Badi Didi - 6 in Hindi Moral Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | बड़ी दीदी - 6

Featured Books
  • નિતુ - પ્રકરણ 64

    નિતુ : ૬૪(નવીન)નિતુ મનોમન સહજ ખુશ હતી, કારણ કે તેનો એક ડર ઓછ...

  • સંઘર્ષ - પ્રકરણ 20

    સિંહાસન સિરીઝ સિદ્ધાર્થ છાયા Disclaimer: સિંહાસન સિરીઝની તમા...

  • પિતા

    માઁ આપણને જન્મ આપે છે,આપણુ જતન કરે છે,પરિવાર નું ધ્યાન રાખે...

  • રહસ્ય,રહસ્ય અને રહસ્ય

    આપણને હંમેશા રહસ્ય ગમતું હોય છે કારણકે તેમાં એવું તત્વ હોય છ...

  • હાસ્યના લાભ

    હાસ્યના લાભ- રાકેશ ઠક્કર હાસ્યના લાભ જ લાભ છે. તેનાથી ક્યારે...

Categories
Share

बड़ी दीदी - 6

बड़ी दीदी

शरतचंन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 6

लगभग पांच वर्ष बीत चुके हैं। राय महाशय अब इस संसार में नहीं हैं और ब्रजराज लाहिडी भी स्वर्ग सिधार चुके हैं। सुरेन्द्र की विमाता अपने पति की जी हुई सारी धन सम्पति लेकर अपने पिता के घर रहने लगी है।

आजकाल सुरेन्द्रनाथ की लोग जितनी प्रशंसा करते है, उतनी ही बदनामी भी करते है। कुछ लोगों का कहना ही कि ऐसा उदार, सह्दय, दयालु और कोमल स्वभाव का जमींदार और कोई नहीं है, और कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा अत्याचारी, अन्यायी और उत्पीड़क जमींदार आज तक इस इलाके में कोई पैदा ही नहीं हुआ।

यह दोंनो ही बातें सच हैं। पहली बात सुरेन्द्रनाथ के लिए सच है और दूसरी उनके मैंनेजर मथुरानाथ के लिए सच है।

सुरेन्द्रनाथ की बैठक में आजकल दोस्तों की खूब भीड़ लगी रहती है। वह लोग बड़े सुख से संसार के शौक पूरे करते है। पान, तम्बाकू, शराब-कबाब, किसी भी चीड की उन्हें चिता नहीं करनी पड़ती। सब चीजे स्वतः ही उनके मुंह में आ जाती है। इन बातों के प्रति मुथरा बाबू का विशेष उत्साह है। खर्च के लिए रुपये वर्दाश्त करना पड़ता है। मथुरा बाबू का किसी के भी पास एक पैसा भी बाकी नहीं रह सकता। घर जलाने, किसी को उजाड़ कर गांव से निकाल देने या कचहरी की छोटी-सी तंग कोठरी में बंद कर देने आदि-आदि में उनके साहस और उत्साह की कोई सीमा नहीं है।

प्रजा के रोने की दर्द भरी आवाज कभी-कभी शान्ति देवी के कानों तक भी पहुंच जाती है। वह पति को उलाहना देती हई कहती हैं-‘तुम खुद अपनी जमींदारी नहीं देखोगे तो सबकुछ जल कर भस्म हो जाएगा।’

यह सुनकर सुरेन्द्रनाथ चौंक पड़ता है और कहता है, ‘यदी तो। क्या यह सब बातें सच है।’

‘सच नहीं है। सारा देश निन्दा कर रहा है। केवल तुम्हारे ही कानों तक ये बातें नहीं पहुंचतीं। चौबीस घंटे दोस्तों को लेकर बैठे रहने से कहीं यह बातें सुनाई देती है। ऐसे मैनेजर की जरूरत नहीं। उसे निकाल बाहर करो।’

सुरन्द्रनाथ दुःखी होकर कहता है, ‘ठीक है। अब कल से मैं खुद ही सब देखा करूंगा।’

इसके बाद कुछ दिनों कत जमींदारी देखने की धूम मच जाती। कभी-कभी मथुरानाथ घबरा उठते और गंभीर होकर कह बैठते, ‘सुरेन्द्र बाबू, क्या इस तरह जमींदारी रखी जा सकती है?’

सुरेन्द्रनाथ सूखी हंसी हंसकर रह जाते, ‘मथूरा बाबू, दुखियों का लहू चूसकर जमींदारी रखने की जरूरत ही क्या है?’

‘अच्छा तो फिर आप मुझे छुट्टी दीजिए। मैं चला जाऊं?’

सुरेन्द्र तुरन्त नरम पड जाता। इसके बाद जो कुछ पहले होता था फिर वही होने लगा जाता। सुरेन्द्रनाथ फिर बैठक तक सीमित होकर रह जाते।

इधर हाल ही में नई और जुड़ गई। एक बाग बनकर तैयार हुआ है, उसमें एक बंगला भी है। उसमें कलकत्ता से एलोकेशी नाम की एक वेश्या आकर ठहरी है। बहुत अच्छा नाचती-गाती है और देखने-सुनने में भी बूरी नहीं है। टूटे छत्ते की मधुमुक्खियों की तरह मित्र लोग सुरेन्द्र की बैठक छोड़कर उसी ओर दौड़ पड़े हैं। उन लोगों के आनन्द और उत्साह की कोई सीमा नहीं है। सुरेन्द्र को भी वह उसी ओर खींच ले गए हैं। आज तीन दिन हो गए, शान्ति को अपने पति देव के दर्शन नहीं हुए।

चौथे दिन अपने पति को पाकर वह दरवाजे पर पीठ लगाकर बैठ गई, ‘इतने दिन कहां थे?’

‘बाग में था।’

‘वहां कौन है जिसके लिए तीन दिन तक वहीं पड़े रहे।’

‘यही तो...!’

‘हर बात में यही तो... मैंने सब सुन लिया है।’ इतना कहते-कहते शान्ति रो पड़ी।

‘मैंन ऐसा कोन-सा अपराध किया है जिसके लिए तुम इस तरह मुझे ठुकरा रहे हो?’

‘कहां? मैं तो...।’

‘और किस तरह पैरों से ठुकराना होता है? हम लोगों के लिए इससे बढ़कर और कौन-सा अपमान हो सकता है?’

‘यही तो... वह सब लोग...?’

जैसे शान्ति ने यह बात सुनी ही नहीं। और भी जोर से रोते हुए कहा, ‘तुम मेरे स्वामी हो, मेरे देवता हो, मेरे यह लोक और परलोक तुम्हीं हो। मैं क्या तुम्हें नहीं पहचानती। मैं जानती हूं कि मैं तुम्हारी कोई नहीं हूं।♦एक दिन के लिए भी मैंने तुम्हारा मन नहीं पाया। मेरी यह पीड़ी तुम्हें कौन बताए? तुम शर्मिन्दा होगे और तुम्हें दुःख होगा, इसलिए मैं कोई बात नहीं कहती।’

‘तुम रोती क्यों हो शांति?’

‘क्यों रोती हूं, यह तो अन्तर्यामी ही जानते है। यह भी समझती हूं की तुम लापरवाही नहीं करते। तुम्हारे मन में भी दुःख है। तुम और क्या करोगे,’ शांतिने कहा और फिर अपनी आंखें पोंछकर बोली, ‘यदि मैं जन्म भर यातना भोगूं तब भी कोई हर्ज नहीं, लेकिन तुम्हें क्या कष्ट है अगर जान सकूं.....’

सुरेन्द्रनाथ ने उसे अपने पास खींचकर और अपने हाथ से उसकी आंखें पोंछकर बड़े प्यार से पूछा, ‘तो फिर क्या करोगी शांति?’

भला इस बात का उत्तर शांति क्या देती। और भी जोर-जोर से रोने लगी।

कुछ देर के बाद बोली, ‘तुम्हारा शरीर भी आजकल अच्छा नहीं हैं।’

‘आजकल की क्यो? पिछले पांच वर्ष से अच्छा नहीं है। जिस दिन कलकत्ता में गाड़ी के नीचे दबा था। छाती और पीठ में चोट लगने के कारण एक महिने तक बिस्तर पर पड़ा रहा था, तभी से शरीर अच्छा नहीं है। वह दर्द आज तक किसी तरह नहीं गया। मुझे स्वयं आश्चर्य है कि मैं किस तरह जी रहा हूं।’

शांति ने जल्दी से स्वीमी के सीने पर हाथ रखकर कहा, ‘चलो हम लोग देश छोड़कर कलकत्ता चलें। वहां अच्छे-अच्छे डॉक्यर हैं।’

सुरेन्द्र ने सहसा प्रसन्न होकर कहा, ‘अच्छी बात है, चलो। वहां बड़ी दीदी भी है।’

‘तुम्हारी बड़ दीदी को देखने को मेरा भी जी बहुत चाहता है। उन्हें लाआगे ने?’ शांति ने कहा।

‘लाउंगा क्यों नहीं’, इसके बाद कुछ सोचकर बोला, ‘वह जरूर आएंगी, जब सुनेंगी कि मैं मर रहा हूं।’

शांति ने सुरन्द्र का मूंह बन्द करते हुए कहा, ‘मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं। इस तरह की बातें मत करो।’

‘वह आ जाएं तो मुझे कोई दुःख ही नहीं रह जाए।’

अभिमान से शांति का ह्दय फूल गया। अभी-अभी उसने कहा कि स्वामी उसके कोई नहीं हैं, लेकिन सुरेन्द्र ने इतना नहीं समझा, इतना नहीं देखा। वह तो कुछ कह रहा था, उसे बहुत आनंद आ रहा था।

‘तुम स्वयं ही जाकर बड़ी दीदी को बुला लाना। क्यों ठीक होगा न?’

शांति ने सिर हिलाकर सहमति प्रकट की।

‘वह जब आएंगी तब तुम खुद ही देख लोगी कि मुझे कोई कष्ट ही नहीं रह जाएगा।’

शांति की आंखों मे आंसू बहने लगे।

दूसरे दिन उसने दासी के द्वारा मथूरा बाबू से कहलवा दिया कि बाग में जिसे लाकर रखा है अगर उसे इसी समय न निकाल दिया तो उनके भी मैनेजरी करने की जरूरत नहीं रह जाएगी। अपने स्वीमी से भी उसने बिगड़कर कहा, ‘और जो भी हो, अगर तुमने घर से बाहर पांव रखा तो मैं अपना सिर पटक कर और खून की नदी बहाकर मर जाऊंगी।’

‘ठीक है। लेकिन वह लोग...!’

‘मैं इन लोगों की व्यवस्था कर देती हूं। इतना कहकर शांति ने दासी को बुलाकर आज्ञा दी कि ‘दरबान से कह दो कि वह सब लोग अब मकान में न घुसने पाएं।’

और कोई उपाय न देखकर मथुरा बाबू ने एलोकेशी को विदा कर किया। यार लोग भी चम्पत हो गए।

सुरेन्द्रनाथ कलकत्ता न जा सका। छाती का दर्द अब कुछ कम मालूम होता है। शांति में भी अब कलकत्ता जाने का वैसा उत्साह नहीं रहा। यहीं रहकर वह यथासंभव अपने पति की सेवा-सुश्रूषा का प्रबन्ध करने लगी। कलकत्ता से एक अच्छे डॉक्टर को बुलाकर दिखाया गया। एक्सपर्ट डॉक्टर ने सब-कुछ देख सुनकर एक दवा की व्यवस्था कर दी और विशेष रूप से सावधान कर दिया कि छाती की इस समय जो हालत है, उसे देखते हुए किसी भी प्रकार का शारीरिक या मानसिक श्रम करना उचित नहीं।

सुअवरस देख मैनेजर साहब जिस तरह काम देख रहे थे उससे गांव-गांव में दूना हाहाकार मच गया। शांति भी बीच-बीच में सुनती, लेकिन अपने स्वामी को बताने का साहस न कर पाती।

---------------------------------------------------------------------------