Bhraman ki Beti - 4 in Hindi Moral Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | ब्राह्मण की बेटी - 4

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

ब्राह्मण की बेटी - 4

ब्राह्मण की बेटी

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 4

संध्या का स्वास्थ्य पिछले कुछ दिनों से बिगड़ता जा रहा है, पिता के उपचार से लाभ होना, तो दूर रहा, उलटे हानि हो रही है। जगदधात्री डॉक्टर विपिन से सम्पर्क करने को कहती और संध्या असहमति में झगड़ा करती। आज शाम संध्या द्वारा बनाये साबूदाना को अनमने भाव से निगल गयी; क्योंकि यह पथ्य उसे कभी रुचिकर नहीं रहा, किन्तु आज माँ उपालम्भ से बचने के लिए वह न चाहते हुए भी निगल गयी। वह इस तथ्य से भली प्रकार परिचित थी कि उसकी माँ का सारा ध्यान इस ओर टिका होगा कि लड़की ठीक से खाती है या नहीं। खाने से पहले वह किसी पुस्तक को पढ़ रही थी। ज्यों ही वह गोद में खुली पड़ी पुस्तक को समेटने लगी, त्यों ही उसने खिड़की से अपने को बुलाये जाने की आवाज को सुना। बाहर आकर उसने देखा कि सामने अरुण खड़ा आवाज लगा रहा था, “चाची घर पर हो?”

समीप आकर अरुण बोला, “हाँ, किन्तु तुम इतनी मरियल कैसे हो गयी हो? कहीं फिर से बीमार तो नहीं पड़ गयीं?”

“यही लगता है, किन्तु तुम भी तो मुझे स्वस्थ नहीं दिखते?”

हंसकर अरुण बोला, “जब दिन-भर नहाना-खाना कुछ भी नसीब नहीं हुआ तो चेहरे का मुरझाना तो निश्चित था, तुमने पैटर्न की फरमाइश की थी, पूरे दिन उसकी खोज में भटकता फिरा।”

यह कहते हुए अरुण ने अपने बैग से कागड का एक बण्डल निकालकर सन्घ्या को थमा दिया और बोला, “चाचा तो बाहर निकल गये होंग, किन्तु चाची दिखाई नहीं देती, वह कहां गयी है? पिछले शनिवार को घर न आने पर तुम्हारा सामान लाने में देर हो गयी।”

संध्या बोली, “स्टेशन से घर न जाकर सीधे इधर चले आये हो, ऐसी क्या जल्दी थी? घण्टे-भर बाद आते, तो क्या अन्तर पड़ जाना था?”

अरुण बोला, “मेरा खाना-पीना तो संध्या के बाद होगा, कोई जल्दी नहीं, किन्तु तुम्हारा जल्दी जल्दी बीमार पड़ जाना भारी चिन्ता का विषय है।”

“संध्या के बाद” शब्दों मे श्लेष था. छिपा अर्थ-था पहले संध्या खोयेगी, तभी तो अरुण-खा सकेगा। इस तथ्य को समझते ही संध्या के कान लाल हो उठे और ह्दय में आनन्द दौ़ड़ गया, किन्तु ऊपर (बाहर) से संध्या ने अपने को ऐसा सामान्य दिखाया, मानो वह कुछ समझी ही न हो। फिर भी श्लेष का प्रयोग करती हुई संध्या बोली, “अब संध्या होने में बी कितना समय बचा है, अधिक देर करना ठीक नहीं, जाकर नहा-खा लो।”

हंसता हुआ अरुण उत्तर तो देना चाहता था, किन्तु सामने आ खड़ी चाची की मुखमुद्रा को देखकर चुप हो गया। क्रुद्ध जगदधात्री भुनभुनाती हुई कमरे से बाहर हो गयी। बाहर आने से पहेल लड़की से बोली, “बेटी, पहले मुंह रखे पान चबाना छोड़ो और थूककर बाहर फेंक दो, फिर जी-भरकर हंसी-मजाक करही रहो।”

चुपचाप खड़े अरुण न यह सब सुना, तो अपने को एकदम आहत अनुभव करने लगा। संध्या को माँ का कथन सही नहीं लगा। दोनों का चेहरा एकदम काला पड़ गया, मानो प्रकाश का स्थान संध्या के अन्धकार ने ले लिया हो। काफी देर तक हक्का-बक्का रहने के बाद संभली संध्या पान थूककर दुःखी स्वर में अरुण से बोली, “तुम अपने को अपमानित देखने के लिए इस घर में क्यों आते हो? क्या तुम हम लोगों का सर्वनाश करके प्रसन्न होओगे?”

कुछ देर की चुप्पी के बाद अरुण बोला, “संध्या, तुमने मुंह का पान थूक दिया है, इसका अर्थ है कि तुम मुझे सचमुच अछूत मानती हो।”

सहसा आँसू बहाती हुई संध्या बोली, “तुम्हारा न तो कोई धर्म है और न कोई जाति, किन्तु मैं पूछती हुँ कि तुमने मुझे क्यो छुआ है?”

चकित-विस्मित हुआ अरुण बोला, “संध्या, क्या कहती हो, मेरी कोई जाति और धर्म नहीं है?”

संध्या दृढ़ स्वर में बोली, “मैंने कुछ गलत नहीं कहा, तुम विलायत गये हो या नहीं? इसलिए तुम म्लेच्छ हो और इसीलिए तुम्हें उस दिन माँ ने पीतल के लोटे में पानी दिया था। क्या यह भी भूल गये हो?”

“नहीं, मुझे याद नहीं, किन्तु क्या तुम भी मुझे अछूच मानती हो?”

“मेरे मानने-न मानने से क्या होता है? तुम तो जिस दिन से लोगों की मनाही को इनकार कर विलायत गये हो, उसी दिन से सबकी दृष्टि में अछूत बन गये हो।”

अरुण बोला, “किन्तु मैं सोचता था...।”

“तुम क्या सोचते थे कि मैं बाकी लोगों से अलग हूँ?”

अरुक इसका कुछ भी उत्तर न दे सका, किन्तु कुछ देर बाद वह बोला, “इसका अर्थ हे कि मुझे अब इस घर में नहीं आना चाहिए, किन्तु मेरा तुमसे अनुरोध हे कि तुम मेरी उपेक्षा मत करो। मैंने ऐसा कोई भी काम नहीं किया, जिससे लिए मुझे लज्जित होना पड़े अथवा पश्चाताप करना पड़े।”

संध्या बोली, “अरुण भैया! क्या तुम्हें भूख-प्यास नहीं सताती, जो बेकार में इतनी देर से मुझसे उलझ रहे हो?”

“मैं तुमसे भला क्यो उलझाने लगा? अपने से धृणा करने वाले से उलझने में भला कौन-सी समझदारी है?”

यह कहकर अरुण बाहर चला गया और पाषाण-प्रतिमा बनी संध्या एकटक उसे देखती रह गयी।

प्रसन्न होकर लौटी संध्या की माँ बोली, “अच्छा हुआ, जो चला गया, अब कभी इधर मुंह नहीं करेगा।”

संध्या को मानो बिजली का करण्ट लगा, “क्या कहा?”

माँ बोली, “बेकार में तुझे छू गया, जा कपडे बदल ले।”

बेटी के मन की प्रतिक्रिया को माँ समझ न सकी, इसीलिए बोली, “अरुण क्रिस्तान जो ठहरा, कपड़े जो बदलने ही होंगे। अरी, कोई विधवा अथवा वृद्ध, तो उससे छू जाने पर स्नान के बाद ही शुद्ध होती। उस दिन रासो मौसी....। माना कि वह अपने मुंह मिया-मिट्ठु बनती हैं, फिर भी, यह तो मानना ही पड़ेगा कि आचार की रक्षा में वह आदर्श है। दूले की छोकरी के द्वारा न छूए जाने की कहने पर भी मौसी ने नातिन को नहलाकर ही दम लिया।”

संध्या ने कहा, “ठीक है, मैं वस्त्र बदलकर आती हूँ।”

माँ आदर्श के महत्व पर भाषण झाड़ने जा रही थी कि पीछे से आ रही पुकार को सुनकर रुक गयी, “जगदधात्री! घर में हो ने!” कहते हुए गोलोक चटर्जी उसके घर के आंगन में आ खड़े हुए।

चटर्जी महाशय का स्वागत करती हुई जगदधात्री बोली, “अहोभाग्य, जो आज सुदामा की कुटिया में कृष्ण बनकर मामा पधारे है।”

जगदधात्री मुस्कारा तो रही थी, किन्तु रासमणि की बात के याद आते ही वह चिन्तित हो उठी। संध्या उठकर खड़ी हो गयी और गोलोक जगदधात्री की उपेक्षा करके संध्या की और उन्मुख होकर बोला, “कैसी हो संध्या? कुछ दुबली लग रही हो? स्वास्थ्य तो ठीक चल रहा है न?”

सकुचाती हुई संध्या बोली, “बाबा, मैं ठीक हूँ।”

माँ नकली मुस्कान चेहरे पर लाकर बोली, “मामा, वैसे तो लड़की ठीक है, किन्तु पिछले महीने से रह-रहकर ज्वर का आक्रमण हो जाता है। आज कितने दिनों के बाद सागूदाना खाया है।”

गोलोक बोला, “अच्छा तो यह बात है! अरे, विवाह न करके लड़की को कुंआरी रखोगी, तो यह सब होगा। जिसे अब तक दो-चार बच्चों की माँ होना चाहिए था, उसे तुमने कुंआरी रख छोड़ा है। कब इसका विवाह कर रही हो?”

गोलोक की बात को बदलती हुइ जगदधात्री बोली, “मैं ठरही औरत। तुम्हारे दामाद को इसकी चिन्ता ही नहीं है। वह तो अपनी डॉक्टरी में मस्त हैं। मामा, अपने पति के व्यवहार को देखकर तो मन में आता है कि झूठी मोह-माया छोड़कर काशी में सास के पास चली चाऊं। पीछे जो होना हो, होता रहे।” कहती हुई उसका गला रुंध गया और वह बिलखने लगी।

गोलोक ने पूछा, “वह पगला आजकल क्या करता है?”

जगदधात्री बोली, “वह ठीक से पागल बी तो नहीं, जो उन्हें घर में जंजीर से बांधकर रखूं वह न तो पागल है और न ही समझदार। मेरा जीवन तो इस घर में बर्बाद हो गया है।” कहती हुई अपने आँचल से आँसें पोंछने लगी।

सहानुभूति में गोलोक बोला, “इसमे तो कोई सन्देह नहीं, किन्तु बेटी, तुम भी तो अपनी लड़की के हाथ पीले करनेक को उत्सुक नहीं लगतीं। तुम सोचती हो कि स्वयं लड़के वाले तुम्हारे घर अलख जगायेंगे। बेटी, कुलीन परिवारो को यह सब शोभा नहीं देता। तुमने सुना ही होगा कि गंगायात्रा के प्रसग में भी कुलीनों ने अपने कुल-धर्म की उपेक्षा नहीं की। मधुसूदन, सबकी लाज रखना, तुम्हारा ही भरोसा है।”

जगदधात्री बोली, “मामा, अपसे यह किसने कहा कि हम भगवान के सहारे हाथ-पर-हाथ धरे बैठे है? आज तक जब किसी कायस्थ ने भी पैर नहीं धरे, तो मैं भाग्य के सिवाय और किसे दोष के सकती हूं? लड़की को कुएं में तो नहीं धकेला जा सकता, कुछ देखना तो पड़ता है।”

गोलोक बोला, “यह तो सही है। देखूंगा।”

जाने की इच्छा पर भी संध्या सिर झुकाये वही खड़ी रही। उसकी ओर देखकर धूर्त गोलोक बोला, “जगदधात्री, यदि तुझे लड़की के लिए स्वयं नारायण नहीं चाहिए, तो इसे मुझे क्यो नहीं दे देती? इस सम्बन्ध में कोई वाधा नहीं है। तुम्हारी लड़की रानी बनकर पूरे इलाके पर राज्य करेगी। क्यो नातिन! मेरे बारे में तुम्हारा क्या राय है?”

संध्या पूरी तरह चिढ़ गयी। अरुण और पिता के सम्बन्ध में माँ की बातों से वह पहले ही उखड़ी हुई थी, गोलोक के इस कथन ने उसके ह्दय में आग लगा दी। वह क्रुद्ध स्वर में बोली, “बाबा, अब तुम्हारी आयु चार जनो द्वारा उठाये जाने वाली घोड़ी पर चढ़ने की है। हाँ, तुम्हारे इस घोड़ी पर सवार होकर आने पर मैं फूलमाला अवश्य डाल दूंगी।” कहकर वह तेजी से भीतर कमरे में चली गयी।

लड़की की इस तीखी चोट से आहत गोलोक असन्तुलित होकर बोला, “लड़की तो तोप का गोला है। जगदधात्री, इस पर नियन्त्रण रखना। मैंने सुना है कि यह तो बाप को भी खरी-खोटी सूना देती है, किसी को नहीं छोड़ती।”

जगदयात्री को इस बात का पहले से डर था। बीच में उसे कुछ देर के लिए अवश्य लगा कि गोलोक मजाक कर रहा था। यदि लड़की सांप को बाम्बी से जबर्दस्ती न निकालती, तो वह शायद सारी बातचीत को मजाक में उड़ा भी देती, किन्तु अब तो स्थिति बिगड़ गयी थी। जगदधात्री गिड़गिड़ाती हुई बोली, “मामा लड़की नादान है, उसकी बात का बुरा न मानना। उसकी ओर से मैं माफी मांगती हूँ।”

गोलोक बोले, “मुझे उसका कथन अच्छा नहीं लगा और फिर तूने सुनकर भी उसे डांटा-डपटा नहीं। लगता है कि चींटी के पर निकलने लगे हैं। मधुसूदन तुम्हारा ही भरोसा है।”

जगदधात्री बोली, “मामा, तुम्हारे सामने मैंने जवान लड़की को डांटना ठीक नहीं समझा। अब उसकी एसी खबर लूंगी कि फिर किसी के आगे मुंह खोलने से पहले उसे दस बार सोचना पड़ेगा।”

गोलोक ने कहा, “जगदधात्री, मेरे कारण बेटी को दुर्गती न करना। नासमझ छोकरी पर घर-गृहस्थी का भार पड़ेगा, तो अपने-आप संभल जायेगी। अच्छा, यह बता कि अरुण अब भी इस घर में आता है?”

डरी हुई जगदधात्री को झूठ बोलना पड़ा, “नहीं तो।”

गोलोक ने कहा, “ठीक है, उसे मुंह न लगाना, लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं।”

संध्या बचपन से अरुण को भैया कहकर पुकारती है। अरुण के विलायत जाने से पहले दोनों काफी घनिष्ठता थी, किन्तु अरुण इतनी छोटी जाती का ब्राह्मण था कि जगदधात्री उसके साथ संध्या के विवाह का स्वप्न भी नहीं देख सकती थी। अरुण के विलायत से लौटने पर दोनों की निरन्तर और उतरोतर बढ़ रही घनिष्ठता और उनकी चढ़ती जवानी से जगदधात्री को दोंनो के एक-दूसरे को समीप आने की झलक मिलने लगी थी। फिर भी, इस सम्बन्ध के परिपुष्टि होने की सम्भावना न होने के कारण जगदधात्री विशेष चिन्तित नहीं हुई थी। अब दूसरों के मुंह से इस प्रकार के आरोप सुनने पर जगदधात्री के लिए इसकी अपेक्षा करना सम्भव न रहा। वह तीखे स्वर में गोलोक से बोली, “मामा, वैसे तो किसी के मुंह पर हाथ नहीं रखा जा सकता है, जिसके मुंह में जो आये, वह किसी के बारे में कुछ भी बक सकता है, किन्तु मैं पूछती हूँ कि लोग मेरी लड़की के ही पीछे हाथ धोकर क्यो पड़़े हैं। क्या सारे गाँव के लोगों के पास यही एक काम रह गया है?”

हंसते हुए गोलोक ने कहा,“तुम्हारी शिकायत सही है, किन्तु दूसरों को कुछ कहने से पहले अपने को संभालने में ही बुद्धिमत्ता है।”

जगदधात्री इसका उत्तर देने ही जा रही थी कि उसने तालाब से नहाकर आती संध्या को देखा। उसके तन के कपड़े गीले थे, सिर के बालों से पानी चू रहा था। लगता था कि उसने सिर पोंछा तक नहीं है। इस स्थिति में लड़की को घर में प्रवेश करते देखकर गोलोक ने चिन्तित स्वर में कहा, “जगदधात्री, तुम तो कहती थी कि लड़की ज्वर-पीड़ित है। शाम के समय इसे नहाना तो नहीं चाहिए था।”

जगदधात्री बोली, “मामा, आजकल लड़कियों का यही हाल है।” मन-ही-मन वह समझ गयी कि लड़की ने अरुण के अपमान करने का दण्ड़ किया है।

गोलोक बोला, “इस तरह की बेपरवाही का परिणाम भयंकर हो सकता है।”

“जो भी भाग्य में लिखा होगा, वह भूगतूंगी। मेरे बस में क्या है मामा?”

“यह तो ठीक है। अच्छा, यह बताओ कि इस घर में किसका शासन चलता है, तुम्हारा, तुम्हारे पति का या तुम्हारी लड़की का?”

“इस घर में केवल मेरी नहीं चलती।”

“तो फिर अपने पति से कह देना कि मुहल्ले से दूले-बाग्दियों को यथाशीध्र चलता करें। यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया, तो मुझे हस्तक्षेप करना पड़ेगाय़। फिर मुझे कहने न आना। मधुसूदन तुम्हारा ही सहारा है।”

क्रुद्ध और उग्र स्वर में जगदधात्री ने पुकारा, “सन्धो, इधर आना।”

कमरे में बाल पोंछ रही संध्या ने मुंह निकालकर पूछा, “माँ, क्या बात है?”

जगदधात्री बोली, “उन शुद्रों को तु हटायेगी या फिर कल नहाने से पहले झाडू मार-मारकर मैं उन्हें भगाऊं?”

“माँ, दुःखी, असहाय एवं दरिद्र लोगों पर हाथ उठाना कौन-सा वीरता का काम है? यह तो कोई भी कर सकता है। फिर भी, उनके रहने में आपको क्या आपत्ति है?”

गोलोक ने कहा, “आपत्ति की बात कहती हो, तो सुनो। परसों मैं घूम-फिरकर घर लौट रहा था, तो देखा कि स़ड़क पर खड़ी बकरी को वह लड़की मा़ड़ पिला रही है। मांड़ छिटककर गिरना तो स्वाभाविक ही है न।”

गोलोक को अपने चेहरे पर ताकता देखकर समर्थन में बोली, “इसमें कोई संदेह थोड़ी हैं, मांड के छींटे तो पड़ते ही हैं मामा।”

गोलोक ने कहा, “अनजान में भले ही सांप का विष भी खा लिया जाये, किन्तु जान-बूझकर तो जीती मक्खी नहीं निगली जा सकती।”

संध्या की और उन्मुख होकर वह बोले, “नातिन, तुम्हारी बात अलग है। तुम्हारी आयु की लड़कीयां तो समय-असमय कभी भी स्नान कर सकती हैं, किन्तु मुझ-जैसे व्यक्ति के लिए तो यह सुविधाजनक नहीं हैं।”

अपने भीतर के उफान को दबाती हुई संध्या को कहना पड़ा. “हाँ. बाबा, यह तो सत्य ही है, किन्तु विचारणीय यह की बाबू जी ने जब उन निराश्रितों को आश्रय दिया है, तो उनके किसी दूसरे वैकल्पिक आवास की व्यवस्था किये बिना उन्हें उजाड़ना तो अन्याय होगा। इसके अलावा इस बाबू जी का भी अपमान ही कहा जायेगा।”

लड़की के इन तर्को पर माँ को इतना क्रोध आया कि उसे लड़की से बात करना ठीक नहीं लगा। गोलोक ने कहा, “ठीक है, वैकल्पिक व्यवस्था भी कुछ कठिन काम नहीं। अरुण के घर के पीछे बहुत सारी धरती-परती पड़ी है। उसे इन शुद्रों को बसाने के लिए कह दे। बाग्दी-दूले शुद्र होने पर भी स्वधर्मी हिन्दू ही तो हैं। उसे तो इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, इससे उसकी जात के जाने का कोई खतरा भी नहीं है।”

यह कहकर गोलोक माँ-बेटी के चेहरे पर ताकने और मन्द-मन्द मुस्कराने लगे। यह सुझाव जगदधात्री को उपयुक्त तो लगा, किन्तु अरुण के नाम पर अनाड़ी लड़की कहीं भड़की न उठे, इस आशंका से उसने कोई भी टिप्पणी करना ठीक नहीं समझा।

जगदधात्री की सोच सही थी। उत्तेजित लड़की उचित-अनुचित के विवेक को छोड़कर कठोर-कर्कश स्वर में बोली, “यदि जाति भ्रष्ट भी होती हो, तो इसकी चिन्ता अरुण भैया को नहीं है। जात-पात पर विश्वास न करने वाले इस बारे में सोचते ही कहां है?”

गोलोक ने हंसने की चेष्टा की, किन्तु उसका चेहरा बुझ गयाय़ वह झेंप मिटाने के लिए बोले, “इस विषय पर तुम्हारी उससे बातचीत होती होगी।”

खिलखिलाकर हंसती हुई संध्या बोली, “क्या बात करते हो, जब वह आप-जैसे बड़े लोगों को दो कौड़ी नहीं समझते, तो मेरे साथ कहां से बात करेंगे?”

यह कहकर वह प्रतिक्रिया अथवा प्रत्युतर की प्रतिक्षा किये बिना ही वहाँ से चलती बनी।

जगदधात्री से अपनी लड़की का आचरण सहन नहीं किया गया, इसलिए वह क्रुद्ध होकर बोली, “नादान लड़की, पराये लड़के पर मनगढंन्त आरोप क्यों लगाये जा रही हो? उसने मेरे साने आज तक ऐसी कोई बात नहीं की। इसके लिए मैं गंगा की शपथ लेकने को तैयार हूँ।”

पता नहीं, घर के भीतर घुसी संध्या ने सुना या नहीं सुना, किन्तु उसने उत्तर कुथ भी नहीं दिया। इस पर गोलोक ने कहा, “जगदधात्री, आजकल के सभी लड़के और लड़कीयां ऐसे ही हैं। तुम बेकार में ही परेशान हो रही हो। हम दो कौ़डी के हैं या लाख रुपये के हैं, यह तो तुम्हे समय बतायेगा, किन्तु आज तुम्हें यह चेतावनी देना आवश्यक समझता हूँ की इस तेज-तर्रार लड़की से जितनी जल्दी छुटकारा पा सकती हो, पा लो, नहीं तो हाथ मलती रह जाओगी।”

जगदधात्री गिड़गड़ाकर बोली, “मामा, मेरी अकल तो काम नहीं करती, तुम्हीं इस काम में मेरी कुछ सहायता करो न।”

गोलोक प्रसन्न भाव से सिर हिलाकर बोले, “ठीक है, अब मैं ही देखूंगा विचारणीय तथ्य यह है कि तुम्हारी लड़की है, यदि दूर ब्याही गयी, तो इसकी सूरत भी देखने को तरसती फिरोगी। समीप का लड़का मिल जाये, तो दो समय लड़की को देखकर जी ठण्डा कर सकोगी। इसलिए तुम्हें कहता हूँ कि लड़के की उम्र के पीछे मत जा। यह तो तुम जानती ही होगी कि कुछ पाने के लिए कुछ छोड़ना भी पड़ता है।”

भावुकता से आँसु पोंछती हुई जगदधात्री बोली, “मामा, मेरे ऐसे भाग्य कहां? किन्तु हाँ, यदि घर जमाई...।”

बीच में ही गोलोक बोल उठे, “अपने को ऐसी मन्दभाग्य क्यों कहती हो? घर-जमाई को तो यमराज समझना चाहिए, यदि कहीं से कोई गंवार-भोंदू फंसा बी तो गांजा-सुल्फा में सारी सम्पति फूंककर तुम्हे सड़क का भिखारी बना देगा।”

गोलोक के संकेत को समझकर तड़पती हुई जगदधात्री बोली, “मैं तो जीवन-भर के लिए तड़ना-जलना लिखा लाई हूँ मामा।”

मुस्कराकर गोलोक बोले, “उचित समय पर उचित काम न करने वाला सदैव अपने दुर्भाग्य को कोसते देखा जाता है।”

“जानती हूँ मामा, मैं सब जानती-समझती हूँ, किन्तु जरा यह भी सोचो कि एक अकेली स्त्री क्या कर सकती है?”

गोलोक बोले, “अब तुम अकेली नहीं हो, जब तुमने मुझे यह काम सौंपा है, तो मैं तुम्हारे साथ हूँ। सोच-विचारकर देखूंगा कि क्या किया जा सकता है। इस समय देर हो रही है, अतः अब जाना चाहूंगा।”

जगदधात्री बोली, “मामा, क्या खड़े-खडे चले जाओगे? दो पल बैठने का कष्ट नहीं करोगे?”

गोलोक बोले, “पूजा का समय निकला जा रहा हा, अब जाने दो, फिर किसी दिन आकर बैठूंगा।” कहते हुए वह बाहर चल दिये। जगदधात्री सम्मान दिखाती घर के दरवाजे तक उन्हे छोड़ने के लिए उनके पीछे-पीछे चल दी।

------------------------------