Aaghaat - 16 in Hindi Women Focused by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | आघात - 16

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आघात - 16

आघात

डॉ. कविता त्यागी

16

शीघ्र ही ऐसा अवसर मिल गया जब पूजा और प्रेरणा दोनों एकान्त में बैठकर घंटों तक बातें कर सकती थी । उसने पूजा से उसकी चिन्ता का कारण जानने के लिए उससे कहा -

‘‘दीदी, आपका स्वास्थ्य ठीक तो है ना ?’’

‘‘हाँ, मैं बिल्कुल ठीक हूँ !’’

‘‘तो फिर आप सारा दिन उदास क्यों रहती हैं ?’’

‘‘ऐसी तो कोई बात नहीं है !’’ इतना कहते-कहते पूजा अपने मस्तिष्क में उठे विचारों के तूफान में खो गयी । कुछ क्षण तक वह बिल्कुल शान्त बैठी रही । वह निर्णय नहीं कर पा रही थी कि अपनी समस्या प्रेरणा को बताए या न बताए । चूँकि प्रेरणा अब परिपक्वता प्राप्त कर चुकी थी, इसलिए उसके बार-बार आग्रह करने पर पूजा ने अपने चित्त को व्याकुल करने वाले कारणों पर उसके साथ चर्चा करना ही उचित समझा ।

प्रेरणा के साथ चर्चा करते हुए पूजा ने भविष्य की सुरक्षा के प्रति अपनी शंका व्यक्त करते हुए कहा कि उसको ऐसा लगता है कि मायके में रहने का निर्णय उसकी ससुराल और मायका, दोनों के लिए ही अमंगलकारी परिणाम वाला है, क्योंकि जब कोई लड़की अपने विवाह के पश्चात् मतभेद के चलते अपने मायके में आकर रहती है, तब उससे सम्बन्धित दोनों परिवारों के प्रति समाज में नकारात्मक धरणा बन जाती है । उस स्थिति में एक ओर लड़की की सामंजस्य करने की योग्यता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है, जिसका सीधा आरोप उसके मायके वालों पर लगता है कि उन्होंने लड़की को अच्छे संस्कार नहीं दिये, तो दूसरी ओर ससुराल वालों पर बहू को यथोचित ढंग से न रखने का आरोप लगता है, जिससे समाज उन्हें हेय दृष्टि से देखता है ।

कहते-कहते पूजा चिन्ता के गहरे सागर में डूब गयी और कहा कि इस नकारात्मक प्रभाव का परिणाम उसके जीवन को बद से बदतर बना देगा, क्योंकि ऐसा होने पर रणवीर के साथ मेरे सम्बन्धों में और अधिक दूरी आ जाएगी । समझ में नहीं आता कि क्या किया जाए ? ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब बचना कठिन है, एक ओर खाई है दूसरी ओर कुआँ, जाऊँ तो किधर जाऊँ !

पूजा की मनोदशा को परखकर प्रेरणा ने कहा -‘‘तो क्या आप अब ससुराल जाना चाहती हो ?’’

‘‘नहीं, वहाँ जाने से भी हमारे बीच की खाई पटना सम्भव नहीं है । अत्याचार सहन करने की भी एक सीमा होती है ! मैं उनके इतने अत्याचार सह चुकी हूँ कि यदि कुछ समय उनसे दूर नहीं रही, तो उनसे इतनी घृणा करने लगूँगी कि किसी भी प्रकार से फिर उनके प्रति अपने प्रेम को वापिस नहीं ला सकूँगी ।’’

‘‘तब तो कुछ सोचने की आवश्यकता ही नहीं है ! आप वहाँ जाएँगी तो भी, नहीं जाएँगी तो भी, परिणाम तो वही होगा ! हाँ, न जाने पर सम्भव है कि आपका यहाँ रहना जीजा जी को और उनके परिवार को उनकी गलतियों का एहसास करा दे !’’

‘‘हाँ, मुझे भी यही ठीक लगता है ! अभी कुछ दिन यहीं पर रहना ठीक होगा मेरे लिए ।’’

‘‘तब वचन दीजिए, अब आप उदास नहीं होंगी !’’

‘‘हाँ, बाबा मैं वचन देती हूँ ! वैसे भी, अपनी तर्क-प्रकृति से तूने मेरी समस्या का आधा समाधन तो कर ही दिया है !’’

प्रेरणा के साथ अपनी समस्याओं पर विचार-विमर्श करके पूजा स्वयं को कुछ हल्का और तनावमुक्त अनुभव कर रही थी । अपने मायके में रहने के निश्चय के प्रति वह अब पूर्ण-रूप से सकारात्मक होने का प्रयास कर रही थी । परन्तु उसका भाग्य शायद उसके अनुकूल नहीं था । उसके वहाँ रहने से उसके समक्ष अब अनेक ऐसी बाधएँ उपस्थित होने लगीं थी, जिनकी कल्पना करना भी उसके लिए कठिन था ।

यश के विवाह को तीन वर्ष पूरे होने वाले थे । इन तीन वर्षों में उसकी पत्नी रेशमा और उसका डेढ़ वर्ष का बेटा अर्चित ही पूरे परिवार के आकर्षण का केन्द्र बने हुए थे । यद्यपि रेशमा को सास, ससुर, ननद आदि के साथ रहना बिल्कुल भी पसन्द नहीं था, तथापि वह उनके साथ रहने के लिए विवश थी, क्योंकि यश अपने उत्तरदायित्व और परिवार के स्नेह से मुक्त नहीं होना चाहता था । बस, यही एक कारण था कि रेशमा भी विवाह से अब तक उनके साथ जैसेे-तैसे करके अपना समय काट रही थी । परिवार के सभी सदस्य हर समय रेशमा को प्रसन्न रखने का प्रयास करते थे और भिन्न-भिन्न युक्तियाँ सोचते रहते थे कि उसको कैसे सन्तुष्ट रखा जाए ? उसको सन्तुष्ट और प्रसन्न रखने के अपने प्रयास में इस परिवार को सफलता भी मिली थी, जिसका प्रमाण यह था कि उन सबके साथ रहने की इच्छुक न रहते हुए भी वह आज तक किसी भी सदस्य के प्रति कोई शिकायत किये बिना उस घर में टिकी हुई थी ।

पिछले तीन वर्षों से भिन्न इस बार पूजा के आने पर पहली बार घर की परिस्थितियों में थोड़ा-सा परिवर्तन हुआ था । परिवर्तन प्रकृति का नियम है, परन्तु जब परिवर्तन व्यक्ति की प्रकृति के प्रतिकूल होता है, तब वह उसे सहजता से प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार नहीं करता है । तब वह उन प्रतिकूल परिवर्तनों के विरुद्ध संघर्ष करने का संकल्प लेता है । कौशिक जी के घर में भी कुछ ऐसा ही हुआ था । कौशिक के निर्देश तथा परिवार वालों के हार्दिक स्नेह के कारण सभी इस बात का विशेष ध्यान रखते थे कि पूजा को किसी प्रकार का तनाव न हो । उसके बेटे प्रियांश के प्रति भी प्रायः सभी के मनःमस्तिष्क में यह भाव रहता था कि अपने बालक को किसी प्रकार की कोई कमी रह जाए, तो कोई बात नहीं ! परन्तु यह दूसरे का बच्चा है, उसकी देखरेख में कोई कमी न रह जाए ! परिवार के इस प्रकार के वातावरण से रेशमा को यह अनुभव होने लगा कि अब वह उस परिवार के प्रेम का केन्द्र नहीं रह गयी है ।

चूँकि परिवर्तन की इस प्रतिकूल बयार को रेशमा सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रही थी, इसलिए अपने विचारों-भावों के अनुरूप इस बयार को रोकने के लिए ; अपने अस्तित्व को बचाने के लिए ; अपने पुराने समय को वापिस लाने के लिए उसने विद्रोह की घोषणा कर दी ।

हारना रेशमा का स्वभाव नहीं था । अतः प्रतिपक्ष पर विजय पाने के लिए उसने अपना शक्तिवर्द्धन आरम्भ कर दिया । इस कार्य को सम्पन्न करने के क्रम में उसने सर्वप्रथम बुढ़िया-पुराण की बहुत-सी बातों - निरर्थक और अप्रासंगिक सामाजिक रूढ़ियों की एक लम्बी सूची तैयार की, जिसको वह प्रतिपक्ष पर प्रहारात्मक हथियार के रूप में प्रयोग में ला सके । इसके साथ ही उसने कुछ ऐसे व्यवहारों का विश्लेेेषण और अभ्यास शुरू किया, जिन्हें वह रक्षात्मक साधन के रूप में प्रयोग करके अपनी पूर्वस्थिति को प्राप्त कर सकती थी ।

पूजा के वहाँ आने पर रेशमा की पूर्व स्थिति में बहुत अधिक गिरावट नहीं आयी थी, परन्तु पूजा की स्थिति में बहुत सकारात्मक परिवर्तन हो रहा था । इतना सकारात्मक परिवर्तन जैसेकि - प्यास से व्याकुल व्यक्ति को सरिता मिल गयी हो । अपने माता-पिता, भाई-भाभी और बहन के साथ रहकर परिवाररूपी सरिता के दो बूँद स्नेह-जल से पूजा के प्राणों को नयी जीवन-शक्ति मिल रही थी, जिससे सरिता के शीतल-निर्मल जल में कोई विशेष कमी आने की सम्भावना भी नहीं होती है । परन्तु रेशमा में सरिता का-सा औदार्य न था । वह पूजा को जब कभी जितना अधिक प्रसन्न देखती थी, तब-तब उसका उतना ही मानसिक तनाव बढ़ने लगता था । उसके चित्त में यह भ्रम घर करके बैठ गया था कि जिन कारणों से पूजा के होंठों पर हँसी आती है, उन सबसे उत्पन्न प्रसन्नता पर एकमात्र उसी का अधिकार है, पूजा का नहीं । रेशमा के विचार में विधाता ने सौभाग्य-स्वरूप उसको योग्य एवं प्रेम करने वाला पति दिया है, जो पूजा को नहीं मिला है, इसलिए प्रसन्न रहने का अधिकार भी केवल उसी को है, पूजा को प्रसन्न रहने का कोई अधिकार नहीं है ।

पूजा को अपनी ससुराल से आये हुए दो महीने हो चुके थे । वह पूरे परिवार के साथ सायास प्रसन्नचित् रहती थी । वह अधिकांश समय अपने बेटे प्रियांश और अपने भाई यश के बेटे अर्चित के कार्यों में व्यस्त रहने का प्रयास करती थी । जब कभी वह एकान्त पाती थी, तब उसकी आँखों से दो-चार अश्रु-बिन्दु अवश्य टपक जाते थे । अपने आसुँओं को वह इतनी कुशलता से छिपाती थी कि किसी को उसके प्रसन्न रहने पर सन्देह नहीं हो सकता था । वह अपना जीवन दो भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में जी रही थी, जैसे हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के अलग-अलग होते हैं । परिवार के सभी सदस्य उसके जीवन की इस विडम्बना से परिचित थे, परन्तु रेशमा को हाथी के दिखावटी दाँतों के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखता था । वह पूजा के बाह्य व्यवहारों को उसके अन्तर्मन की प्रसन्नता समझ लेती थी । इसलिए वह सदैव ऐसे अवसरों को ढूँढने का प्रयास करती थी, जब पूजा की प्रसन्नता के क्षणों को उससे हमेशा के लिए छीन सके ।

रेशमा प्रायः अपने लम्बे-लम्बे भाषणों से पूजा के शील-स्वभाव पर प्रश्न-चिह्न लगाती रहती थी -

‘‘पूजा दीदी इतनी ही सुशील थी, तो ससुराल में क्यों नहीं टिक पायी थी ? सुशील-स्वभाव वाली स्त्रियों को कभी अपना घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती ! विवाह के पश्चात् लड़की का घर ससुराल होता है ! जिसका अपने घर में निर्वाह नहीं हो सका, उसका निर्वाह भाई के घर में कैसे हो सकेगा ?’’

कभी-कभी तो रेशमा के व्यवहार स्त्रयोचित सौम्यता की सारी सीमाओं को तोड़कर वर्षाकालीन नदी की बाढ़ के समान अत्यन्त विध्वंसकारी रूप ग्रहण कर लेते थे । उस समय उसको अनुचित-उचित, अकरणीय- करणीय का बिल्कुल ज्ञान नहीं रहता था । ऐसी स्थिति में कभी-कभी वह उद्विग्न होकर नन्हें-सेेे प्रियांश पर बरस पड़ती थी -

‘‘इन दोनों माँ-बेटे ने तो हमारा जीवन नर्क बना दिया है ! पूजा हमारे हिस्से को गटकने के लिए साँपिन की तरह यहाँ कुंडली मारकर बैठ गयी है और यह सँपोला दिन-भर मेरे बेटे की चीजें छीन-छीनकर खाता है और खेलता है ! मेरे बेटे के खिलौने तोड़ता रहता है ! इतने में भी चैन नही पड़ता, तो इसे मारता है ! यही हाल रहा तो मैं इस घर में नहीं रह सकती ! ससुर जी इन्हें यहाँ रखना चाहते हैं, तो रखें इन्हीं को ! मैं अपनी मम्मी के घर चली जाऊँगी या अलग घर लेकर रहूँगी ।’’

रेशमा के इन विचारों और व्यवहारों से पूजा बहुत आहत होती थी । परन्तु अब उसके पास यहाँ रहने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था । यहाँ रहना उसकी विवशता थी, जिसका निदान समय से श्रेष्ठ कोई नहीं कर सकता था । अपने समय की विषमता को समझते हुए वह हर सम्भव प्रयास करती थी कि जब तक यहाँ रहे, तब तक वह किसी के कष्ट या तनाव का कारण न बनें । वह अपने प्रत्येक कार्य-व्यवहार से रेशमा को यह विश्वास दिलाने का प्रयास करती रहती थी कि पूजा और प्रियांश के यहाँ रहने से उसकी तथा उसके बेटे अर्चित की सुख-सुविध में कोई कमी नहीं आयेगी और न उन दोनों के हिस्से का स्नेह कोई छीन सकता है । परन्तु रेशमा इस बात को समझने-मानने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी । न ही वह पूजा के प्रति अपने व्यवहार में परिवर्तन करने के लिए तैयार थी ।

रेशमा के व्यवहारों ने एक बार फिर पूजा को विवाहित स्त्री के अधिकारों और कर्तव्यों के विषय में सोचने के लिए विवश कर दिया था । वह रात-दिन सोते-जागते इस गम्भीर विषय पर चिन्तन करने में तन्मय रहने लगी कि आखिर एक सामान्य स्त्री का जीवन कैसे सुखी बन सकता है ? अपने अब तक के जीवन में उसने अनुभव किया था कि सामान्यतः सभी स्त्रियाँ आजीवन अपने पिता, भाई, पति, पुत्र आदि के रूप में पुरुष के प्रति समर्पित होती हैं । उनमें से अधिकांश का जीवन पीड़ा और व्यथा में डूबकर व्यतीत होता है । फिर भी, एक स्त्री किसी दूसरी स्त्री की पीड़ा के प्रति संवेदनशील नहीं होती । इसके साथ ही प्रायः स्त्री ही स्त्री की पीड़ा का प्रत्यक्ष कारण बनकर आगे आती है ।

इसी चिन्तन-मनन की दुनिया में विचरण करते हुए पूजा को बचपन में अपनी माँ से सुनी हुई कुछ सार्थक, गूढ़-गम्भीर अर्थ धरण करने वाली कहानियों का स्मरण हो आया । उन छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से उसकी माँ अनेक-अनेक युक्तियाँ सिखाती थी, जो इस पितृसत्तात्मक सामाजिक-व्यवस्था में एक स्त्री को सम्मान के साथ जीने के योग्य बनाती हैं । पूजा उस समय उनके गूढ़ अर्थ का बोध न होने के कारण उन्हें केवल मनोरंजन के लिए सुनती थी । परन्तु, आज उसे अनुभव हो रहा था कि वे कहानियाँ केवल मनोरंजन के लिए नहीं थीं । वे कहानियाँ भूल-भूलैया खेल के समान ही समस्याओं के समाधन की युक्तियाँ थी ; शक्तिविहीन होते हुए भी शक्तिसम्पन्न बनने की कला सिखाने वाली थी वे कहानियाँ । उन कहानियों के सार-वाक्य अथवा शिक्षाएँ पूजा को आज भी स्मृत हैं, यथा - " ‘दूल्हन वही, जो पिया मन भाये’ तथा ‘जिसके संग हैं आप कृष्ण जी वे नारी कब हारी’ !"

माँ से बचपन में सुनी हुई कहानियों के सार-वाक्यों को केन्द्र में रखकर ही वह आज अपनी वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करने बैठी थी । वह सोच रही थी कि यदि रणवीर उसके साथ होता, तो शायद आज उसकी दशा इतनी शोचनीय नहीं होती । लेकिन कृष्ण का साथ पाने के लिए भी स्त्री को अनेक अग्नि परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है, तभी उसका भाग्योदय होता है । माँ की कहानियों में वही स्त्री पति की प्रिया बनकर उसका सान्निध्य प्राप्त करने में सफल होती थी, जो उसकी प्रत्येक उचित-अनुचित बात का समर्थन करती थी । उसकी अनुचित बात का भी कभी विरोध न करे, भले ही उस बात से स्त्री को कितना भी कष्ट क्यों न हो । वह पति की पूर्णरूपेण अंधभक्तिनी बनी रहे, पति की सेवा में तल्लीन रहे । यदि उसकी आत्मा को किसी बात से कष्ट पहुँचा हो, तो भी चेहरे पर उदासी न आने दे, यही पत्नी-धर्म होता है । इतने गुणों को धारण करने वाली स्त्री को ही पति का सम्बल और सान्निध्य प्राप्त हो सकता है ! ऐसी ही स्त्री का भाग्योदय हो सकता है !

पूजा सोच रही थी कि जो स्त्री इन सब गुणों को धारण करने वाली होगी, क्या उसके जीवन में भाग्य के उदय और अस्त होने के अलग-अलग अर्थ हो सकते है ? आँखे बन्द करके पति की हर उचित-अनुचित बात का समर्थन कोई स्त्री कब तक कर सकती है ? अपनी पीड़ा को छिपाकर एक पत्नी कब तक कृत्रिम व्यवहार से प्रसन्न रहने का अभिनय कर सकती है और क्यों ? ससुराल में रहकर यदि पत्नी अपने पति के समक्ष अपने प्रकृत भावों को अभिव्यक्त नहीं कर सकती, तब वह किसके समक्ष अपने सुख-दुख को कहेगी ? आखिर स्त्री क्यों इतनी बेबस-परबस और लाचार है ? आखिर क्या है, जो एक सर्वगुण सम्पन्न, कर्मठ स्त्री को सारा जीवन पुरुष के अत्याचारों को सहन करते हुए व्यतीत करने के लिए मजबूर कर देता है ? प्रश्नों की यह शृंखला पूजा के मस्तिष्क को झकझोरने लगी और उसके अन्तःकरण में अनेक संकल्प-विकल्प उभरने लगे ।

डॉ. कविता त्यागी

tyagi.kavita1972@gmail.com