Kanto se khinch kar ye aanchal - 2 in Hindi Short Stories by Rita Gupta books and stories PDF | काँटों से खींच कर ये आँचल - 2

Featured Books
  • અકસ્માત

             વહેલી સવારે અચાનક પત્ની સાથે સાપુતારા જવાનો અને વસં...

  • તુ મેરી આશિકી - 3

    ️ ભાગ ૩ ️ "હજી બાકી છે બધું…"પ્રારંભ – હાથમાં હાથ, પણ રાહ પડ...

  • કાલીધર લાપતા

    કાલીધર લાપતા- રાકેશ ઠક્કરઅભિષેક બચ્ચનનો OTT પર એક અભિનેતા તર...

  • ચંદ્રવંશી - પ્રકરણ 5

    સવારॐ सूर्याय नम: ।ॐ सूर्याय नम: ।।   બે હાથ વચ્ચે એક સોનાની...

  • બસ એક રાત....

    મધરાત્રી નો સમય છે ચારેતરફ સાવ શાંતિ છવાયેલી છે એક વિશાળ બંગ...

Categories
Share

काँटों से खींच कर ये आँचल - 2

काँटों से खींच कर ये आँचल

रीता गुप्ता

अध्याय दो

कैसी उजड़ी चमन की मैं फूल थी. क्या अतीत रहा है मेरा क्या जीवन था, मानों तप्त रेगिस्थान में उगे कैक्टस. निर्जन बियावान कंटीली निरुद्देशय जीवन. अकेला, बेसहारा, अनाथ मैं और अकेलापन मेरी साथी मेरी हमदर्द. शायद गोद में ही थी जब एक सड़क दुर्घटना में अपने पापा और भाई को मैंने खो दिया. माँ की साड़ी के तहों में छिपी मैं बिना खरोंच जिन्दा बच गयी. माँ कुछ महीनों कोमा में जिन्दा रहीं, शायद मुझे अपना जीवन रस पिलाने हेतु ही. अचेतावस्था में भी माँ मुझे हॉस्पिटल में दुग्धपान कराती रहीं. पापा सरकारी नौकरी में थे सो माँ का इलाज़ होता रहा. मेरे चाचा जी ने खूब सेवा किया था उनकी, जैसा चाची बताती रहतीं. मुझे तो अभी लगता है कि सेवा की जगह उन्होंने अवश्य उनकी जीवन रक्षक सिस्टम को नुकसान पहुँचाया होगा, क्यूंकि पापा के बाद माँ ही होती उस सरकारी नौकरी की हक़दार. जिसे बाद में चाचा जी ने हासिल किया था. वो तो सरकारी काम था कि उन्हें सात-आठ साल लग गए उस मुवावजे वाली नौकरी को हासिल करने में. इस बीच मैं कम से कम जिन्दा रही उनके घर( जो दरअसल मेरा ही था). मेरे ही चेहरे को दिखा तो उन्होंने हासिल किया था उस नौकरी को.

इतने साल एक कुत्ता भी पाल लो तो उससे प्यार हो जाता होगा परन्तु अपने प्रति मैं क्षणांश भी लगाव जागृत नहीं करा पाई, चाचा-चाची के दिल में. “मनहूस और अभागी” के जितने भी पर्यायवाची होते होंगे, उन्हें ही सुन सुन मैं जीती रही. जाने कितनी जीवट थी मैं जो हवा-पानी सहारे -अधभूखे पेट भी मैं पल्लवित पुष्पित ही होती गयी. जाने माँ ने कौन से आँचल में मुझे संभाल छोड़ा था कि रोग बीमारी भूख, प्यास, दुत्कार मुझे छू भी नहीं पातें.

यूं वक़्त गुजरा मानों एक जन्म बीता हो. जिस सरकारी दफ्त्तर में मेरे पापा कार्यरत थे उसके ही स्कूल कॉलेज में पढ़ती मैं जंगली लता सी खुद-ब-खुद बिना खाद पानी के बढती रही. फिर पच्चीस की आयु में मुझे पचास के एक विधुर संग विदा कर दिया गया. यूं जिन्दगी ने मानों एक राहत की सांस ली. एक नया अद्ध्याय शुरू हुआ,

अब कम से कम मुझे यहाँ इज्जत की रोटी, कपडा और मकान मुहैया हो गयी. पर इंसानी फितरत भी अजीब है, पेट भरते ही दूसरे भूख सर उठाने लगतें हैं. जिन की हाथ को पकड़ मैं जीवन के काले अद्ध्याय को पार कर एक नए सुनहरी प्रभात की ओर कदम बढाया था, मैं उनकी दूसरी पत्नी थीं. एक बेहद ऊँचें पद पर स्थापित मेरे पति धीर, गंभीर और गरिमामय व्यक्तित्व के स्वामी हैं. उन्होंने मुझे शुरू में ही कहा,

“अनुभा, तुम मुझसे बहुत छोटी हो लगभग मेरी बेटी की उम्र की. तुमको शायद मालूम होगा कि मेरी पत्नी सुलभा कुछ वर्ष पहलें दोनों बच्चों को छोड़ किसी दूसरे संग ब्याह रचा जा चुकी है. गृह त्याग के साथ उसने तलाक हासिल करने हेतु जो विषाक्त लांछनों के तीर छोड़ें थें उनके शर आज भी मर्मान्तक पीड़ा देतें हैं. मैं नहीं चाहता था कि तुम जैसी कम उम्र की लड़की से ब्याह करूँ परन्तु जब तुम्हें देखा तो मुझे तुम्हारी गाम्भीर्य और परिपक्वता ने आश्वस्त किया कर दिया.”

***