Path Ke Davedar - 10 - Last Part in Hindi Moral Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | पथ के दावेदार - 10 - Last Part

Featured Books
  • નિતુ - પ્રકરણ 64

    નિતુ : ૬૪(નવીન)નિતુ મનોમન સહજ ખુશ હતી, કારણ કે તેનો એક ડર ઓછ...

  • સંઘર્ષ - પ્રકરણ 20

    સિંહાસન સિરીઝ સિદ્ધાર્થ છાયા Disclaimer: સિંહાસન સિરીઝની તમા...

  • પિતા

    માઁ આપણને જન્મ આપે છે,આપણુ જતન કરે છે,પરિવાર નું ધ્યાન રાખે...

  • રહસ્ય,રહસ્ય અને રહસ્ય

    આપણને હંમેશા રહસ્ય ગમતું હોય છે કારણકે તેમાં એવું તત્વ હોય છ...

  • હાસ્યના લાભ

    હાસ્યના લાભ- રાકેશ ઠક્કર હાસ્યના લાભ જ લાભ છે. તેનાથી ક્યારે...

Categories
Share

पथ के दावेदार - 10 - Last Part

पथ के दावेदार

भाग - 10

भोजन की थाली उसी तरह पड़ी रही। उसकी आंखों से आंसू की बड़ी-बड़ी बूंदे गालों पर से झर-झर नीचे गिरने लगीं। अपूर्व की मां को उसने कभी देखा नहीं था। पति-पुत्र के कारण उन्होंने जीवन में बहुत कष्ट उठाया था। इसके अतिरिक्त उनके संबंध में विशेष कुछ नहीं जानती थी। लेकिन कितनी ही बार, अपने एकांत कमरे में, रात के समय जागती हुई उसने उस बूढ़ी विधवा स्त्री के संबंध में कितनी ही कल्पनाएं की थीं। सुख के समय नहीं, दु:ख के समय में भी अगर उनसे भेंट हो-जब उसके सिवा उनके पास और कोई न हो-तब ईसाई होने के कारण वह कैसे दूर हटा सकती हैं-यह बात जान लेने की उसकी बड़ी साध थी। बड़ी साध थी कि दुर्दिन की उस अग्नि-परीक्षा में अपने-पराए की समस्या का वह अंतिम समाधान कर लेगी। धर्म-मतभेद ही इस जगत में मनुष्य का चरम विच्छेद है या नहीं-इस सत्य की परीक्षा कर लेने के लिए ही वह चरम दु:समय उसके भाग्य में आया था, लेकिन वह उसे ग्रहण न कर सकी। इस रहस्य की जीवन में मीमांसा न हो सकी।
और अपूर्व-वह आज कितना असहाय है, कितना अकेला है-भारती से अधिक इस बात को कौन जानता है? हो सकता है, माता के एकाग्र मन का आशीर्वाद ही अब तक कवच की भांति उसकी रक्षा करता चला आ रहा था। लेकिन आज वह भी समाप्त हो गया। भारती ने मन-ही-मन कहा-यह सब मेरे आकाश कुसुम हैं। मेरे अवचेतन मन की स्वप्न-रचना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। फिर भी यह स्वप्न, मेरे निर्देशनहीन भविष्य को कितना स्निग्ध-श्याम-शोभा से सुशोभित किए रखता था-इस बात को मेरे सिवा और जानता ही कौन है, मुझसे अधिकर कौन जानता है कि घर पर और बाहर भी अपूर्व आज कितना असहाय है, कितना अकेला है।
शायद आत्मीय-बंधुओं ने उसे त्याग दिया है। डरपोक, लोभी और नीच विचारों का होने के कारण बंधु-बांधवों के बीच वह निंदनीय है और सब दु:खों से बड़ा दु:ख तो यह है कि उसकी मां आज इस लोक में नहीं है। भारती को यह बात मालूम थी कि लज्जा के कारण अपूर्व किसी परिचित के पास नहीं जा सका था। और सारी लज्जा को तिलांजलि देकर वह बार-बार उसी के पास दौड़ा आया था। उद्यम की पटुता, व्यवस्था की श्रृंखला, कार्य की तत्परता-कुछ भी तो नहीं है उसमें। फिर जब धर्मशाला में असह्य निर्जनता और कोलाहल, हर प्रकार के अभावों और असुविधाओं के बीच उसकी मां की मृत्यु हो गई तब अकेले उसके वह क्षण किस तरह बीते होंगे-इस बात की कल्पना करके उसकी आंखों के आंसू रोकने पर भी नहीं रुक सके।
आंखें पोंछते-पोंछते जो बात उसे अनेक बार याद आई थी वही बात उसे फिर याद आ गई। मानो सभी दु:खों का सूत्रपात अपूर्व की उसके साथ जान-पहचान होने के साथ ही हुआ हो। नहीं तो पिता और बड़े भाई की उद्दंडता, उच्छृंखलता के विरुध्द जब उसने मां का पक्ष लेकर सैकड़ों दु:ख सहे थे तब स्वार्थ-बुध्दि ने उसे सत्य से विचलित क्यों नहीं किया? तब दुर्बलता कहां थी। अपने कर्माचरण में, आस्था और प्रगाढ़ निष्ठा में क्या सचमुच ही इतने तुच्छ विचारों की है कि यह सब कुछ मां का मुंह देखकर ही किया करता था? उसका गंगा-स्नान, उसका चोटी रखना, उसका सब काम, सारे अनुष्ठान भले ही झूठे और आडम्बर ही क्यों नहीं हों फिर भी वह अपने प्रति किए स्व मजाकों और आक्रमणों को सहकर उनको बेकार करके अटल ही बना रहा। इसे क्या अपूर्व के स्थिर मन का प्रमाण माना जा सकता है?
फिर आज वही मनुष्य बर्मा में आकर ऐसा कैसे हो गया? और इतने दिनों तक उसकी दुर्बलता कहां छिपी रही थी?-सव्यसाची से इसका उत्तर पूछने को तत्पर होते हुए भी कितनी ही बार वह पूछ नहीं पाई। केवल कौतूहल के कारण ही नहीं बल्कि अंतर की व्यथा के बीच से ही उसने कई बार सोचा है कि इस संसार में जो कुछ भी जाना जा सकता है, वह सभी भैया जानते हैं। इसीलिए इस समस्या का समाधान वह ही कर देंगे। केवल संकोच और लज्जा के कारण ही वह अपूर्व के संबंध में उनसे कुछ पूछ ही नहीं सकी है।
सोचते-सोचते सहसा एक नया प्रश्न उसके मन में आ गया। कर्मदोष से जबकि सभी अपूर्व के विरुध्द हैं, तब भी जिस मनुष्य की सहानुभूति उसे मिलती रही वह है सव्यसाची। लेकिन किसलिए? क्या केवल बहिन के प्रति संवेदना होने के कारण? उनका स्नेह पाने योग्य गुण क्या स्वयं अपूर्व में कुछ नहीं है? सचमुच ही क्या भारती ने इतने क्षुद्र व्यक्ति पर इतना अधिक प्रेम समर्पित कर दिया है? उस दुर्दिन में सावधान कर देने योग्य पूंजी-क्या उसके पास कुछ भी नहीं थी? उनका हृदय इतना कंगाल, ऐसा दिवालिया हो गया था!
इसी तरह एक ही स्थिति में बैठे-बैठे जब दो घंटे बीत गए तब दासी फिर आ गई। उस समय होटल के जरूरी कामों के कारण सभी आलोचनाएं समाप्त करके जाने का अवसर उसे नहीं मिला था। इस समय उसे कुछ छुट्टी मिल गई है। अपूर्व और भारती के बीच एक रहस्यमय मधुर संबंध है, यह बात आभास और चाल-ढाल से सभी जान गए थे। दासी से भी यह बात छिपी नहीं थी। तो अचानक ऐसी कौन-सी घटना हो गई जिससे अपूर्व की इतनी बड़ी विपत्ति के दिनों में इतनी बड़ी बात न मालूम कर लेने तक ज्ञाना को खाना-पीना कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए वह किसी बहाने से पहुंच गई। पहले तो अवाक् हो गई, बाद को बोली ''कुछ भी तो तुमने नहीं छुआ, देख रही हूं।''
भारती लज्जित होकर झटपट उठ खड़ी हुई और बोली, ''नहीं।''
दासी से सिर हिलाकर आवाज में करुणा पैदा करके कहा, ''खाया नहीं जाता बहिन जी। मैंने तो सारा कांड अपनी आंखों से देखा है। विश्वास न हो तो चलकर देख लो। मुंह में मैंने एक भी कौर रखा है या नहीं। भात की थाली ज्यों की त्यों पड़ी हुई है।''
उस अंवाछित संवेदना से भारती के संकोच की कोई सीमा नहीं रही। जोर लगाकर हंसने की चेष्टा करती हुई बोली, ''किसी से एक गाड़ी मंगवा दो न दाई।''
''शायद जाओगी?''
''हां, जरा जाकर देखूं तो क्या हुआ?''
ज्ञाना ने कहा, ''आज सवेरे आकर महाराज जी से कैसी विनती करने लगे थे। मैंने सुनकर कहा, ''यह कौन-सी बात है। मनुष्य के संकट-विपत्ति में सहायता न करूंगी तो कब करूंगी। हाथ का काम पड़ा रह गया। जैसी थी वैसी ही घर से निकल पड़ी। भाग्य तो फिर भी....?''
उन्हीं सब बातों के दोहराए जाने की आशंका से भारती घबरा उठा। बीच ही में रोककर बोली, ''तुमने संकट के दिनों में जो कुछ किया उसकी तुलना नहीं हो सकती। लेकिन अब देर मत करो दाई। एक गाड़ी मंगवा दो। मुझे जाना है। तब तक घर के काम-काज निबटा लेती हूं।''
दाई गाड़ी लेने चली गई और दुर्दिन में सहायता पहुंचाने का आग्रह करके यह भी कहती गई कि घर का काम-काज मैं ही कर जाऊंगी। जबकि खाने-पीने की कोई चीज छुई तक नहीं गई है, तब उनकी भी सफाई कर देने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है।''
गाड़ी आ गई तो भारती कुछ रुपए लेकर, घर-द्वार में ताला लगाकर चल पड़ी।
वह जब धर्मशाला में पहुंची तब दिन था। दूसरी मंजिल के उत्तर में एक कमरा दिखाकर दरबान ने कहा, ''बंगाली बाबू भीतर ही हैं।'' और फिर बंगाली महिला को बंगला भाषा में ही समझाकर उसने बताया कि धर्मशाला में तीन दिन से अधिक ठहरने का नियम नहीं है। यह मियाद पूरी हो गई है। अगर कहीं मैनेजर साहब को मालूम हो गया तो उसकी नौकरी में भी गड़बड़ी मच जाएगी।''
इस इशारे का अर्थ समझकर भारती ऊपर के कमरे में चली गई। वहां जाकर देखा, चीजें और सामान चारों ओर बिखरे पड़े हैं और अपूर्व कम्बल पर औंधा पड़ा है। नई चादर से उसका मुंह ढंका है वह जाग रहा है या सो रहा है यह नहीं समझ सकी। सुना था, साथ में एक नौकर आया है लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दिया।
''अपूर्व बाबू!'' भारती ने पुकारा।
अपूर्व उठकर बैठ गया। उसने भारती के चेहरे की ओर एक बार देखा और फिर अपने दोनों घुटनों में मुंह छिपा लिया, कुछ देर बाद आंखें ऊपर उठाकर सीधा बैठ गया। उसके चेहरे पर मातृ-वियोग की असीम वेदना जम गई थी। लेकिन आवेश या चंचलता नहीं थी। शोक से बोझिल, गम्भीर दृष्टि के सामने इस संसार का सब कुछ मानो उसके लिए एकदम झूठा हो गया है, मां के आंचल की छाया के नीचे रहने वाले जिस अपूर्व को उसने एक दिन पहचाना था। यह अपूर्व वह नहीं है। भारती आश्चर्य में पड़कर अवाक हो गई।
अपूर्व बोला, ''यहां बैठने के लिए कुछ नहीं है भारती, सारी जगह भीगी हुई है। तुम बक्स पर बैठ जाओ।''
भारती किवाड़ की चौखट पकड़े, आंखें झुकाए जिस तरह खड़ी थी उसी तरह खड़ी रह गई। कुछ देर तक दोनों के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला।
फिर अपूर्व ही बोला, ''बैठ जाओ भारती।''
भारती बोली, ''बैठने पर शाम हो जाएगी।''
''क्या इसी समय चली जाओगी? बैठ नहीं सकोगी?''
भारती बक्स पर बैठ गई। फिर बोली, 'मां यहां आई थीं। यह बात मुझे मालूम नहीं थी। मैंने उनको देखा नहीं, लेकिन मेरी छाती के भीतर आग-सी जल रही है। इस संबंध में कुछ कहकर मुझे और दु:ख मत देना?'' कहते-कहते उसकी आंखों से आंसू लुढ़क पड़े।
अपूर्व स्तब्ध हो रहा। भारती ने आंचल से आंसू पोंछते हुए कहा, ''समय आ गया, मां चली गई। पहले मैंने सोचा था, इस जन्म में कभी तुम्हें अपना मुंह नहीं दिखाऊंगी। लेकिन तुमको इस तरह अलग फेंककर भी कैसे रह सकती हूं? मेरे साथ गाड़ी आई है, उठो, मेरे घर चलो।'' फिर उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी।
अपूर्व ने शांत स्वर में कहा, ''अशौच का झमेला बहुत है। वहां सुविधा न होगी भारती। इसके अतिरिक्त इसी शनिवार के स्टीमर से मैं घर वापस चला जाऊंगा।''
भारती बोली, ''शनिवार में अभी चार दिन हैं। मां की मृत्यु के बाद कुछ झमेला रहता है, यह मैं जानती हूं। लेकिन उसे मैं सह न सकूंगी तो क्या धर्मशाला के यह लोग सहेंगे? चलो।''
अपूर्व बोला, ''नहीं।''
भारती बोली, ''नहीं कह देने से ही अगर तुम्हें इस हालत में छोड़कर चली जा सकती तो यहां आती ही नहीं अपूर्व बाबू....'' यह कहकर एक-पल चुप रहकर बोली, ''इतने दिनों के बाद तुमसे छिपकर कहने या लज्जित होकर कहने के लिए कोई भी बात नहीं रही। मां का अंतिम कार्य बाकी है, शनिवार को जहाज से तुम्हें घर वापस जाना ही पड़ेगा। उसके बाद क्या होगा, मैं यह भी जानती हूं। मैं तुम्हारी किसी व्यवस्था में बाधा नहीं दूंगी। लेकिन इस अवसर पर कुछ दिनों में भी अगर तुम्हें अपनी आंखों के सामने न रख सकी तो तुम्हारी ही शपथ लेकर कह रही हूं- घर लौटकर मैं आज ही विष खाकर प्राण त्याग दूंगी। मां का शोक इससे बढ़ेगा ही, घटेगा नहीं अपूर्व बाबू!''
अपूर्व खड़ा होकर बोला, ''नौकर को बुलाओ-सब चीजें और सामान बांध डाले।''
सामान थोड़ा-सा ही था। गाड़ी पर रखने में आधा घंटा भी नहीं लगा। रास्ते में भारती ने पूछा, ''भैया नहीं आए?''
अपूर्व बोला, ''नहीं, छुट्टी नहीं मिली।''
''यहां की नौकरी छोड़ दी तुमने?''
''हां, यही समझो।''
''मां का अंतिम संस्कार सम्पन्न करके क्या घर पर ही रहोगे?''
अपूर्व बोला, ''नहीं। मां अब नहीं है। आवश्यकता से एक दिन भी अधिक मैं उस घर में नहीं रह सकता।''
यह सुनकर भारती के मुंह से एक लम्बी सांस निकल गई।

घने जंगलों से घिरे निर्जन, परित्यक्त जीर्ण-शीर्ण जिस मठ में एक दिन अपूर्व के अपराध का निर्णय हुआ था। आज फिर उसी कमरे में पथ के दावेदारों की बैठक बुलाई गई है। उस दिन के बंदीगृह में जो दुर्जेय क्रोध, निर्मम प्रतिहिंसा की आग लपटें फेंकती हुई जली थी आज उसकी नन्हीं-सी चिनगारी भी नहीं है। आज न कोई वादी है न प्रतिवादी है। किसी के विरुध्द किसी को कोई शिकायत नहीं है। आज तो आशंका और निराशा की दुस्सह वेदना से सारी सभा निष्प्रभ, उदास और मृत:प्राय-सी हो रही है।
भारती की आंखों के कोनों में आंसू की बूंदे हैं। सुमित्रा मुंह झुकाए स्थिर बैठी है। तलवलकर गिरफ्तार हुआ है खून से लथपथ शरीर के लिए वह जेल के अस्पताल में पड़ा है। आज भी उसे अच्छी तरह होश नहीं हुआ है। उसकी पत्नी अपनी बच्ची के साथ रास्ते में इधर-उधर भटकती रही। अनेक दु:ख भोगने के बाद कल शाम को एक महाराज विटूदन ब्राह्मण के घर में उसे शरण मिली है। सुमित्रा ने पता पूछकर उसके मैके आज तार भेज दिया है लेकिन अभी तक कोई उत्तर नहीं आया।
भारती ने धीरे से पूछा, ''तलवलकर बाबू का क्या होगा भैया?''
डॉक्टर बोले, ''अस्पताल में बच गया तो जेल की सजा भोगेगा।''
भारती मन-ही-मन सिहर कर बोली, 'नहीं बचें, यह भी सम्भव है?''
डॉक्टर ने कहा, ''कम-से-कम असम्भव तो नहीं है। अन्यथा लम्बी कैद।''
भारती बोली, ''उनकी पत्नी और बच्चों का क्या होगा?''
सुमित्रा बोली, ''शायद उनके पिताजी आकर ले जाएं।''
भारती बोली, ''अगर कोई नहीं आया....?''
डॉक्टर बोले, ''उस दशा में अचानक किसी के मर जाने पर उसकी विधवा की जो दशा होती है वही होगी।''
थोड़ी देर बाद बोले, ''हम लोग गृहस्थ नहीं हैं, हमारे पास धन नहीं है। विदेशियों के कानून के अनुसार अपनी जन्म-भूमि में भी सिर ढंकने की जगह नहीं है, पशुओं की तरह हम लोग जंगलों में छिपे-छिपे घूमते हैं। गृहस्थों का दु:ख दूर करने की शक्ति हम लोगों में नहीं है भारती।''
भारती बोली, ''तुम लोगों में नहीं है। जिन लोगों में यह सामर्थ्य है यह हमारे देश के लोग ही इनका दु:ख दूर नहीं कर सकते भैया?''
डॉक्टर जरा मुस्कराकर बोले, ''लेकिन वह क्यों करेंगे बहिन? वह लोग तो हम लोगों को ऐसा काम करने को नहीं कहते? हम लोग उनकी शांति में बाधक हैं। उनके आराम में विघ्न हैं। अंग्रेज जब दम्भ के साथ प्रचार करते हैं कि भारतवासी स्वाधीनता नहीं चाहते, पराधीनता की ही कामना करते हैं-तब वह बिल्कुल झूठ नहीं कहते। और युग-युगांतर के अंधेरे में रहते-रहते जिनकी दोनों आंखों की दृष्टि खो चुकी है उनके विरुध्द हताश होने में भी क्या रखा है भारती।''
कुछ पल रुककर वह कहने लगे,''विदेशी राजा की जेल में अगर आज तलवलकर को मर जाना पड़े तो परलोक में खड़े रहकर यहां अपनी पत्नी और कन्या को दर-दर भीख मांगते देखकर उसकी आंखों से आंसू गिरेंगे ही-लेकिन विश्वास रखो, देशवासियों के विरुध्द वह भगवान से कोई भी शिकायत नहीं करेगा। मैं उसे पहचानता हूं। लज्जा से उसके मुंह से ऐसी बात भी न निकलेगी।''
भारती ने अस्फुट स्वर में कहा, ''उंह।''
कृष्ण अय्यर बंगला नहीं बोल सकता था। लेकिन बीच-बीच में समझ लेता था। गर्दन हिलाकर बोला, ''ऐस-ट्रू.....''
डॉक्टर ने कहा, ''हां, यही तो सच है। यही तो क्रांतिकारियों की चरम शिक्षा है। रोना किसके लिए? शिकायत किससे करें? अगर कभी तुम यह सुनो कि भैया को फांसी हो गई तो समझ लेना कि विदेशियों की आज्ञा से उसी के देश के किसी आदमी ने उसके गले में फांसी लगा दी है। कसाई खाने में कटे बैलों का मांस बैल ही ढोकर लाते हैं। इसके लिए फिर शिकायत कैसी बहिन?''
भारती बोली, ''भैया, यही तो तुम लोगों के कर्मों के परिणाम हैं।''
डॉक्टर बोले, ''यह क्या तुच्छ परिणाम हैं भारती? मैं जानता हूं कि देश के लोग इसका मूल्य नहीं समझेंगे। शायद मजाक ही उड़ाएंगे। लेकिन जिसे यह ऋण दमड़ी-छदाम तक का हिसाब करके चुकाना पड़ेगा उसके मुंह पर हंसी सहज ही में नहीं आएगी।'' फिर बोले, ''भारती, स्वयं ईसाई होकर तुम अपने ही धर्म की बात भूल गईं। ईसा मसीह का खून बहाना क्या व्यर्थ हुआ था? यही तुम्हारा विचार है?''
सभी चुप बैठे रहे। डॉक्टर ने फिर कहा, ''तुम लोग तो जानते हो-व्यर्थ नर हत्या का मैं कभी भी पक्षपाती नहीं रहा। उसे मैं अपने सम्पूर्ण अंत:करण से घृणा करता हूं। अपने हाथ से एक चींटी तक नहीं मार सकता। लेकिन आवश्यकता पड़ने पर....क्या कहती हो सुमित्रा?''
सुमित्रा ने समर्थन करते हुए कहा, ''यह तो मैं मानती हूं।''
डॉक्टर बोले, ''इतनी दूर से आकर जिन लोगों ने हमारी जन्म-भूमि पर अधिकार कर लिया है, हमारा मनुष्यत्व, हमारी मान-मर्यादा, हमारी भूख का अन्न, प्यास का जल, सभी कुछ जिन लोगों ने छीन लिया है उनको ही है हमारी हत्या का अधिकार और हमको नहीं है।''
लेकिन आज भारती अभिभूत नहीं हुई। उसने कहा, ''आज तुम मुझको किसी प्रकार भी लज्जित नहीं कर सकते। यह सब पुरानी बातें हैं। हिंसा करना ही जिनका स्वभाव बन जाता है, वह ही ऐसी बातें करते हैं। यही अंतिम बात नहीं है। संसार में इससे भी बड़ी बात मौजूद है।''
डॉक्टर ने पूछा, 'क्या है, बताओ तो?''
भारती उच्छ्वसित स्वर में बोली, ''मैं नहीं जानती लेकिन तुम जानते हो। जिस बुध्दि ने तुम्हारी सत्य-बुध्दि को इस तरह एकदम ढंक रखा है। एक बार उसे छोड़कर शांति के मार्ग पर चले आओ-तुम्हारे ज्ञान और प्रतिभा से पराजय न मान ले ऐसी समस्या संसार में कोई नहीं है। शक्ति के बदले शक्ति, हिंसा के बदले हिंसा, अत्याचार के बदले अत्याचार-यह तो बर्बरता के आरम्भ से ही चला आ रहा है। इससे बड़ी बात क्या बताऊं?''
''फिर कौन बताएगा?''
''तुम?''
''इसके लिए मुझे क्षमा करो बहिन। अंग्रेजों के बूटों के नीचे दबकर शांति की वाणी मेरे मुंह से निकल पड़ेगी- रुक जाएगी। यह भार शशि पर छोड़ दो। तुम्हारी खातिर वह ऐसा कर सकेगा।''
भारती बोली, ''तुम मजाक कर रहे हो। लेकिन जिन लोगों के प्रति तुम्हारा इतना विद्वेष है उन्हीं अंग्रेज पादरियों में से बहुतों से मैंने इस विषय पर अच्छी तरह विचार करके देख लिया है। वास्तव में उन्हें आनंद की प्राप्ति होती है।''
डॉक्टर बोले, ''यह अत्यंत स्वाभाविक है भारती। सुंदर वन में शस्त्र-त्याग कर खड़े होकर शांति की वाणी का प्रचार करने से बाघ-भालुओं के प्रसन्न होने जैसी बात है। वह लोग साधु मनुष्य हैं।''
भारती बोली, ''आज भारत का चाहे जितना दुर्भाग्य क्यों न हो, सुदूर अतीत में यह अवस्था नहीं थी। एक दिन भारत सभ्यता के उच्च शिखर पर आसीन था। उस दिन हिंसा-द्वेष नहीं, धर्म और शांति का मंत्र भारतवर्ष से ही चारों ओर प्रचारित हुआ था। मुझे विश्वास है कि वही दिन फिर हम लोगों के सामने लौट आएगा।''
भारती की बातें सुनकर शशि का हृदय श्रध्दा और अनुराग से विचलित हो रहा था। गद्गद स्वर में बोला, ''भारती के कथन का मैं अनुमोदन करता हूं डॉक्टर। मेरा यही विश्वास है कि भारत की वही सभ्यता फिर लौट आएगी, अवश्य आएगी।''
डॉक्टर ने दोनों की ओर देखते हुए कहा, ''तुम लोग भारत के किस युग की सभ्यता की चर्चा कर रहे हो-मैं नहीं जानता। लेकिन सभ्यता की भी एक सीमा होती है। धर्म-अहिंसा और शांति के उन्माद में उसे पार कर जाने पर मृत्यु निश्चित है। कोई देवता भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता। भारत ने हूणों के सामने अपनी पराजय कब स्वीकार की थी, जानते हो? जब उन लोगों ने उनके बच्चों को मशाल की तरह जलाना शुरू कर दिया था। नारियों की पीठ के चमड़े से युध्द के वाद्य बनाने आरम्भ कर दिए थे। उस कल्पनातीत नृशंसता का उत्तर देना भारतीयों ने नहीं सीखा था। उसका फल क्या हुआ? देश गया, राज्य गया, देव-स्थान ध्वस्त हो गए। हम लोगों की उस असमर्थता का दंड आज तक भी पूरा नहीं हुआ है।''
फिर भारती की ओर देखकर बोले, ''तुम अक्सर कवि की कविता सुना करती हो-देश गया तो क्या दु:ख है, तुम लोग फिर मनुष्य बनो। लेकिन देश को वापस ला पाने योग्य मनुष्य बन जाना किसे कहते हैं?-तुमने सोचा है? मनुष्य बनने का तुम्हारा मार्ग बिल्कुल निष्कंटक है?-सोचा है, देश के दरिद्र नारायण की सेवा करने और मलेरिया में कुनैन बांटते फिरने को ही मनुष्य बन जाना कहते हैं? ऐसी बात नहीं है। मनुष्य होकर जन्म लेने की मर्यादा-मोह को ही मनुष्य बनाना कहते हैं? मृत्यु के भय से मुक्ति पा लेने को ही मनुष्य होना कहते हैं?''
पल भर बाद फिर बोले, ''तुम्हारा अपराध नहीं है भारती। उन लोगों के वातावरण के बीच ही तुम पली-बढ़ी हो। इसीलिए तुम्हारे मन में यह विचार जम गया है कि यूरोप की ईसाई सभ्यता से बड़ी और कोई सभ्यता नहीं है। लेकिन इतनी बड़ी झूठी बात भी और कोई नहीं है। सभ्यता का अर्थ क्या केवल मानव-संहार के यंत्रों का आविष्कार ही है? दुरात्माओं के पास छलों का अभाव नहीं होता। इसलिए आत्म-रक्षा के छल से इनकी नित नई सृष्टि का भी कोई अंत नहीं है। लेकिन सभ्यता का अगर कुछ अर्थ हो तो यही है कि असमर्थों और दुर्बलों के न्यायोचित अधिकार शक्तिशाली की शारीरिक शक्ति से परास्त न हों। कहीं भी देखी है इनकी ऐसी नीति? क्या इन्हें कहीं भी इस न्याय को गौरव देते हुए देखा है। एक दिन मैंने तुमसे कहा था-पृथ्वी के मानचित्र की ओर ध्यान से देखो याद है यह बात? याद है मेरे मुंह से सुनी हुई चीन देश के केंटन विद्रोह की कहानी? सुसभ्य यूरोपियन महाशक्तियों के बल ने उनके घरों पर धावा करके उनसे जो बदला लिया उसके सामने चंगेज खान और नादिर शाह की वीभत्सता की कहानियां कहां टिकती हैं। सूर्य के सामने दीपक की तरह-वह तो इसके सामने तुच्छ ही है। कारण कितना ही तुच्छ और अन्यायपूर्ण क्यों न हो-युध्द का बहाना मिलने पर फिर इन लोगों को कोई हिचक नहीं होती। बूढ़ा, बच्चा, नारी-किसी भी हत्या में कोई संवेदना नहीं है, दुविधा नहीं है। उस पाप की कोई सीमा नहीं है भारती, उस विषैली गैस से नर-हत्या करने में भी उनकी नैतिक बुध्दि बाधा नहीं देती। उद्देश्य सिध्दि के लिए यह लोग किसी भी उपाय को और किसी भी मार्ग को सुपवित्र मानते हैं। नीति की बाधाएं और धर्म के निषेध क्या केवल निर्वासितों और पद दलितों की लिए ही हैं?''
भारती कोई उत्तर न देकर चुप बैठी रही। इन सब अभियोगों का प्रतिवाद करना वह क्या जाने? जो निर्भय है, अत्यंत दृढ़ चित है, शंकाहीन, क्षमाहीन विप्लवी है-जिसके ज्ञान, बुध्दि और पांडित्य का अंत नहीं है-पराधीनता की अनबुझ आग से जिसका समस्त तन और मन रात-दिन दीपशिखा के समान जल रहा है-उसे युक्तिओं से परास्त करने का साधन कहां खोजने पर मिलेगा? उसके पास कोई उत्तर नहीं। उसकी भाषा मूक हो रही। लेकिन उसका अकलुष नारी हृदय अंधी करुणा से सिर धुन कर चुपचाप रोने लगा।
बहुत दिनों से सुमित्रा ने इस प्रकार के वाद-विवाद में भाग लेना बंद कर दिया था। आज भी वह मुंह झुकाए चुप बैठी रही। केवल कृष्ण अय्यर असहिष्णु हो उठा। आलोचना के अनेक अंश उसकी समझ में नहीं आ रहे थे। इस नीरवता के बीच उसने पूछा, ''हमारी सभा का कार्य आरम्भ होने में कितनी देर है?''
डॉक्टर बोले, ''कुछ देर नहीं। सुमित्रा, क्या तुम्हारा जावा जाना निश्चित है?''
''हां।''
''कब?''
''शायद इसी बुधवार को।''
''पथ के दावेदारों का साथ तुमने छोड़ दिया?''
''हां।''
डॉक्टर जरा हंस पड़े। इसके बाद जेब से टेलीग्राम के कई कागज निकालकर सुमित्रा के हाथ में देकर बोले, ''इन्हें पढ़कर देखना, हीरा सिंह कल रात दे गया था।''
अय्यर झुक पड़ा। भारती ने मोमबत्ती उठा ली। तार बहुत लम्बा था। उसकी भाषा अंग्रेजी थी। अर्थ भी स्पष्ट था। लेकिन सुमित्रा का चेहरा गम्भीर हो उठा। दो-तीन मिनट के बाद उसने मुंह ऊपर उठाकर कहा, ''कोड की सभी बातें मुझे याद नहीं हैं। हम लोगों के शंघाई के जैमेका क्लब और क्रूगर ने तार भेजा है। इसके सिवा मैं और कुछ नहीं समझ सकी।''
डॉक्टर बोले, ''क्रूगर ने तार भेजा है केंटन से। पुलिस वालों ने बड़े तड़के शंघाई के जैमेका क्लब को घेर लिया था। पुलिस के तीन आदमी और अपना विनोद मारे गए हैं। दोनों भाई महताब और सूर्य सिंह गिरफ्तार हो गए हैं। अयोधया हांगकांग में है। दुर्गा और सुरेश पेनांग में हैं। सिंगापुर के जैमेका क्लब के लिए पुलिस सारे शहर में तूफान मचाती हुई घूम रही है। कुल समाचार यही है।''
समाचार सुनकर कृष्ण अय्यर का चेहरा पीला पड़ गया।
डॉक्टर बोले, ''वह दोनों भाई रेजिमेंट छोड़कर कब और क्यों शंघाई चले गए-मैं नहीं जानता। सुमित्रा, वास्तव में ब्रजेन्द्र कहां है, जानती हो?''
प्रश्न सुनकर सुमित्रा अवाक् हो गई।
''जानती हो?''
पहले तो सुमित्रा के गले से किसी भी तरह की कोई आवाज नहीं निकली, फिर गर्दन हिलाकर बोली, 'नहीं।''
कृष्ण अय्यर ने कहा, ''वह यह काम कर सकता है-मुझे विश्वास नहीं होता।''
डॉक्टर ने 'हां' 'ना' कुछ भी नहीं कहा। चुपचाप बैठे रहे।
मुंह से कोई शब्द नहीं, वाक्य नहीं-सभी मूर्ति के समान चुप बैठे रहे। सामने तार के वह सब कागज पड़े थे। मोमबत्ती जलकर समाप्त हो रही थी। शशि ने दूसरी मोमबत्ती जलाकर फर्श पर रख दी। दस मिनट इसी तरह बीत जाने के बाद पहले अय्यर के शरीर में चेतना के लक्षण दिखाई दिए। उसने अपनी जेब से सिगरेट निकालकर मोमबत्ती की लौ से सुलगाकर धुएं के साथ लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा, 'नाउ फिनिश्ड।''
फिर बोला, ''वर्स्टलय.....वी मस्ट स्टाप।''
शशि बोले, ''मैं जानता था.... कुछ नहीं होगा। केवल.....''
डॉक्टर ने सुमित्रा की ओर देखकर पूछा, ''तुम बुध को जा रही हो?''
सुमित्रा बोली, ''हां।''
शशि बोले, ''इतनी बड़ी विश्वव्यापी शक्ति के विरुध्द विप्लव की चेष्टा निष्फल ही नहीं पागलपन है। मैं तो हमेशा से यही कहता आ रहा हूं डॉक्टर।''
अय्यर सिर हिलाकर बोला, ''ट्रू।''
डॉक्टर सहसा सचेत होकर बोले, ''आज की हमारी सभा अब समाप्त होती है।''
सभी उठ खड़े हुए। सभी ने अपनी-अपनी राय प्रकट की। केवल भारती चुप रही। वह चुपचाप डॉक्टर के पास आकर खड़ी हो गई। फिर उनका दायां हाथ खींचकर वह धीरे-धीरे बोली, ''भैया, मुझे बिना बताए कहीं चले तो नहीं जाओगे?''
डॉक्टर चुप रहे। केवल अपनी वज्र जैसी कठोर मुट्ठी में जिस छोटे कोमल हाथ को पकड़ रखा था, उसी को दबाकर बाहर निकल पड़े।

दूसरे दिन सवेरे ही आकाश में धीरे-धीरे बादल इकट्ठे हो रहे थे। रात को कुछ बूंदा-बांदी भी हुई थी। लेकिन आज दोपहर से वर्षा और हवा का वेग बढ़ गया था।
भारती के कमरे में बैठक हो रही थी। सुमित्रा आराम कुर्सी पर चादर ओढे लेटी हुई है। शशि खाट पर झुककर बैठा है। अपूर्व नीचे कम्बल बिछाकर लेटा है। उसी के जलपान की तैयारी में भारती फर्श पर बैठी फल काट रही है।
अपूर्व ने कहा है, संसार में अब उसकी रुचि नहीं है। अब उसके लिए संन्यास ले लेना ही एकमात्र श्रेयस्कर उपाय है। शशि इस प्रस्ताव का अनुमोदन नहीं कर सका। वह युक्तिओं से खंडन करते हुए समझा रहा था कि ऐसी बात सोचना उचित नहीं है। क्योंकि संन्यास में अब कोई मजा नहीं रहा है। बल्कि बारीसाल कॉलेज में प्रोफेसरी के लिए जो आवेदन-पत्र भेजा है, अगर वह स्वीकृत हो जाए तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए।
अपूर्व दु:खी हुआ, लेकिन कुछ बोला नहीं। भारती सब कुछ जानती थी। इसलिए उसी ने उत्तर देते हुए कहा, ''जीवन में आनंद करते हुए घूमते रहने के अतिरिक्त क्या मनुष्य के लिए और कोई उद्देश्य नहीं हो सकता? शशि बाबू, संसार में सभी की आंखों की दृष्टि एक समान नहीं होती।''
उसके बातचीत करने के ढंग से शशि उदास हो गया।
भारती ने फिर कहा, ''उनकी मानसिक स्थिति इस समय अच्छी नहीं है। इस समय उनके भविष्य के कर्त्तव्य पर सोच-विचार करना केवल निष्फल ही नहीं अनुचित भी है। बल्कि इससे तो यही अच्छा होगा कि हम लोग अपनी....!''
''मुझे इसकी याद न थी भारती।''
शशि को याद न रहना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस बीच अपूर्व के साथ एक घटना और हुई है जिसे भारती के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था। सांसारिक दृष्टि से उसका फल और परिणाम, मातृ वियोग से विशेष कम नहीं है। मां की मृत्यु का समाचार पाकर अपूर्व के बड़े भाई विनोद बाबू ने तार द्वारा दु:ख प्रकट किया है। इसके अलावा तार में और कोई भी बात नहीं है। मां ने नाराज होकर सम्भवत: अत्यंत अपमानित होकर अंत में गंगाविहीन म्लेच्छ देश बर्मा में स्वयं को निर्वासित किया था। इस बात को समझकर अपूर्व दु:ख और क्षोभ से पागल-सा हो गया था। उसने जो दो दिन कलकत्ते में बिताए थे उनमें अपने घर पर न तो भोजन किया था और न वहां पर सोया ही था और वापस लौटते समय अच्छी तरह झगड़ा करके ही आया था। फिर भी इतनी बड़ी भयंकर दु:खद घटना में सबसे छोटा भाई होने के कारण उसे पूरा-पूरा भरोसा था कि उसे ले जाने के लिए घर से कोई--कोई जरूर आएगा। तिवारी घर पर रहता तो क्या होता, कहा नहीं जा सकता। लेकिन वह भी नहीं है। छुट्टी लेकर अपने देश गया है।
सवेरे ही अपूर्व ने भारती से कहा, ''बंगाली पुरोहित यहां भी हैं। मैं कलकत्ते नहीं जाऊंगा। जैसे भी होगा, मां का श्राध्द यहीं करूंगा।''
मां के अचानक घर छोड़कर चले आने का कारण लड़कों के प्रति उनका अजेय मान-अभिमान था। यह बात अपूर्व मालूम करके आया था। केवल ईसाई कन्या भारती की कहानी का उसमें कितना अंश सम्मिलित था यह वह नहीं जान पाया था। सांघातिक पीड़ित, लगभग अचेत मां से कुछ कहने का अवसर ही नहीं मिला और विनोद बाबू ने नाराजी के कारण कुछ बताया नहीं।''
सहसा सुमित्रा हड़बड़ाकर बोली, ''किसी ने नीचे का दरवाजा खोला है।''
हवा और वर्षा के लगातार झरझर शब्दों के बीच और कुछ सुनाई पड़ना कठिन था। आशंका से सभी चौंक पड़े। भारती ने पल भर कान खड़े करके कहा, ''नहीं, कोई नहीं है।'' लेकिन दूसरे ही पल नीचे की सीढ़ी पर पैरों की परिचित आवाज सुनकर हर्ष भरे स्वर में चिल्ला उठी-''अरे यह तो भैया हैं। एक हजार दस हजार, बीस हजार, एक लाख वेलकम।'' फिर हाथ में फल और हंसिया लिए दौड़ती हुई सीढ़ी के पास जाकर बोली, ''एक करोड़, दस करोड़, बीस करोड़, हजार-हजार करोड़ गुड इवनिंग। ....भैया, जल्दी आओ...''
सव्यसाची ने कमरे में प्रवेश करके पीठ का भारी बक्स उतारते हुए हंसकर कहा, ''गुड इवनिंग, गुड इवनिंग।
सव्यसाची के बक्स पर भारती की दृष्टि पड़ी। उद्विग्न शंका से त्रस्त होकर वह बोल उठी, ''अच्छा, तुम इस आंधी-पानी में अपने इस सहचर को साथ क्यों लाए हो। बताओ तो? कहीं जा तो नहीं रहे। झूठ बोलकर मुझे धोखा न दे सकोगे-यह मैं बता देती हूं भैया।''
डॉक्टर ने हंसने की चेष्टा की। लेकिन उसके अपने चेहरे पर हंसी नहीं आई। फिर भी मजाक के ढंग से अपनी बात को कुछ हलकी करके कहा, ''जाऊं नहीं तो क्या रामदास की तरह गिरफ्तार हो जाऊं?''
शशि बोला, ''बात तो ठीक यही है।''
भारती ने क्रुध्द होकर कहा, ''ठीक यही है। आप क्या जानते हैं शशि बाबू ...जो अपनी राय प्रकट कर रहे हैं?''
''वाह, मैं क्या नहीं जानता?''
''कुछ भी नहीं।''
डॉक्टर ने हंसकर कहा, ''झगड़ा करने से खिचड़ी बिगड़ जाएगी। कल के जहाज से न जाने से तो आप ठीक समय पर न पहुंच सकेंगे अपूर्व बाबू!''
अपूर्व बोला, ''मां का श्राध्द मैं यहीं करूंगा डॉक्टर।''
''यहां? इसका कारण?''
अपूर्व मौन रहा, भारती ने भी उत्तर नहीं दिया।
डॉक्टर मन-ही-मन समझ गए कि कोई घटना ऐसी हो गई है जो खोलकर कही नहीं जा सकती। बोले, ''तो इस हालत में वहां लौट जाने की क्या जरूरत है? नौकरी आपकी है न?''
अपूर्व चुप रहा।
शशि बोला, ''अपूर्व बाबू संन्यास लेंगे।''
डॉक्टर जरा हंसकर बोले, ''संन्यास! यह कैसी बात है?''
उनकी हंसी से अपूर्व क्षुब्ध हो गया, बोला, ''संसार में जिसकी रुचि नहीं है, जिसका जीवन स्वादहीन हो गया है।....इसके अतिरिक्त उसके लिए और कौन रास्ता है डॉक्टर?''
डॉक्टर ने कहा, ''यह सब बड़े आध्यात्मिक विषय हैं अपूर्व बाबू! इनमें अनाधिकार चर्चा करने के लिए मुझे अब प्रलोभन मत दीजिए। इससे तो अच्छा है कि शशि की राय लीजिए। यह सब कुछ जानता है। स्कूल में फेल होकर यह एक वर्ष तक एक साधु बाबा का चेला रह चुका है।''
शशि इसमें संशोधन करके बोला, ''लगभग दो-वर्ष।''
सुमित्रा और भारती हंसने लगीं। अपूर्व की गम्भीरता इससे विचलित नहीं हुई। उसने कहा, ''मां की मृत्यु के लिए मैं स्वयं को दोषी समझ रहा हूं। डॉक्टर गृहस्थाश्रम में रहने की मुझे आवश्यकता नहीं है। यह मेरे लिए कड़वा फल हो गया है।''
डॉक्टर ने पल भर उसके चेहरे की ओर देखकर शायद उसके मन की सच्ची पीड़ा का अनुभव कर लिया। स्नेह भरे कोमल स्वर में बोले, ''मनुष्य की इस दशा के बारे में मुझे सोच-विचार करने की कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी अपूर्व बाबू! लेकिन सहज बुध्दि से मालूम होता है कि शायद यह भूल होगी। कड़वाहट के बीच संसार छोड़ देने से केवल भाग्यहीन, श्री भ्रष्ट जीवन ही बिताया जा सकता है, लेकिन वैराग्य साधन नहीं होता। करुणा और आनंद पूर्वक नहीं जीने पर क्या होता है- मैं तो नहीं जानता।''
भारती बोल उठी, ''तुम ठीक कहते हो भैया। तुम्हारे मुंह से कभी गलत बात नहीं निकलती। यही सत्य है।''
डॉक्टर बोले, ''मालूम तो यही होता है। मां मर गईं। वह क्यों आई थीं? किस कारण आप जाना नहीं चाहते, यह मैं कुछ भी नहीं जानता। लेकिन किसी के आचरण से अगर आपको कटुता मिली हो तो क्या भविष्य में जीवन का एक वही सत्य हो गया और कहीं से अगर अमृत मिला हो तो जीवन में क्या उसका मूल्य ही नहीं देंगे?''
अपूर्व कहने लगा, ''अगर भैया मैं.....!''
डॉक्टर बोले, ''संसार में क्या अपूर्व के भैया विनोद बाबू ही हैं? भारती के भैया सव्यसाची नहीं हैं? उस घर में अगर आपके लिए स्थान न भी हो तो कलकत्ते का वह छोटा-सा मकान ही क्या वामन के विश्वव्यापी पैर के नीचे नहीं की पृथ्वी है? संसार में कहीं क्या आपके लिए स्थान नहीं है? अपूर्व बाबू, हृदय का आवेग अमूल्य वस्तु है। लेकिन उससे अगर चैतन्य को ढंककर रखा जाए तो उससे बड़ा शत्रु मनुष्य के लिए दूसरा कुछ भी नहीं है।
अपूर्व बोला, ''धर्म की साधना या आत्मा की मुक्ति कामना से तो मैं संसार छोड़ना नहीं चाहता डॉक्टर। अगर छोडूंगा तो दूसरों के लिए ही छोडूंगा। मुझ पर विश्वास करना आप लोगों के लिए कठिन है। न कभी करें तो दोष देने की कोई बात नहीं है। लेकिन एक दिन जिस अपूर्व को आप लोग जानते थे, मां की मृत्यु के बाद अब वह अपूर्व नहीं रहा।''
डॉक्टर ने उसका शरीर छूकर कहा, ''तुम्हारी बात सच हो।''
अपूर्व ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा, ''अब से मैं देश के काम में, दस आदमियों के काम में, दीन दुखियों के काम में जीवन लगाऊंगा। कलकत्ते में मेरा घर है। शहर में इतना बड़ा हुआ हूं। लेकिन शहर के साथ अब मेरा कुछ नहीं रहा। अब से ग्राम-सेवा ही मेरा एकमात्र व्रत होगा। किसी दिन कृषि-प्रधान भारत के गांव ही प्राण थे। आज उनका ध्वंस होता चला जा रहा है। भद्र जाति के लोग उनको छोड़कर शहरों में चले गए हैं। वहीं से वह उन पर दिन-रात शासन करते हैं और शोषण करते हैं। इसके सिवा गांवों से उन लोगों ने कोई संबंध नहीं रखा है न रखें। लेकिन चिरकाल से जो लोग इस देश के मुख का अन्न और शरीर ढंकने के वस्त्र सुलभ करते आ रहे हैं वह किसान ही आज अन्नहीन, विद्याहीन और निरुपाय होकर मृत्यु पथ पर तेजी से बढ़ते जा रहे हैं अब से मैं उन्हीं की सेवा में अपना जीवन दूंगा और भारती ने भी जी-जान से हमें सहायता देने का वचन दिया है। गांव-गांव में पाठशालाएं खोलकर उनके बच्चे-बच्चियों को शिक्षित बनाने का भार वह अपने ऊपर लेंगी। मेरा संन्यास देश के लिए है डॉक्टर, अपने लिए नहीं।''
डॉक्टर ने कहा, ''अच्छा प्रस्ताव है।''
उनके मुंह से केवल दो शब्दों के निकलने की आशा किसी ने नहीं कि थी। भारती ने उदास होकर कहा, ''और एक तरह से सोचा जाए तो यह काम तुम्हारा ही है भैया। इस कृषि-प्रधान देश में जब तक किसान बड़े नहीं होते तब तक कुछ भी नहीं हो सकता।''
डॉक्टर ने कहा, ''मैंने प्रतिवाद तो नहीं किया भारती।''
''तुमने उत्साह भी तो प्रदर्शित नहीं किया भैया।''
डॉक्टर ने कहा, ''दरिद्र किसानों की भलाई करना चाहो तो करो, मैं तुम लोगों को आशीर्वाद देता हूं। लेकिन यह समझना व्यर्थ है कि तुम हमारे कामों में सहायता कर रहे हो। किसान लोग राजा हो जाएं। धन-सम्पन्न और श्रीमान हो जाएं लेकिन मैं उनसे सहायता की आशा नहीं करता।''....फिर अपूर्व की ओर देखकर उन्होंने कहा, ''किसी की भलाई करने के लिए किसी दूसरे पर स्याही डाल ही देनी पड़ेगी। इसका कोई अर्थ नहीं है। इनके दु:-दैन्य की जड़ के शिक्षित भद्र जाति के लोग नहीं हैं। उसकी जड़ का पता लगाने के लिए तुम्हें किसी दूसरी ओर खोजकर देखना होगा।''
अपूर्व बोला, ''आज क्या सभी लोग यही बात नहीं कह रहे हैं?''
''कहने दो। जो गलत है वह तैंतीस करोड़ आदमी मिलकर कहें तो भी गलत ही है। वरना इस शिक्षित भद्र जाति से बढ़कर लांछित, अपमानित, दुर्दशाग्रस्त समाज बंग देश में दूसरा नहीं है। उस पर मिथ्या कलंक का और बोझ लादकर उसे क्यों डूबो देना चाहते हो? क्यों सोचते हो कि विदेशों की सभी युक्तियां और सभी समस्याएं अपने देश में भी लागू हो सकती है? बाहर का अनाचार ही जब पल-पल में सर्वनाश लाता चला जा रहा है तब फिर अंत:विद्रोह की सृष्टि किस लिए करना चाहते हो? देश असंतोष से भर गया है। स्नेह और श्रध्दा के बंधन क्यों चूर-चूर हो गए हैं-जानते हो? तुम्हीं इस आदमियों के दोष से, शिक्षितों के विरुध्द शिक्षितों के आक्रमण से। शशि, एक दिन तुमको भी मैंने यह काम करने का निषेध किया था, याद है? अपने विरुध्द होने, अपना दुर्नाम घोषित करने में एक निरपेक्ष स्पष्टवादिता का दम्भ है। एक तरह की सस्ती ख्याति भी एक मुंह से दूसरे मुंह तक फैलती चली जाती है। लेकिन यह केवल गलत बात नहीं, झूठ भी है। उन लोगों का हित करना चाहते हो तो जाकर करो। लेकिन एक के विरुध्द दूसरे को उत्तेजित करके नहीं। दूसरों पर कलंक लगाकर नहीं। विश्व के सामने उसको हास्यास्पद बनाकर नहीं। हो सकता है- वह दिन आ पहुंचे। लेकिन अभी तो उसमें देर है।''
सभी चुप रहे।
भारती ने धीरे-धीरे कहा, ''तुम खयाल मत करना भैया। मैं हमेशा से देख रही हूं, गांव के प्रति तुम्हारी सहानुभूति कम है। तुम्हारी नजर केवल शहरों पर ही टिकी रहती है। किसान के प्रति तुम सहृदय नहीं हो। तुम्हारी आंखें केवल कारखानों के मजदूरों पर लगी रहती हैं। इसीलिए तुमने पथ के दावेदार की इन्हीं लोगों के बीच स्थापना की थी। वह ही लोग तुम्हारी आशा हैं, वह ही तुम्हारे अपने हैं। झूठी बात तो नहीं है?''
डॉक्टर ने कहा, ''झूठ नहीं है बहिन, बिल्कुल सच है। कई बार तो मैं तुमसे कह चुका हूं 'पथ के दावेदार' किसानों के हितकारिणी संस्था नहीं है। वह मेरी स्वाधीनता प्राप्त करने का अस्त्र है। मजदूर और किसान एक नहीं हैं भारती। इसीलिए तुम मुझे मजदूरों के बीच, कारखानों के बैरेक में पाओगी। लेकिन मुझे गांवों में किसानों की झोंपड़ी में नहीं पाओगी-लेकिन बातों-ही-बातों में पड़ी रहकर अपना श्रेष्ठकर्त्तव्य मत भूल जाना बहिन! ....फिर स्टोव की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए बोले, ''देशोध्दार तो दो दिन बाद होने पर सह लिया जाएगा। लेकिन तैयार खिचड़ी जल गई तो यह दु:ख सहन नहीं होगा।''
भारती झटपट दौड़ती हुई गई और हांडी का ढक्कन हटाकर देख लेने के बाद हंसती हुई बोली, ''डरने की बात नहीं है भैया। आज रात का तुम्हारा खिचड़ी भोग मारा नहीं जाएगा।''
''लेकिन देर कितनी है?''
''बस पंद्रह-बीस मिनट....लेकिन इतनी जल्दी क्यों?''
डॉक्टर ने हंसकर कहा, ''आज तुम लोगों से विदा लेने आया हूं। बात चाहे जैसी ही क्यों न हो?''
उनके हंसते हुए चेहरे को देखकर किसी का विश्वास नहीं हुआ। बाहर आंधी-पानी का ठिकाना नहीं था। भारती ने पलभर के लिए खिड़की खोलकर निरीक्षण करने के बाद लौटकर कहा, ''बाप-रे-बाप! आज तो शायद पृथ्वी पलट जाएगी। विदा लेने का समय अच्छा है भैया''.....तभी उसे दूसरी बात याद आ गई बोली, ''लेकिन आज तुम्हें उसी छोटे कमरे में सोना पड़ेगा। अपने हाथ से बहुत ही सुंदर ढंग से बिछौना बिछा दूंगी।....क्या कहते हो?'' यह कहकर वह अंतर के प्रगाढ़ आनंद से झूमती रसोई के काम में लग गई।
भोजन तैयार होने पर डॉक्टर ने कहा, ''भारती, आज हम लोग सभी एक साथ भोजन करेंगे।''
भारती बोली, ''ऐसा ही होगा भैया, हम सब एक साथ ही खाएंगे।''
डॉक्टर ने कहा, ''लेकिन भूखे अपूर्व बाबू नजर लगाकर कहीं हमारे हाजमें में गड़बड़ी पैदा न कर दें। यह भी उससे कह दो।''
अपूर्व हंस पड़ा, भारती हसंने लगी। बोला, ''इसका भय हम लोगों को तो हो सकता है लेकिन तुम्हारे हाजमें में गड़बड़ी कौन कर सकता है भैया? उस आग में पहाड़ भी पीसकर डाल दिए जाएं तो भस्म हो जाएंगे। जैसा खाना खाते मैंने देखा है, '' यह कहकर उस दिन का उनका भोजन याद करके मन-ही-मन सिहर उठी।
खाना आरम्भ हो गया। अन्न-व्यंजन की प्रशंसा और हंसी-मजाक से कमरे का वातावण पलभर में बदल गया।
जब खाना-पीना बहुत अच्छे वातावरण में चल रहा था, सहसा अपूर्व ने रस भंग कर डाला-''उसने कहा, दो दिन पहले समाचार-पत्र में एक शुभ समाचार पढ़ा था डॉक्टर। अगर वह सत्य हो तो आपका विप्वल का प्रयास व्यर्थ हो जाएगा। भारत सरकार ने अपने शासन तंत्र में अमूल्य सुधार करने का वचन दिया है।''
शशि ने तुरंत उत्तर दिया, ''झूठी बात है, धोखा है।''
भारती को इस बात पर सही ढंग से विश्वास हो गया हो, ऐसी बात नहीं थी। लेकिन उसने उद्वेग के साथ कहा, ''नहीं, इसमें छल नहीं हो सकता। शशि बाबू, जो लोग लगभग आधी शताब्दी से....नहीं भैया, तुम हंस न सकोगे, यह मैं कहे देती हूं, उनके अथक आंदोलन का क्या कोई फल नहीं होगा-यही सोचते हो? विदेशी शासक होने पर भी तो वह लोग आदमी ही हैं। धर्म, ज्ञान और नैतिक बुध्दि उनमें लौट आना असम्भव तो नहीं।''
शशि ने कहा, ''सम्भव है झूठी बात नहीं है।''
अपूर्व बोला, ''बहुत से लोगों का यही संदेह है।''
भारती बोली, ''उनका संदेह झूठा है। भगवान क्या नहीं है? और शासन-पध्दति का परिवर्तन तथा अत्याचार का सुधार-यह सब अगर सचमुच हो जाए तो क्रांति का आयोजन और विद्रोह की सृष्टि-यह सभी एक दिन अर्थहीन हो जाएंगे भैया।
शशि ने कहा, ''अवश्य।''
अपूर्व बोला, ''निस्संदेह।''
भारती ने डॉक्टर के चेहरे की ओर देखकर कहा, ''भैया तब तुम अपनी वह भयंकर मूर्ति छोड़कर फिर शांत मूर्ति धारण कर लोगे न?-बताओ!''
डॉक्टर घड़ी की ओर देखकर मन-ही-मन हिसाब लगाकर जैसे अपने-आपसे बोले, ''अब अधिक देर नहीं है।'' इसके बाद भारती को सम्बोधित करके अत्यंत स्निग्ध स्वर में बोले, ''भारती, मेरी यह भयंकर मूर्ति है, यह तो मैं स्वयं ही नहीं जानता। सिर्फ यही जानता हूं कि इस जीवन में मेरे इस रूप में अब परिवर्तन नहीं होगा। और तुम्हारे आदरणीय नेताओं को भय नहीं है बहिन, आज उनको लेकर मजाक करके मन बहलाने का मेरे पास समय नहीं है। और न मन की अवस्था ही इसके अनुकूल है। विदेशी शासन का सुधार क्या है, जी-जान से किए गए आंदोलनों का वह क्या फल देना चाहते हैं-उसमें कितना असली और कितना नकली है-कितना मिल जाने के बाद शशि की समझ के अनुसार धोखेबाजी नहीं होगी और सम्माननीय नेताओं का रोना बंद हो जाएगा?-यह सब कुछ भी मैं नहीं जानता। विदेशी सरकार के विरुध्द आंखें लाल करके जब वे उच्च स्वर में प्रचार करके कहते हैं-हम लोग अब सोए हुए नहीं हैं जाग गए हैं। हमारे आत्म-सम्मान को भारी धक्का लगा है। या तो हमारी बात सुनो नहीं तो हम वन्दे मातरम् की सौगंध खाकर कहते हैं कि तुम लोगों की अधीनता में हम लोग स्वाधीन होंगे। अवश्य होंगे। देखें किसमें शक्ति है कि इसमें रुकावट डाले?....यह कैसी प्रार्थना है और इसका स्वरूप क्या है, यह बात समझ पाना मेरी बुध्दि के बाहर की बात है। मैं केवल इतना ही जानता हूं कि उनके इस मांगने और पाने के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है।''
कुछ देकर रुककर बोले, ''सुधार का अर्थ मरम्मत है, परिवर्तन नहीं। भारी बोझ के कारण जो अपराध आज मनुष्य के लिए असहनीय हो उठा है उसे ही सहनीय बना देना। जो यंत्र बिगड़ रहा है मरम्मत करके उसे अच्छी तरह चालू कर देने का जो कौशल है शायद उसी का नाम शासन-सुधार है। एक दिन के लिए भी मैंने इस धोखेबाजी की इच्छा नहीं की। एक दिन के लिए भी मैंने यह नहीं कहा- कि कारागार की चौड़ाई कुछ और बड़ी करके हमें कृतार्थ करो। भारती, मेरी कामना में स्वयं को छलने के लिए अवसर नहीं है। हमारी समस्या की सिध्दि के लिए दो ही मार्ग खुले हैं-एक मृत्यु और दूसरी भारत की स्वाधीनता।''
उनकी बातों में नई बात कुछ भी नहीं थी फिर भी मृत्यु और इस भयंकर संकल्प का पुन: उल्लेख होने से भारती के हृदय में आंसू उमड़ के आंखों में छलक उठे। बोली, ''लेकिन अकेले क्या करोगे भैया? सभी तो तुम्हें छोड़कर दूर हटते जा रहे हैं?''
डॉक्टर बोले, ''जाने दो। मेरे देवता तो धोखा नहीं दे सकते।''
भारती के मुंह पर यह बात आ गई कि संसार में सभी धोखेबाज नहीं होते भैया। हृदय पत्थर न हो गया होता तो तुम इस बात को समझ जाते। लेकिन उसने यह बात कही नहीं।
भोजन समाप्त कर, हाथ-मुंह धोकर डॉक्टर कुर्सी पर जा बैठे। किसी ने नहीं देखा कि उनकी आंखों की दृष्टि किसी की बड़ी उत्कंठा से प्रतिक्षा करते-करते धीरे-धीरे विक्षुब्ध होती जा रही है और उनका एक कान बहुत देर से सदर दरवाजे पर सतर्क होकर लगा हुआ है। यह कोई भी नहीं जानता था। सड़क के किनारे किसी तरह की आवाज सुनाई दी। लेकिन उसकी किसी ने परवाह नहीं की। लेकिन डॉक्टर चौंककर उठ खड़े हुए। उन्होंने पूछा, ''नीचे अपूर्व का नौकर है न? वह जाग रहा है? ऐ हनुमंत, जरा दरवाजा खोल दे।''
कहां, किसके लिए, कैसा बिछौना बिछाया जाएगा, भारती सुमित्रा से यही पूछ रही थी। उसने आश्चर्य से मुंह फेरकर पूछा, ''किसके लिए भैया? कौन आए हैं?''
डॉक्टर ने कहा, ''हीरा सिंह है। तभी से उसी की बाट देख रहा हूं। बताओ कवि, कुछ अंशों में काव्य-सा सुनाई दिया न?'' कहकर वह हंस पड़े।
भारती बोली, ''इस दुर्दिन में अकेले तुम्हारे काव्य की ज्वाला से ही हम लोग संत्रस्त हो रहे हैं। फिर यह भग्न दूत किसलिए?''
शशि ने कहा, ''भग्न दूत तुच्छ नहीं है भारती। वह न होता तो इतने बडे मेघनाथ-वध काव्य की रचना ही नहीं होती।''
''देखूं, यह किस काव्य की रचना करते हैं,'' यह कहकर भारती ने झांककर देखा। अपूर्व के नौकर के द्वार खोल देने पर जिस व्यक्ति ने प्रवेश किया वह सचमुच ही हीरा सिंह है। पलभर बाद उसने ऊपर आकर सबका अभिवादन किया और हाथ जोड़कर सव्यसाची को प्रणाम किया। वह वही सुपरिचित सरकारी वर्दी पहने हुए था। सरकारी चपरासी, सरकारी साफा, कमर में तार प्यून वाला चमड़े का बैग-यह सभी भीगकर भारी हो गए थे। उसकी भारी दाढ़ी-मुंछों से पानी झर रहा था। बाएं हाथ से उसे निचोड़कर, अपने को हल्का करके बोला, ''रेडी।''
डॉक्टर बोले, ''थैंक्यू सरदार जी! कब आए?''
''जस्ट नाउ'', कहकर एक बार फिर सबका अभिवादन करके नीचे जा ही रहा था कि एक साथ पूछ बैठे, ''क्या हुआ सरदार जी, जस्ट नाउ क्या?''
लेकिन अपना कर्त्तव्य पालन करके हीरा सिंह चुपचाप बाहर चला गया। इन लोगों का कौतूहल मिटाने के लिए डॉक्टर ने जो कुछ कहा वह संक्षेप में इस प्रकार है-
''हानि और अनिष्ट कितना हुआ है इससे इसका अनुमान लगा पाना कठिन है। शायद काफी हुआ है। लेकिन कितना ही क्यों न हो, दो काम उनको करने ही पड़ेंगे। उनके जैमेका क्लब का जो अंश सिंगापुर में है उसे बचाना ही पड़ेगा। और जहां भी हो, जिस प्रकार भी हो, ब्रजेन्द्र को खोज निकालना पड़ेगा। नदी के दक्षिण में सीरियम के पास एक चीनी जहाज माल लादकर अपने देश को जा रहा है। कल तड़के ही रवाना होगा। उसी में किसी प्रकार एक स्थान मिल गया है। हीरा सिंह यही समाचार दे गया है।
यह सुनकर सुमित्रा का चेहरा फीका पड़ गया। सम्भव है ब्रजेन्द्र इस समय सिंगापुर में हो। और जो व्यक्ति उसका पता लगाने गया है उससे उसे परित्राण नहीं मिल सकता। उस समय विश्वासघात पर अंतिम विचार करने का समय आएगा। इसका दंड क्या होगा-यह बात दल के किसी भी व्यक्ति से छिपी नहीं है। सुमित्रा भी जानती है। ब्रजेन्द्र उसका कोई भी नहीं है और अगर उसने अपराध कर ही डाला है तो उसे सजा मिलनी ही चाहिए। लेकिन जिस कारण से सुमित्रा ऐसी हो गई वह ब्रजेन्द्र के दंड की बात याद करके नहीं, बल्कि यह कि ब्रजेन्द्र कीड़ा-पतंगा नहीं है। यह आत्म-रक्षा करना जानता है। उसकी जेब में केवल पिस्तौल ही छिपी नहीं रहती, उसके समान धूर्त, युक्ति और उपाय से चलने वाला अत्यंत सावधान व्यक्ति इस संसार में कोई नहीं है। उससे भारी गलती यह हो गई कि वह जाने से पहले इस बात पर निश्चिंत रूप से विश्वास करके गया है कि डॉक्टर पैदल के रास्ते बर्मा छोड़कर चले गए हैं। अब किसी प्रकार अगर उसे डॉक्टर का पता मालूम हो गया तो उसके तूणीर में हत्या करने के जितने भी अस्त्र होंगे उनका प्रयोग करने में वह पलभर के लिए भी नहीं हिचकेगा।
हीरा सिंह के शांत और मृदु दो शब्द- 'नाउ' और 'रेडी' उन सबके कानों में हजार गुना भीषण होकर हजारों ओर से आघात-प्रतिघात करने लगे। भारती को लगा-हीरा सिहं मृत्यु दूत की तरह आकर एक पल में ही सब कुछ नष्ट करके चला गया।
शशि बोला, ''सब कुछ खाली-सा होता जा रहा है डॉक्टर।''
बात सीधी-सी थी। लेकिन सभी की छाती पर उसने चोट की।
शशि बोला, ''हंसिए या चाहे जो भी कीजिए, यह बात सच्ची है। आप पास नहीं हैं, इसका ध्यान आते ही लगता है जैसे सब खाली हो गया। लेकिन मैं आपके आदेश के अनुसार ही चलूंगा।''
''जैसे?''
''जैसे शराब नहीं पीऊंगा-राजनीति में नहीं पडूंगा-भारती के पास रहूंगा और कविताएं लिखूंगा।''
डॉक्टर ने भारती की ओर एक बार देखा, लेकिन देख न सके। मजाक में पूछा,? ''किसानों के लिए कविता नहीं लिखोगे कवि?''
शशि बोला, ''नहीं। अपनी कविता वह स्वयं लिख सकें तो लिखें। मैं नहीं लिखूंगा। आपकी इस बात पर मैंने बहुत विचार किया है और वह उपदेश भी कभी नहीं भूलूंगा कि आदर्श के लिए सर्वस्व न्यौछावर किया जा सकता है। केवल भद्र संतान, अशिक्षित कृषक यह नहीं कर सकते। मैं उन्हीं लोगों का कवि बनूंगा।''
डॉक्टर बोले, ''वही बन जाना लेकिन यह अंतिम बात नहीं है कवि। मानव की गति यहीं पर निश्चल नहीं रह जाएगी। किसानों के दिन भी एक दिन लौटेंगे। तब उन्हीं लोगों के हाथों मे राष्ट्र के कल्याण-अकल्याण का भार सौंप देना पड़ेगा।
शशि बोले, ''आ जाएं वह दिन। तब स्वछंद शांत चित्त से सारा उत्तरदायित्व उन्हीं के हाथों में सौंपकर हम लोग छुट्टी ले लेंगे। लेकिन आज नहीं। आज आत्म-बलिदान का भारी बोझ वह लोग ढो नहीं पाएंगे।''
डॉक्टर उठकर आए और उसके कंधो पर दायां हाथ रखकर चुप खड़े हो गए।
इतनी देर तक अपूर्व चुपचाप बैठा सुन रहा था। इन लोगों की बातचीत में उसने एक भी बात नहीं कही थी। लेकिन शशि के अंतिम शब्द उसे बुरे लगे। जिन किसानों के हित के लिए उसने अपना जीवन समर्पित करने का निश्यच किया था उनके विरुध्द यह सब बातें सुनकर क्षुब्ध और असन्तुष्ट हो उठा। और कहने लगा, ''शराब पीना बुरा है। बहुत अच्छा हो अगर यह उसे छोड़ दें। काव्य-चर्चा अच्छी है उसे ही करें। लेकिन कृषि-प्रधान भारतवर्ष का कृषक समुदाय इतना तुच्छ और इतनी अवहेलना की वस्तु है क्या? और वह लोग ही अगर खड़े न हो सके तो आपका विप्लव ही कौन करेगा? और करेगा भी क्यों? और पॉलिटिक्स? मैं ठीक ही कह रहा हूं डॉक्टर! किसानों के कल्याण के लिए मैं संन्यास व्रत धारण न करता तो आज स्वदेश की राजनीति ही मेरे जीवन का एक मात्र कर्त्तव्य हो जाता।''
डॉक्टर थोड़ी देर तक उसके मुंह की ओर ताकते रहे। सहसा प्रसन्न हास्य से उनका चेहरा चमक उठा। बोले, ''तन और मन से प्रार्थना करता हूं कि तुम्हारा सदुद्देश्य सफल हो। राजनीतिक क्षेत्र भी उपेक्षा की वस्तु नहीं है। देश और दस आदमियों के कल्याण के लिए ही अगर तुमने वैराग्य ग्रहण किया है तो तुम्हारा किसी से विरोध नहीं होगा। लेकिन सभी लोग सभी कार्यों के योग्य नहीं होते।''
अपूर्व ने स्वीकार करके कहा, ''मुझसे अधिक यह शिक्षा और किसे मिली है डॉक्टर? आप दया न करते तो बहुत दिन पहले ही इस भ्रम का चरम दंड मुझे मिल गया होता।''यह कहकर पुरानी याद के आघात से ही उसके सारे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए।
शशि इस घटना को नहीं जानता था। उसे बताने की आवश्यकता भी किसी ने अनुभव नहीं की। अपूर्व की बात को उसने विचलित विनय और श्रध्दा-भक्ति के प्रदर्शन के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा। बोला, ''भ्रम तो बहुतेरे ही करते हैं लेकिन उनका दंड भोगा करती है अपनी जन्मभूमि। मैं सोचता हूं कि डॉक्टर कि आपसे अधिकर योग्य व्यक्ति और कौन होगा? किसमें इतना ज्ञान है? जाति और देश कोई भी विषय हो। राजनीति की समझ किसे है इतनी? किसको इतनी व्यथा है? फिर भी यह किसी काम नहीं आया। चीन का आयोजन नष्ट हो गया। पेनांग तो चला ही गया। बर्मा का कुछ भी नहीं रहा। सिंगापुर का भी चला जाएगा-निश्चय ही है। सारांश यह है कि आपके इतने दिनों के सभी प्रयास नष्ट हो जाने वाले हैं। केवल प्राण ही शेष हैं वह किसी दिन चले जाएंगे। इसका ठिकाना नहीं।''
डॉक्टर मुस्कराकर हंस पडे। शशि ने कहा, ''हंसिए या चाहे जो भी किजिए। यह मैं दिव्य-दृष्टि से देख रहा हूं।''
डॉक्टर ने पूछा, ''दिव्य-दृष्टि से तुम और कुछ नहीं देख पाते कवि?''
शशि ने कहा, ''वह भी देख पाता हूं। इसीलिए तो आपको देखते ही तत्काल मालूम हो जाता है कि बिना उपद्रव शांतिपूर्ण पथ में अगर हम लोगों के जीवन पथ का दरवाजा सुई की नोक भर भी खुला रहता....''
अपूर्व बोल पड़ा, ''वाह, एक ही साथ दो परस्पर विरोधी बातें?''
सुमित्रा ने हंसी छिपाने के लिए अपना मुंह फेर लिया।
डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, ''इसका कारण यह है अपूर्व बाबू कि इसमें दो सत्ताएं मौजूद हैं। एक शशि की और दूसरा कवि की। इसलिए सबके मुंह की बात दूसरे के मन की बात को धक्का मारकर ऐसा बेसूरा राग अलापने लगती है।'' कुछ रुककर बोले, ''बहुत से मनुष्यों में इसी प्रकार दूसरी सत्ता छिपी रहती है। उसे सहज ही नहीं पकड़ा जा सकता। इसीलिए मनुष्य की बात और उसके काम में सामंजस्य का अभाव देखते ही उसका कठोर निर्णय कर डालने से उसमें अन्याय की सम्भावना कम नहीं रहती, अधिक रहती है। अपूर्व बाबू, मैंने तुमको पहचान लिया था लेकिन सुमित्रा नहीं पहचान सकी थी। भारती, जीवन-यात्रा के बीच अगर तुम ऐसा ही कोई चोट खाओ तो अपने इस परलोक गत भाई की बात मत भूल जाना। लेकिन अब मैं जा रहा हूं। मेरी नाव घाट पर बंधी हुई है। भाटे के समय न चल पड़ने पर मैं सवेरे जहाज नहीं पकड़ पाऊंगा।''
भारती आशंका से व्याकुल हो उठी, ''इस भयंकर नदी में? इस भीषण तूफानी रात में?''
उसके व्याकुल कंठ स्वर में सुमित्रा के आत्मसंयम का सुदृढ़ बांध टूट गया। उसने फीके चेहरे से पूछा, ''क्या तुम सचमुच ही सिंगापुर जा रहे हो? यह काम तुम कभी मत करना डॉक्टर। वहां की पुलिस तुम्हें अच्छी तरह पहचानती है। इस बार उसके हाथ से तुम किसी प्रकार भी....''
बात समाप्त नहीं हुई थी तभी उत्तर मिला, ''पुलिस वाले क्या मुझे यहां नहीं पहचानते सुमित्रा?''
सुमित्रा चुप हो गई जिस बात के बाहर निकल पड़ने की व्याकुलता के कारण, इतने दिनों से वह सिर धुनकर मर रही थी यही बात उसके मुंह से अंधे आवेश में निकल पड़ी, ''केवल एक बार-डॉक्टर-इसी एक बार के लिए तुम मेरे ऊपर निर्भर होकर देखो कि मैं तुमको सरवाया ले जा सकती हूं या नहीं? इसके सिवा रुपए से क्या नहीं होता, बताओ?''
डॉक्टर जूते का फीता बांध रहे थे। बांध चुकने पर मुंह उठाकर बोले, ''रुपए से बहुत काम होते हैं सुमित्रा। उन्हें फिजूल खर्च नहीं करना चाहिए।''
सभी जान गए कि यह बातचीच व्यर्थ है। उपायहीन वेदना से अपना हृदय भरकर सुमित्रा आंसू भरी आंखों के साथ दूसरी ओर मुंह फेरकर रह गई।
भारती बोली, ''मुझे अथाह सागर में बहाकर तुम जा रहे हो भैया। फिर भी बार-बार तुम मुझसे कहते थे- केवल मुझ पर ही नहीं मेरी उम्र की जितनी भी लड़कियां यहां हैं उन पर तुम्हारा बड़ा लोभ है, सभी को तुम अत्यंत प्यार करते हो। वह क्या यही प्यार है?''
डॉक्टर ने समर्थन करते हुए कहा, ''सचमुच ही प्यार करता हूं भारती। लड़कियों पर मेरा कितना लोभ है? कितना भरोसा है- यह तुम लोगों को बताने का मुझे कभी अवसर ही नहीं मिला। लेकिन अगर मुझसे वह न हो सका तो अपने इस भैया की ओर से यह सब उनको बता देना बहिन।''
भारती एकाएक रोने लगी और बोली, ''यह बताऊंगी कि तुम केवल हम लोगों की बलि देना चाहते हो।''
डॉक्टर ने पल भर उसके चेहरे की ओर देखकर कहा, ''अच्छा यही बात कह देना। बंगलादेश की एक भी लड़की अगर इसका अर्थ समझ जाए तो मैं उसी से धन्य हो जाऊंगा।'' यह कहकर उन्होंने अपना भारी बक्सा कंधे पर उठा लिया। उनके पीछे-पीछे सभी लोग उतर आए। भारती ने अंतिम चेष्टा करके कहा, ''जिसका देश का आयोजन विफल हो जाता है भैया, विदेश के आयोजन से उनका क्या होता है? जो लोग अंतरंग सुहृद थे वह एक-एक करके छोड़कर चले गए तो क्या तुम एकदम निस्संग- एकदम अकेले हो?''
डॉक्टर ने स्वीकार करके कहा, ''ठीक, यही बात है। लेकिन आरम्भ भी तो अकेले ही किया था भारती! और विदेश में। लेकिन भगवान ने इतनी कृपा की कि मनुष्य को- अपनी इच्छानुसार छोटी-बड़ी दीवारें बनाकर, अपनी पृथ्वी को हजारों कारागारों मे परिवर्तित कर डालने का कोई उपाय नहीं रखा है। उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम-जितनी दूर तक दृष्टि जाती है विधाता का राजमार्ग एकदम खुला हुआ है। उसको अवरुध्द कर रखने का षडयंत्र मनुष्य की पहुंच के बाहर की बात हो गई है। अब तो एक छोर का अग्निकांड दूसरे छोर तक चिंगारियां उड़ा ही ले आएगा। भारती-वह तांडव देश-विदेश की सीमा नहीं मानेगा।''
लेकिन इधर रुद्र के सच्चे तांडव ने कमरे के बाहर उस समय कैसी भयंकर मूर्ति धारण कर ली थी- अंदर रहकर इसका किसी को ख्याल ही नहीं था। बिजली की चमक, मूसलाधार वर्षा, तूफानी हवा और वज्रपात- मानो एकदम प्रबल रूप में आरम्भ हो गया था।
डॉक्टर ने किवाड़ की चटकनी ज्यों ही खोली, एकाएक वर्षा की तेज बौछार भीतर आ घुसी जिससे सभी भीग गए। बत्ती बुझ गई। सभी चीजें उलट-पलट गईं और पलक झपकते घर और बाहर सब कुछ अंधकार से एकाएक हो गया।
डॉक्टर ने पुकारा, सरदार जी।''
बाहर से आवाज आई, ''यस डॉक्टर, रेडी।''
सभी चौंक पड़े। इस असहनीय हवा और मूसलाधार वर्षा को माथे पर रोककर कोई भी मनुष्य इस सूची भेद्य, घोर अंधकार में बाहर खड़े रहकर निश्चल, नि:शब्द भाव से पहरे पर तैनात रह सकता है- इस बात की अचानक कोई कल्पना भी नहीं कर सका।
डॉक्टर रहस्यपूर्ण स्वर में बोले, ''तो अब मैं जाता हूं।'' यह कहकर डॉक्टर ने ज्यों ही बाहर की ओर कदम बढाया त्यों ही अपूर्व व्यग्र-व्याकुल कंठ से बोल उठा, ''एक दिन मुझे आपसे जो जीवन दान मिला था, यह बात मैं हमेशा याद रखूंगा डॉक्टर।''
अंधेरे में उत्तर आया, ''जीवनदान मिल जाने को ही तुमने बड़ा बनाकर देखा अपूर्व बाबू? जिससे वह मिला था उसे तो तुमने याद ही नहीं रखा।''
अपूर्व ने चिल्लाकर कहा, ''क्यों? इस जीवन में मैं उसे भी नहीं भूलूंगा। इस ऋण को मैं मरते दम तक....!''
दूर अंधेरे में से उत्तर आया, ''ऐसा ही हो। भगवान से प्रार्थना करता हूं कि तुम एक दिन अपने सच्चे प्राणदाता को पहचान सको अपूर्व बाबू! उस दिन यह सव्यसाची का ऋण....!''
इस बात का अंतिम अंश सुनाई नहीं पड़ा। अस्फुट ध्वनि-हवा के झोंके से आकाश में उड़ गई। उसके बाद थोड़ी देर के लिए मानो किसी को कुछ होश नहीं रहा। अचेत, जड़ मूर्ति की तरह कुछ पल तक निश्चल रहकर भारती सहसा चौंक उठी और तेजी से ऊपर जाने लगी। उसके पीछे-पीछे और सब लोग दौड़ते हुए चले गए।
उसने खिड़की खोली और जितनी भी दूर तक निगाह जा सकती थी अंधेरे में अपनी अपलक आंखों से टकटकी लगाए देखती रही। इसी तरह काफी देर बीत गई।
सहसा भीषण कड़कड़ाहट के साथ ही शायद कहीं पास ही बिजली गिरी और उसकी ही चमचमाती हुई विद्युत शिखा में केवल पलभर के लिए आकाश और धरातल को उद्भासित करके एक बार डॉक्टर के अंतिम दर्शन करा दिए।
इस भयानक समय में मकान से बाहर निकलकर इन लोगों की गतिविधि पर नजर रखने का पागलपन शायद किसी भी पुलिस कर्मचारी में नहीं था। फिर भी बड़ी सड़क को छोड़कर मैदान के दक्षिणी छोर से घूमकर दोनों धीरे-धीरे चलने लगे। बीच-बीच में झाड़-झंखाड़ और कंटीले पौधों का बना टेढ़ा मार्ग मिलता गया। इस सूची भेद्य अंधकार में कीचड़ भरे पथहीन पथ से एक पथिक भारी बोझ अपने ऊपर लाद लेने के कारण कुछ झुककर सावधानी से बढ़ता चला जा रहा है। और दूसरा-अपनी पगड़ी पर वर्षा के प्रचंड वेग को सहता हुआ यथासम्भव अपने सिर को बचाकर उसका अनुसरण कर रहा है।
पलभर बाद सब लुप्त था। केवल घोर अंधकार ही शेष रह गया।
अचानक एक गहरी सांस लेकर शशि ने कहा, ''दुर्दिन के मित्र सरदार जी तुम्हें नमस्कार।''
उसी समय सहसा अपूर्व ने भी अपने दोनों हाथ उठाकर सरदार को लक्ष्य करके नमस्कार किया। लगा जैसे उसके हृदय का एक बोझ उतर गया हो।
भारती उसी प्रकार पत्थर की मूर्ति के समान अंधेरे में ताकती हुई खड़ी रह गई। शशि की बात भी जैसे उसके कानों में नहीं पहुंची। वैसे ही वह यह भी नहीं समझ सकी कि ठीक उसी की तरह एक नारी की आंखों से भी आंसुओं की धारा प्रवाहित हो रही है।

समाप्त