Anshkatha - 2 in Hindi Short Stories by कवि अंकित द्विवेदी books and stories PDF | अंशकथा - 2

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अंशकथा - 2

कथा 01- पुराना बरगद का पेड़

अरे सुनो ! सुनो तो !
आखिर मैं भी इसी समाज का सदस्य हूँ । फिर सबने मुझे यूँ अकेला क्यों छोड़ दिया । क्या मैंने किसी का कुछ बिगाड़ा था या फिर किसी को कुछ कह दिया ? जिससे सब मुझझे नाराज़ हैं और कोई मुझझे नाता नहीं रखना चाहता है। मैं बिल्कुल अकेला सा पड़ गया हूँ । पर मुझे अब भी याद आता है , वो समय जब गाँव के सभी बच्चों को मैं उनके चेहरे के साथ-2 उनके पुकारु नाम से जानता था । जैसे वो कल्लू , वो रामू , वो लाली और वो सब से शरारती गुड्डन ।
मैं तो लोगों को यहाँ तक भाप चुका था कि बिना आँखों के ही ये बता सकता था कि ये ताश की बाज़ी हरिया जीतेगा या फिर रामलाल । और अगर बात करुँ लोगों के प्यार की तो वो मुझे गाँव के हर एक सदस्य से इतना मिलने लगा था। कि गाँव वालों का कोई भी मुद्दा , शादी , मेला या फिर कोई सर्कस बिना मेरे साथ के पूरा नहीं होता था। गाँव वालों के साथ ये सम्बन्ध मुझे कभी भी अपने ग़म के दौर में भी मायूस नहीं होने देता था।
पर समय – 2 की बात की है , एक समय वो भी था ..............
जब हर बच्चें को खेलने के लिए मेरे साथ की आवश्यकता पड़ती थी , हर बसंत में वो लम्बें-2 झूले जिन पर बैठने से शायद ही कोई बच पाया हो , उनको डालने के लिए सब मुझे ही याद करते थे, हर होली में वो पहला गुलाल का छीटा मेरे ही चेहरे पर डाला जाता था, दीपावली में सब मेरे घर को ही दीपों से सराबोर किया जाता था । वो समय ऐसा था कि मैं न सिर्फ बच्चों का बल्कि जवानों और खास कर गाँव के उन बुज़ुर्गों का एक मात्र प्रिय सहारा था। वो अपनी हर बात , हर शिकायत , हर तकलीफ़ और हर खुशी मेरे साथ बाटने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाते थे।
अरे हाँ ! उन बुज़ुर्गों की सबसे खास बात जो मुझे आजकल बहुत ही कम देखने को मिलती है वो थी हर परिस्थिती में एकदम सटीक सलाह । जो शायद ही कभी गलत साबित हुई हो और वो दौर भी कुछ ऐसा था कि युवा बिना बुज़ुर्गों की सलाह के कोई काम करना नियम के खिलाफ समझते थे।
हाँ मुझे तज़ुर्बा है काफ़ी सालों का । मैं हर वो बात जानता हूँ इस गाँव की, जो शायद हर किसी के नहीं पता। मैंने तो हर पल सभी का साथ ही दिया। धूप हुई तो छाव बना , बारिश हुई तो घर की छत , कड़कड़ाती ठङ हुई तो खुद को जला कर आग भी बनने में पीछे नहीं हटा। यहाँ तक की गाँव में बाढ़ का आतंक होता था तो भी मैं सब की मदद में खड़ा रहता था।
मैं हर उस लावारिस का सहारा था , हर उस व्यक्ति का दुलारा था, जिसके पास कोई और नहीं होता था। वो मेरी ही गोद में अपना दिन और मेरे ही आगोश में अपनी रात गुजारता था। मैं हर उस पशु का सहारा था जिसे अकसर लोग दुत्कार कर आवारा बोल देते थे।
पर आजकल मैं बहुत दुखी हूँ ! बात ही कुछ ऐसी है कि बताँऊ भी तो किसको? आखिर यहाँ बचा ही कौन है , जो मेरी व्यथा सुनें। सब तो खुद के विकास एवं एक अच्छे परिवेश को पाने की चाह में परदेश पलायन कर गये।
हाँ और क्या मैं कुछ गलत कह रहा हूँ क्या ? देखो गाँव के युवा नौकरी को खोजते हुए गये । फिर बच्चे अच्छी शिक्षा के लिए । अब बचे कुछ गिने चुने लोग तो उनको भी वक्त नहीं और काम तो सुने.............. वो हर वक्त इसी बात का चिन्तन करते रहते हैं कि किसी आगे बढ़ने वाले को कैसे पाराजित किया जाए। कैसे किसी को नीचा दिखाया जाए । तो इसी तरह हर वर्ग को अब मेरे साथ की आवश्यकता नहीं पड़ती । पड़े भी कैसे आधुनिकता का दौर जो आ गया।
मुझे इस बात का बहुत अफसोस होता है कि न जाने क्यों लोग पलायन को अपना विकास मानने लगे है। जब की वो गाँव में रहकर अपनी शिक्षा का सही उपयोग करे तो शायद हमें ऐसे दिखावे के विकास की आवश्यकता ही न पड़े।
पर सच में मैं बहुत अकेला हूँ और मेरे जैसे न जाने कितनों को इस शहरी विकास ने मरने पर मजबूर कर दिया । पर मेरी एक बात तुम भी समझ लो जिस प्रकार से मैं अकेला हो रहा हूँ और पल-2 मर रहा हूँ। तुम्हारे विनाश के पथ को प्रस्सत्थ करता जा रहा हूँ।
अरे सुनों! मैं कब से अपनी व्यथा बताता जा रहा हूँ, आखिर तुम लोग मुझे पहचान तो पाये हो न .......................
अरे .......................
मैं वही गाँव के बीच में तालाब के पास वाला "पुराना बरगद का पेड़" हूँ। जिसे तुम सब यूँ ही अकेला मरने के लिए छोड़ दिया।

कथा 01- उम्मीद

सोचता हूँ हार मान लूं और थक कर कमरे के किसी कोने में जहाँ रोशनी भी नहीं आ सकती , बैठ जाऊँ। ज़िन्दगी की भाग दौङ और कसमकस में फस कर इतना उलझ चुका हूँ कि अब न ये जीवन अच्छा लगता हैं न ही लोग। सब एक बोझ से लगने लगे हैं और मैं एक बधुआ मज़दूर के जैसे ज़िन्दगी जिये जा रहा हूँ जिये जा रहा हूँ । इच्छाऐं बहुत थी पर अब हिम्मत नहीं हैं । आज़ादी बहुत है पर घुटन सी होती है अब मुझे । न जाने क्यों ? न जाने क्यों , न मैं जीना चाहता हूँ और न ही मर पा रहा हूँ । रोज़ आँख खुलती है तो खुद को लोगों की भीड़ में ही पाता हूँ । जैसे घर में परिवार की भीड़ , सड़क पर अनजान लोगों और बेजान गाड़ियों की और दफ्तर में चंद लोगों की । कहने को तो भीड़ में सबसे ज्यादा खुश रहने वालों में से मेरा नाम सब से ऊपर आता हैं । पर जब मैं अकेले में खुद से मिलता हूँ तो पाता हूँ कि शायद भीतर से टूटे हुए लोगों में भी मेरी गिनती सबसे ऊपर ही आती है । ख्याल कई बार आया कि नहीं मैं खुद को ही समाप्त कर दूँ जिससे इस समस्या का हल निकल पाये । पर वो कुछ चेहरे जो मेरी मुस्कान के साथ मुस्कुराते हैं और मेरी हर एक सफलता को अपनी समझ कर उसमें मुझसे ज्यादा शरीक़ होते हैं। वो हर बार मुझे कुछ नया कर गुज़र जाने का हिमालय जैसा हौसला देते हैं तो कैसे मैं उनसे ये सब एक झटके में खुद को खत्म करके छीन लूँ । मैं इतने लोगों की खुशी उनकी आश की हत्या भी नहीं कर सकता इसलिए मैं जियूँगा । उनकी खातिर जो मुझसे ज़िन्दा हैं ।