती थी, किन्तु रमा के कानों में प्रायः पड़ने लगी थीं।

रमा के कानों में पड़ने वाली बातें जब कौशिक जी तक पहुँचती थी, तब उनके निर्णय की सम्भावित परिणति अत्यन्त चिन्तनीय होती थी। रमा की बातें सुनते ही वे कहते थे -

‘‘रमा, रणवीर तथा उसकी माँ से तो हमें किसी प्रकार की मानवता या सामाजिकता का निर्वाह करने की आशा नहीं रह गयी है ! पर, मुझे लगता है कि प्रसव का समय निकट आ गया है, इसलिए अब पूजा को उसकी ससुराल भेज देना चाहिए ! इस विषय में तुम्हारी क्या राय है ?’’

‘‘ऐसी दशा में ? वह भी तब, जबकि पूजा के आने के बाद से आज तक उन्होंने एक बार भी पूजा और इसकी कोख में पल रहे बच्चे की कुशल-क्षेम जानने की जरूरत नहीं समझी !’’

‘‘यह सब तो ठीक है, लेकिन पूजा के प्रसव-समय में रणवीर आस-पास नहीं होगा, तो ठीक नहीं होगा ! ईश्वर न करें, यदि उसके बच्चे के साथ या पूजा के साथ कुछ अशुभ घटित हुआ, तो रणवीर और उसका परिवार हम पर आरोप मँढे़गा कि .... ! एक स्त्री होकर तुम से अधिक कौन समझ सकता है कि प्रसव-समय में स्त्री के सिर पर कफन बँधा होता है।’’

‘‘मैं आपकी बातों से सहमत हूँ ! लेकिन, जब स्वयं रणवीर को अपने बीवी-बच्चे की चिन्ता नहीं है, तब पूजा को हम उसके पास कैसे भेज सकते हैं !’’

‘‘यही तो नहीं सूझ रहा है मुझे, कि कैसे ... ?"

इस प्रकार की बातें रमा और कौशिक जी के बीच अक्सर होती रहती थीं, लेकिन वे इस विषय में कोई अन्तिम निर्णय नहीं ले पा रहे थे। अपनी अनिर्णय की स्थिति को यश के समक्ष प्रकट करते हुए एक दिन कौशिक जी ने कहा कि वे बेटी को उसकी ससुराल भेजना चाहते है, ताकि वह प्रसव-समय में अपने पति के साथ रह सके और रेशमा बहू भी अपने घर आ जाए !

कौशिक जी ने यश के समक्ष यह विचार इसलिए व्यक्त किये थे कि वह उनके विचारों से सहमत होगा और उन्हें कोई यथोचित समाधन सुझायेगा । परन्तु, उस दिन यश अपने पिता के विचार से सहमत नहीं हुआ । उसने सीमित और स्पष्ट शब्दों में निर्णायक मुद्रा में कहा-

‘‘पूजा को इस दशा में उसकी ससुराल कैसे भेजा जा सकता है ? हमारे साथ रहेगी, तो संभवतः पूजा और उसका बच्चा दोनों का जीवन बच जाए ! . ससुराल में जाकर तो पूजा का जीवित बच पाना कठिन है ! किसी भी दशा में हम पूजा को उसके प्रसव होने से पहले कहीं नहीं भेेजेंगे ! वैसे भी, रणवीर ने तो अभी तक सम्पर्क ही नहीं किया है, हमारी ओर से सम्पर्क करने से उसका अंहकार और बढ़ जाएगा !’’

यश के निर्णय को सभी ने एकमत से स्वीकार कर लिया कि पूजा को उसकी ससुराल नहीं भेजा जाएगा, न ही रणवीर के साथ सम्पर्क करने के लिए पहल की जाएगी। पूजा आशा-निराशा के हिंडोले में झूलती हुई कभी सोचती थी, रणवीर अपने बच्चे की खातिर आयेगा और कभी सोचती थी, रणवीर नहीं आयेगा ! परन्तु सदैव ही उसकी आँखो में एक मौन प्रतीक्षा दिखाई देती थी - अपने गर्भस्थ शिशु के पिता के आने की ; दुख-सुख में साथ रहने की प्रतिज्ञा करने वाले अपने पति के आने की । वह चाहती थी, प्रसव के समय उसके नवजात शिशु का पिता उसके पास रहे और यदि प्रसवकाल उसका अन्तिम समय बनकर उपस्थित हो जाए, तो वह अपनी अन्तिम साँस पति की बाँहों में ले। पूजा की यही चाहत उसकी आँखों में प्रतीक्षा बनकर प्रतिक्षण दिखाई देती थी ।

प्रतीक्षा करते-करते शीघ्र ही वह दिन आ गया, जब पूजा के नवजात शिशु ने इस संसार का प्रथम-दर्शन किया। उस शिशु ने इस अपरिचित दुनिया में आकर जब प्रथम बार अपनी आँखें खोली, तब नानी, नाना, मौसी, मामा से मूक परिचय करते हुए अपने अस्तित्व की उद्घोषणा की ।

पूजा यह सोचकर व्यथित हो रही थी कि उसके नवजात शिशु के भाग्य में पिता का स्नेह-दर्शन दुर्लभ है ! यद्यपि नवजात शिशु को इस अभाव का आने वाले कई वर्षों तक ज्ञान होना संभव नहीं था, तथापि पूजा के लिए यह परिस्थिति कष्टकारक थी कि उसका नवजात शिशु अपने जन्म के समय अपने पिता के साथ-साथ दादी, बुआ, चाचा के आशीर्वाद और दुलार से वंचित था। पूजा की माँ अपनी बेटी के हृदयस्थ भावों को उसकी आँखो में पढ़ सकती थी, इसलिए बेटी की पीड़ा का अनुभव करके वह भी व्यथित हो रही थी। बार-बार उनकी आँखो में आँसू भर आते थे। परन्तु उन्हें यह सन्तोष था कि उनकी बेटी और नाती दोनों पूर्णरूप से स्वस्थ हैं।

जिस दिन पूजा का बच्चा चार दिन का हुआ, जच्चा-बच्चा दोनों को अस्पताल से छुट्टी मिल गयी । उसी दिन रमा ने कौशिक जी से तथा यश से कहा -

‘‘पूजा का प्रसव सकुशल हो गया है। उसने दूसरे पुत्र को जन्म दिया है । अब हमें रणवीर को सूचित कर देना चाहिए ! उन्हें कन्या के जन्म पर शायद प्रसन्नता नहीं होती, लेकिन पुत्र-जन्म की सूचना से वे सभी प्रसन्न होंगे ! ऐसा भी संभव है, इस बच्चे के बहाने से ही पूजा और रणवीर के बीच की दूरी कम हो जाए !’’

रमा के प्रस्ताव का यश और उसके पिता ने एक स्वर में विरोध करते हुए सपाट शैली में उत्तर दिया ‘‘नहीं, हमारी सूचना से वे लोग सकारात्मक अर्थ नहीं निकालेंगे ! वे इस सुख-समाचार को भी नकारात्मक रूप से ग्रहण करके सोचेंगे कि हमने पूजा के प्रसव में होने वाले व्यय-भार से बचने के लिए उन्हें सूचना दी है ! सूचना देने की कोई आवश्यकता है भी नहीं, क्योंकि यह सूचना तो उन्हें मिल ही चुकी होगी कि पूजा ने बेटे को जन्म दिया है ! नहीं भी मिली होगी, तो शीघ्र ही मिल जाएगी !’’

पूजा ने भी अपने पिता और भाई का संवाद सुना था । वह उनके मत से पूर्णतः सहमत थी । उसने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा था

‘‘संभव है, रणवीर ऐसा न भी सोचे, किन्तु उसकी माँ शत-प्रतिशत यही कहेंगी कि मेरे पुत्र-जन्म की सूचना उनके ऊपर व्यय-भार डालने के लिए दी गयी है। रणवीर इस सूचना को पाकर यदि अपने बच्चे के लिए यहाँ आने का आग्रह करेगा, तो वे उसे यहाँ आने की अनुमति नहीं देंगी और निश्चय ही वह अपनी माँ की अनुमति के बिना यहाँ नहीं आएगा। अतः बेहतर यही रहेगा कि वहाँ प्रत्यक्ष सूचना न दी जाए ! किसी के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से वहाँ सूचना पहुँचाने में कोई हर्ज नहीं है !’’

पूजा के मत से सभी सहमत थे । अन्ततः रणवीर को या उसके परिवार को प्रत्यक्ष किसी प्रकार की सूचना नहीं दी गयी।

धीरे-धीरे समय बीतता गया। समय के साथ-साथ अब पूजा का बेटा छः महीने का हो चुका था। वह घुटनों के बल सरकने भी लगा था, किन्तु रणवीर और उसकी माँ ने अपनी कठोरता का परिचय देते हुए पूजा और उसके बेटे की सुध नहीं ली। इतना समय व्यतीत होने के बाद पूजा ने रणवीर की प्रतीक्षा करना छोड़ दिया था। अब उसके हृदय में पति के प्रति निराशा का साम्राज्य स्थापित हो चुका था। अपने बेटे प्रियांश की मधुर स्मृतियाँ उसके हृदय पर प्रतिक्षण तैरती रहती थी, परन्तु वह प्रयास करती थी कि जो उसके पास है, उसी से सन्तोष करके प्रसन्न रहे। अतः पूजा ने निराश मन में आशा का संचार करते हुए मात्र छः माह के अपने छोटे-बेटे सुधंशु के लिए जीने का निश्चय किया। उसने निश्चय किया कि वह अपना सारा जीवन सुधांशु के लिए समर्पित करेगी और इसीके साथ रहते हुए अनुकूल समय आने पर अपने बड़े बेटे प्रियांश के साथ सम्पर्क करने का प्रयास करेगी।

एक दिन टी.वी. पर एक धरावाहिक देखकर पूजा के मस्तिष्क में यह विचार आया कि वह अपने बेटे को कानून की सहायता से अपने पास ले आए ! लेकिन, अब उसको यह भी अनुभव होने लगा था कि उसके तथा उसके बच्चों का व्यय-भार वहन करने का दायित्व रणवीर का है, उसके पिता का नहीं है। वह सोचती थी -

"अब तक ये मेरा जितना व्यय-भार वहन कर चुके हैं, वह करना आवश्यक था। भविष्य में भी मेरी और मेरे छोटे बेटे सुधांशु की सभी आवश्यकताएँ इन्हें ही पूरी करनी होंगी, इसलिए अतिरिक्त बोझ डालना उचित नहीं होगा !"

इस प्रकार अपने भविष्य की थोड़ी-सी व्यवस्थित और थोड़ी-सी अव्यवस्थित योजना बनाते हुए पूजा पुनः उसी मोड़ पर आकर खड़ी हो गयी थी, जहाँ वह डेढ़ वर्ष पहले प्रियांश को लेकर खड़ी थी । डेढ़ वर्ष पूर्व उसके चित्त में पुत्र-वियोग की पीड़ा नहीं थी, आज पति के वियोग के साथ अपने प्रथम पुत्र प्रियांश के वियोग की पीड़ा का भार भी उसकी नियति का अभिन्न भाग था।

परिस्थितियों से विवश पूजा ने एक बार फिर मायके में रहकर अपने बेटे का पालन-पोषण करने का निर्णय किया था, परन्तु इस बार उसके भाई यश को यह स्वीकार्य न था। यश ने अपने माता-पिता तथा पूजा के साथ इस विषय पर विचार-विमर्श करना आरम्भ कर दिया था । उसका तर्क था -

‘‘जीवन-भर पूजा का मायके में रहना उचित नहीं है। एक ओर तो रणवीर अपने दायित्व से मुक्त होकर स्वच्छन्द जीवन-यापन कर रहा है, दूसरी ओर पूजा कष्ट में रहकर उसके बच्चों का पालन-पोषण कर रही है !’’

यश का तर्क पूजा को अप्रिय लगा था। भाई की बात सुनकर उसे पहली बार अनुभव हुआ था कि अब यह घर उसका और उसके पिता का नहीं है, बल्कि पिता के उत्तराधिकारी, उसके भाई का है। यद्यपि उसको यही अनुभव कई बार उसके भाई की पत्नी रेशमा करा चुकी थी, किन्तु रेशमा की किसी बात को पूजा ने कभी भी इतनी गम्भीरता से ग्रहण नहीं किया था। उसका हृदय सदैव ही आश्वस्त रहता था कि उसका भाई कभी ऐसा नहीं सोचता है कि पूजा इस घर की सदस्य नहीं है। यश की बातों से अब उसके भ्रम को तोड़ने की जो चेष्टा हुई थी, उससे वह आहत हो गयी थी । चूँकि उस समय पूजा के पास उस घर में रहने के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं था, इसलिए वह शान्त-भाव से बोली -

‘‘भाई ये बच्चे केवल रणवीर के नहीं हैं, मेरे भी हैं ! सोचा जाए, तो उसके नहीं, मेरे ही हैं ! जिस मनुष्य को बच्चों की परवाह ही नहीं है, बच्चे उसके कैसे हो सकते हैं ?’’

‘‘इस बात से कुछ फर्क नहीं पड़ता है कि रणवीर को बच्चों की परवाह है या नहीं है ! फर्क मात्र इस बात से पड़ता है कि वह इन बच्चों का, तेरे बेटों का पिता है ! इसी अधिकार के बल पर प्रियांश उसके साथ है और पाँच वर्ष का होते ही वह सुधांशु को भी अपने साथ रखने के लिए केस दायर कर सकता है ! इसीलिए मैं कहता हूँ, तुम अपने भविष्य को सुरक्षित करने के विषय में सोचो और शीघ्र ही कोई यथोचित निर्णय ले लो।’’ यश ने निर्णायक शैली में कहा ।

यश के इस तर्क से सभी सहमत थे। पूजा भी इस तर्क से असहमत नहीं थी, क्योंकि उसको भी रणवीर पर विश्वास नहीं था कि पाँच वर्ष पश्चात् सुधांशु की कस्टड़ी के लिए वह कोर्ट का सहारा नहीं लेगा। वह जानती थी, रणवीर ऐसा कर सकता है । फिर भी, पूजा यश के निर्णय का न तो पूर्णतः समर्थन कर सकती थी और न ही उसका विरोध कर सकती थी । इसलिए वह किंकर्तव्यविमूढ़-सी दोनों हथेलियों से सिर को पकड़कर बोली -

‘‘क्या करूँ मैं ? रणवीर से तलाक लेकर सदैव के लिए अपने कलेजे के टुकड़ों से दूर रहने का निर्णय लूँ ? या उस आदमी के साथ रहने का निर्णय लूँ, जिसके साथ रहकर मैं नर्क से बदतर जीवन जीती हूँ ! और उस नर्क में जाने के लिए भी मैं उनसे प्रार्थना करूँ? उनके समक्ष गिडगिडाऊँ, कि वे मुझे वहाँ उस नर्क में थोड़ी-सी जगह दे दें ! जब मैं उस नर्क से निकलकर आयी थी, मेरे गर्भ में उसका अंश था । लेकिन, एक बार भी उसने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि उसका बच्चा या उसके बच्चे को पेट में पालने वाली उसकी पत्नी कहाँ-किस दशा में हैं ? उसी बच्चे को इस दुनिया में आये आज हुए छः महीने हो चुके हैं, आज तक उसका पिता कहलाने वाले व्यक्ति ने उसकी सुध नहीं ली है ! क्या पाँच वर्ष पश्चात् वह इसकी कस्टडी लेने के लिए आयेगा ? मेरे लिए ऐसी स्थिति में कुछ भी निर्णय लेना सरल नहीं है ! न रणवीर से तलाक लेकर दूसरा विवाह करने का, और न ही उस नर्क में जाने का !’’ अपनी परिस्थिति की विवशता को व्यक्त करते हुए पूजा का गला रुँध गया और वह फफक-फफक कर रोने लगी।

डॉ. कविता त्यागी

tyagi.kavita1972@gmail.com