३६) स्वयं को सर्वाधिक प्रामाणिक, पारदर्शक व बेबाक बताने की शेखी हर कोई बघारता है, जबकि वास्तविकता एकदम अलग ही होती है। अन्य लोगों के साथ तो ठीक, खुद अपने परिवार या अपने जीवनसाथी के साथ भी दिल की भावनाओं को स्पष्ट रूप से स्वीकारने वाले मुश्किल से ही मिलते हैं। सूर्यास्त के पश्चात् किसी गैर की रेशमी जुल्फों के साथ खेलने वाले की हरकतें पाप कही जाएंगी या नहीं, इस मुद्दे को एक तरफ रख दें। व्यवसाय, नौकरी, मित्रों आदि के साथ या फिर अन्य जगहों पर किये जाने वाले छोटे-बड़े पाप कई बार सूक्ष्म होते हैं, इसके बावजूद उनके प्रभाव दूरगामी होते हैं। मनुष्य के सौभाग्य से चित्रगुप्त की खाताबही दूर यमराज के दरबार में है अन्यथा छोटे-बड़े प्रत्येक गुनाह की सजा पृथ्वी पर ही देने का यदि भगवान को सूझे तो साढ़े पाँच अरब की आबादी वाली इस धरती पर निर्दोष लोग तो उंगलियों पर ही गिने जा सकेंगे। हालांकि इन पापों के बारे में लिखा-पढ़ा तो बहुत जाता है, लेकिन बारी जब उसपर अमल करने की आती है, तो अच्छे-अच्छों की नैया डूब जाती है।
३७) वैवाहिक जीवन के कुछ ही वर्ष बीतने के पश्चात् इंसान में सिर्फ फर्जअदायगी की बात क्यों जागृत हो जाती है? दरअसल, मनुष्य हमेशा परिवर्तन की तीव्र उत्कंठा रखता है। लेकिन वैवाहिक सम्बन्धों को इस प्रकार की उत्कंठा से दूर रखना ही हितकर होता है। जैसे दो हाथ, दो पैर, दो कान व दो आँखें आदि हमारे शरीर के अभिन्न अंग हैं, उसी प्रकार जीवनसाथी भी हमारे व्यक्तित्व का अभिन्न अंग होता है। सम्भव है, वर्षों साथ रहने के बाद “रुटीन’’ की भावना प्रेम को ओवरटेक कर जाए, लेकिन इस असमंजसता को आसानी से दूर किया जा सकता है। सम्बन्ध औपचारिक बनकर न रह जाए, इसके लिए प्रेम व समझदारी के द्वारा रिश्तों में सतत ताजगी का समावेश करते रहना चाहिए। समझौता करने के स्थान पर प्रेम को सतत चलकर पुनः प्राप्त करें। बॉथरूम में सहज रूप से रखा गया तौलिया भले दैनिकचर्या हो, लेकिन इस प्रकार जीवनसाथी को प्रत्येक क्षण प्रेम दिया और प्राप्त भी किया जा सकता है। सीधी-सी बात है, भावनाओं को जिस प्रकार विवाह के शुरुआती सालों में आप व्यक्त किया करते थे, उसी प्रकार एक-दो दशक बाद भी तो व्यक्त कर सकते हैं। चाहें तो मधुर-मधुर गाना गुनगुना भी सकते हैं, अभी तो मैं जवान हूँ...
३८) सर्वाधिक दयनीय प्राणी वह व्यक्ति है, जो पक्षियों और जीवों को गुलाम बनाकर खुश होता है। इस धरती के समस्त प्राणियों के भरण-पोषण का भार प्रकृति खुद अपने कंधों पर उठाये हुए है। चींटी को अन्न के एक कण के लिए या हाथी को मन भर की खुराक के लिए कुछ नहीं करना पड़ता। लेकिन इंसान को दो जून की रोटी के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। वृक्षों को अपने आहार के लिए मनुष्य की तरह नाइन टू फाइव अॉफिस में अपनी उपस्थिति नहीं दर्ज करानी पड़ती। मनुष्य वास्तव में गुलाम है अपने कर्मों, अपनी असीम अपेक्षाओं व महत्त्वाकांक्षाओं का। व्यक्ति यदि भौतिक सुखों के पीछे दौड़ना बन्द कर दे, तो उसकी नब्बे प्रतिशत समस्याओं का निवारण हो जाए। मस्तिष्क का यदि विस्तार नहीं होता और बुद्धि नामक बड़प्पन वाली चीज न होती, तो इंसान भी आज गुलाम नहीं होता। सच तो यह है कि आज हम बुद्धि होते हुए भी बुद्धिहीन हो गए हैं। हम स्वयं को द ग्रेट समझने लगे हैं। लेकिन जिस क्षण सृष्टि का चक्र हिसाब मांगेगा, तब इंसान की खैर नहीं है। प्रकृति के प्रिय बनने के लिए हमें अभी से ही इस सत्य को सीने से चिपकाकर जीना सीख लेना चाहिए।
३९) स्वतन्त्रता का सही अर्थ यदि हमने समझा होता तो हमारे देश की स्थिति कहीं बेहतर होती। हमारे लिए आजादी का अर्थ है, राजनेताओं को जी भरकर गालियाँ देना, ईमानदारी की बातें करना, आचरण में ठगी, बेफिक्र होकर जीना आदि। कलेजे पर हाथ रखकर अपनी अंतरात्मा से एक सवाल करें कि आज तक मैंने अपने देश के लिए क्या किया? साथ ही यह भी विचार करें कि यदि हमारा देश भी इरान या इराक जैसा सख्त होता, तो हमारा क्या हाल होता? दरअसल अनियंत्रित स्वतन्त्रता अमृत के बजाय विषतुल्य होती है। बहरहाल, आजादी के इक्यावन वर्षों में हम जो समझ विकसित नहीं कर पाये, उसे अब विकसित करना है। हमें ऐसा कुछ करना है, जिसका लाभ हमें भले ही न मिले, लेकिन आने वाली पीढ़ियाँ दुनिया के समक्ष अपना सिर गर्व से ऊँचा कर सके। भारतीय व्यक्ति को देखकर कोई विदेशी नाक-भौं न सिकोड़े, इतना परिवर्तन तो हमें लाना ही है। खुमारी से बड़ी कोई आजादी नहीं है। मेरा भारत महान बोलना तो बहुत आसान है, लेकिन देश की महानता में अपना योगदान दर्ज कराना बहुत कठिन है।
४०) मेहनत के बाद भी जब अपेक्षित फल प्राप्त नहीं होता, तो नसीब पर गुस्सा आना लाजिमी है। दुनिया का नियम वास्तव में विचित्र है। कुछ अयोग्य व्यक्तियों को हर कदम पर सुख-सुविधाएँ प्राप्त होती हैं तो कुछ लोग सुख-चैन के एक पल के लिए भी तरसते रहते हैं। कुदरत की इस अजीबो-गरीब हरकत को उचित किस तरह कहा जा सकता है? लेकिन यह सत्य भी किस प्रकार भुलाया जा सकता है कि इंसान के हाथ में कुदरत की चाल को बदलने की शक्ति नहीं है? मेहनत और उससे प्राप्त फल की तुलना करने की सबमें सदा से एक खराब आदत रही है। मैंने इतना-इतना किया और बदले में मुझे मुठ्ठी भर ही मिल पाया, इस प्रकार की ईर्ष्या करने पर अंत में स्वयं को दुःखी ही होना पड़ता है। दो सम्भावनाएँ हैं। एक तो यह कि आपमें योग्यता ही सामान्य हो तो आपको फल सामान्य ही मिलेगा और दूसरी सम्भावना यह है कि आपकी योग्यता आपके फल की तुलना में बहुत अधिक हो। नसीब में गोल-गोल घूमना हो तो घूमते तो रहना ही पड़ेगा। योग्यता के अनुपात में फल प्राप्त करने के लिए और तकदीर की चाल बदलने के लिए भाग्य के चक्र को घूमता हुआ ही रखें। किसे मालूम है कि किस शुभ घड़ी में आपकी बारी आ जाए और गोल-गोल घूम रही किस्मत सब प्रकार के विघ्नों को पार कर और रुकावटों की कीलों को तोड़कर दौड़ने लगे। तकदीर की गाड़ी चाहे गोल घूमती रहे, उसकी गति कम न करें, परिवर्तन आपकी बाट जोहते हुए कहीं खड़ा होकर प्रतीक्षा कर रहा है।
४१) सुन्दर चेहरे का मोह सभी को होता है। अन्यथा क्या वैसे ही इतने सब पाउडर, लिपस्टिक, फेसवॉश, साबुन और ऐसे ही दर्जनों प्रकार के सौंदर्य पदार्थों की विक्री होती है। यदि कोई यह कहे कि इस दुनिया में मैं सबसे अधिक प्रेम अपनी पत्नी या प्रेयसी को अथवा पति या प्रियतम को करता/करती हूँ, तो उसे सौ प्रतिशत झूठ ही समजे। प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वयं के रूप-रंग के प्रति-सर्वाधिक प्रेम होता है। दुनिया के किसी बौद्धिक ने आज तक मनुष्य की इस मानसिकता का गहन अध्ययन क्यों नहीं किया है? स्वयं के प्रति इतना ध्यान देने पर इंसान समग्र विश्व को क्यों भूल जाता है? रंगभेद या रक्तभेद की हमारी नीतियों के सम्बन्ध में पुनर्विचार करने का वक्त हमें सतत चेतावनी देता रहता है, लेकिन फिर भी इस बात को हम अधिक महत्त्व नहीं देते हैं। वैज्ञानिक प्रगति व विश्व के असाधारण विकास के पश्चात् भी मानव का संकुचित मन स्वस्थ रूप से विकसित हो सके, वह कार्य होना अभी शेष है। आज के युवा इस प्रगति को प्राप्त करने के लिए यदि निश्चय करें तो भविष्य में बहुत कुछ बदल सकता है। पहले के लोगों ने जो नीति-नियम बनाए थे, उसमें से श्रेष्ठ का वचन कर युवाओं को संकुचितता में सुधार लाते हुए समाज की काया पलट करने की अदम्य इच्छा रखने की खास जरूरत है। अब क्या होगा, इस प्रकार की व्यर्थ बातें करने के स्थान पर अब सबको क्या करना चाहिए, इस प्रकार की विचारोत्तेजक वातें होनी चाहिए। इस प्रकार की बातें करने के लिए आगे कौन आएगा? छोड़ो यार, अब और नया नेता कहाँ खड़ा करेंगे? चलो हम स्वयं ही नेतृत्व अपने हाथ में ले लेते हैं।
४२) कुछ बिगड़ जाए, तब किस्मत को व ईश्वर को दोष देने वाले बहुत मिल जाते हैं। सबको दे-देकर निहाल कर देने वाले ईश्वर ने मुझपर ही करुणादृष्टि क्यों नहीं डाली, इस प्रकार के विचित्र सवाल तब व्यक्ति के मन में बार-बार उभरते रहते हैं। तब क्या ईश्वर की करुणा में भी वास्तव में पक्षपात जैसा कुछ होता है? उत्तर है नहीं। ईश्वर कभी भी किसी पर भी नाराज नहीं होता है और न ही किसी के लिए कोई अलग या विशेष सॉफ्ट कॉर्नर होता है। हकीकत यह है कि हम सब एक अनोखी (दूसरों से भिन्न) तकदीर लेकर अवतरित होते हैं। इस तकदीर का तना-बाना तो हमारे कर्मों से ही निश्चित होता है। एक ही दिन एक हजार घरों में टेलीविजन सेट खरीदें जाते हैं और उनमें से मात्र कुछ प्रतिशत में ही टेलीविजन सेट बिना किसी परेशानी के चलते रहते हैं। ऐसा क्यों होता है? वस्तु तो ठीक है, लेकिन उसका उपयोग करने वाले यदि ठीक नहीं हो, तो फिर ऐसा ही होगा न...? तकदीर नामक साधन भी इतना ही सोफिस्टिकेटेड है। टेलीविजन सेट की जरूरत घर में होती है अच्छे दुरूस्त तकदीर की जरूरत जीवन में होती है। ईमानदारी व स्वच्छता से व्यवस्थित रूप से यदि जीने की तैयारी हो तो तकदीर से चोट खाने का मौका मुश्किल से ही कभी आएगा। आज की अपनी अच्छी-बुरी दशा के बीज भूतकाल में हमने ही कहीं बोए होंगे। ठीक है, लेकिन अब आगे क्या? भविष्य के तकदीर के बीज तो अभी बोने बाकी हैं। करुणा करने वाले को दोष क्यों दे रहे हो? आज से नेक रास्ते पर चलने का संकल्प लें। जिससे भविष्य में कभी ईश्वर से शिकायत करने की स्थिति निर्मित न हो।
४३) लोभ की कोई सीमा नहीं होती या उसका अंत नहीं होता, ऐसे कहने वाले को मानव मन के बारे में ठीक से समझ लेना चाहिए। जो स्वयं को सौ प्रतिशत संतुष्ट मानते हैं, ऐसे व्यक्ति भी जीवन में हजारों बार ईश्वर का स्मरण कर उनके सम्मुख छोटी-बड़ी मांगें प्रस्तुत करते रहते हैं। बस, इतना दे दे, फिर कुछ नहीं मांगूँगा, प्रभु। ऐसा कहकर हम ईश्वर को बार-बार ठगते रहते हैं। एक-दो इच्छा पूरी हुई और हम फिर ईश्वर के दरवाजे पर पठानी ब्याज की वसूली के लिए खड़े हो जाते हैं। हमारी समस्त इच्छाएँ मूल रूप से मन की उर्वर जमीन में जन्म लेती हैं। पृथ्वी के अन्य लाखों प्राणियों को ईश्वर ने मानव जैसा मन नहीं दिया, वह एक दृष्टि से अच्छा ही है, अन्यथा समस्त सृष्टि ही असंतुलित हो गई होती। विचार करने की शक्ति रखने वाले जीव इंसान ने सृष्टि की जो अवदशा अपने अकेले हाथों से की है, तब यदि चींटी, हाथी, वाघ, चिड़िया, साबर आदि को भी यदि मन होता तो सृष्टि की कैसी दुर्दशा होती। मनुष्य ने इस विचार करने की शक्ति का भयंकर रूप से नाजायज लाभ उठाया है। करुणा करने वाले से हम सदैव कुछ कुछ मांगते ही रहते हैं। कुछ देने के बारे में तो सोचते भी नहीं हैं। हमेशा ईश्वर के पास खाली कटोरा लेकर पहुँच जाते हैं, उसकी अपेक्षा यदि हम उनसे ऐसा मन मांगे, जो उनसे किसी प्रकार की मांग नहीं करें, तब क्या हो? बाय द वे, इस मांग का सरल अर्थ यही है न कि मन पर नियंत्रण होना चाहिए? चलो लालच पर विराम लगाकर प्रयत्न करें कि जीवन व्यवहार की गाड़ी सरल व सहज गति में दौड़ती रहे।
४४) बच्चों के लिए स्कूल में नये वर्ष के प्रारम्भिक दिन कुछ ऊब लिए होते हैं। लम्बी छुट्टियों में जी भर मौज मनाने के पश्चात् बालकों को पुस्तकों के ढेर और विषयों के भवर में घिरने की इच्छा न हो यह पूरी तरह सहज है। नया बैट्समैन जब बैटिंग करने के लिए मैदान पर आता है, तब सेट होने के लिए कुछ गेंद वह धीरे-धीरे ही खेलता है, उसी प्रकार बच्चे भी स्कूल के शुरुआती दिनों में ऊब अनुभव करते हैं। बाद में बैट्समैन की तरह बच्चे भी सेट हो जाते हैं। किसी भी शैक्षणिक वर्ष में बालकों को उनके माता-पिता से दो स्तरों पर विशेष ध्यान मिलना चाहिए। प्रथम तो नये शैक्षणिक वर्ष के शुरु होने के प्रारम्भिक दिनों में और उसके पश्चात् वार्षिक परीक्षा के समय। अपना बालक नयी कक्षा में, नये वातावरण में, नये मित्र-समूह में किस प्रकार की इच्छाएँ रखता है, इसका प्रत्येक माता-पिता को ध्यान रखना चाहिए। इस दुनिया में शिक्षण से अधिक बेहतर कुछ भी नहीं है और व्यक्ति के विकास में उसकी शाला के शिक्षकों का योगदान सर्वाधिक होता है। विनोबा भावे का मानना था कि सफल शिक्षण ही सफल जीवन की बुनियाद होती है। अपनी शैक्षणिक प्रवृत्तियों के दौरान बालक जब नयी कक्षा में प्रवेश करे, तब उसके मन में उत्पन्न होने वाली शंकाओं, असमंजसताओं व अड़चनों को दूर कर उसे नये वातावरण में सुन्दर ढंग से स्थापित करने का काम उनके माता-पिता ही कर सकते हैं। बालक के स्कूल की शुल्क तो सभी माता-पिता जमा कर देते हैं, लेकिन जो पालक बालक के मित्र बनकर उनके साथ उनकी बातों में भी हिस्सेदारी करे, वही सच्चे माता-पिता हैं।
४५) हर इंसान इच्छाओं का एवरेस्ट लेकर जीता है। रुपया, बंगला, गाड़ी, सोना-चाँदी सब कुछ चाहिए। सपने होने चाहिए आँखों में, जीवन में। जो व्यक्ति सपने नहीं देखता है, वह कभी भी सपनों का साकार करने का प्रयत्न नहीं करता है। लेकिन सपने देखने के बाद उनकी पूर्ति के लिए भी वैसे भी सभी लोग कहाँ प्रयत्न करते हैं। इच्छाओं की नाव का होना और उस नाव को कोशिशों के जल में दौड़ाकर मंजिल तक पहुँचाना दोनों अलग-अलग मुद्दे हैं। शायर ने ऊपर की पंक्तियों में बताया है कि इच्छाओं की नाव होने के बावजूद आँख के सामने तो खाली तालाब ही है। ऐसे खाली तालाब वाली निराशाओं से घिर जाना व्यवहारिक जीवन में असहनीय है। इन पंक्तियों के आगे शायर ने जो कहा है, उसका अर्थ है - “बताओ इस कछुएपन का अब क्या होगा? तेज हवाएँ चारों ओर से चल रही हैं।’’ पूरी दुनिया तेज गति से दौड़ रही है। आपको ही दुनिया के साथ ताल से ताल मिलाना है। खाली तालाब जैसी स्थिति हो तब भी लड़ना है और इच्छाओं की नाव को दौड़ाना है। याद रखें, प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में सफल होने के लिए पर्याप्त अवसर मिलते हैं। बहुत कम लोग अपने अवसरों को उनकी मंजिल तक या अंजाम तक पहुँचा पाते हैं। आपको भी इन कुछ भाग्यशाली व्यक्तियों की सूची में अपनी मेहनत व कोशिशों से अपना नाम दर्ज करवाना है।
४६) जिसने गुब्बारे का आविष्कार किया है, उस व्यक्ति ने इसकी प्रेरणा निश्चित रूप से इंसान के स्वभाव से ही ली होगी। कोई छोटी सफलता मिले या चापलूसी के बल पर किस्मत से कोई काम यदि पूरा हो जाए तो वही हमें गदगद करने के लिए पर्याप्त है। जिंदगी में कितनी बार घोटाले हो गए, कितनी बार ढीले पड़ यह याद रखना कोई भी पसंद नहीं करता है। गाँधीजी की आत्मकथा को सत्रह बार पढ़ने वाले व्यक्ति के मन में स्वयं के असत्य के प्रयोगों को करने का साहस नहीं जुटा पाता है। फूल जान या डींगे हाँकना ये रूढ़ि प्रयोग हम दूसरों पर थोप सकते हैं, लेकिन स्वयं की जाँच करना हमें पसंद नहीं है। कीचड़ से छलाछल भरे तालाब में कौन डुबकी लगाना पसंद करेगा? जो लोग तुम्हारी खुशामद करने से ही फारिग नहीं हो पाते, वे लोग तुम्हारा हित नहीं चाहते हैं। खुशामद व निष्कपट अभिप्राय के बीच जो भेद है, उस भेद को पहचानने की शक्ति विकसित करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। तेजाब फिल्म में गुलस्ता चाय वाले (अनु कपूर) को बहला-फुसलाकर मुफ्त में चाय पीने व बिस्किट खाने वाले पात्रों के बारे में आप जानते हैं? आप स्वयं को इस विषचक्र में से बाहर आने का कार्य करना है। आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, मानसिक और ऐसे ही मोर्चों पर उत्पन्न मिसमैच को दूर करने के लिए फूलणजी को हमें अंदर से ही निष्कासित करना है।
४७) जो काम हाथ में लिया है, उसे पूरा करने के लिए यदि हम एकाग्रता नहीं दर्शाते हैं, तो हमारा काम व्यवस्थित रूप से पूरा नहीं हो सकेगा। कई व्यक्तियों के अपने स्वानुभव होते हैं कि उनके काम पूरे नहीं हो पाते हैं। ऐसे लोगों के लिए यह एक प्रेरणाप्रद प्रसंग है, एक व्यक्ति मछली पकड़ रहा था। दत्तात्रय अवधूत ने उससे पूछा - “गाँव की ओर जाने वाला रास्ता कौन-सा है?’’ ठीक उसी समय उस मछुआरे के काँटे में मछली फंसने ही वाली थी। उसने अवधूत को कोई जवाब नहीं दिया और अपना समग्र ध्यान मछली को फंसाने पर ही केन्द्रित रखा। जैसे ही मछली काँटे में फंस गई, वैसे ही मानो वह तंद्रा में से जागा, उसने अवधूतजी से पूछा - “आप कुछ कह रहे थे?’’ अवधूतजी तो उन कुछ उपेक्षा के क्षणों से चकित हो गए। उन्होंने उस व्यक्ति से कहा - “भाई, तुम तो मेरे गुरु हो। अपनी एकाग्रता से तुमने मेरी आँखें खोल दी है। अब मैं जब परमात्मा के ध्यान में बैठूँगा, तब तक अन्य किसी काम में अपने चित्त को नहीं लगाऊँगा, जब तक कि मेरी साधना पूरी नहीं हो जाती है।’’ अपने कामों में व अपने कर्तव्यों में जब तक इस प्रकार की एकाग्रता नहीं आती है, तब तक हमें श्रेष्ठ परिणाम की अपेक्षा रखने का कोई अधिकार नहीं है। अपने काम अपेक्षित ढंग से पूरे हों, उसके लिए मछली पकड़ने वाले व्यक्ति से प्राप्त एकाग्रता की सीख को ध्यान में रखना है।
४८) घर में लगी दीवार-घड़ी या हाथ पर बंधी कलाई-घड़ी कभी बन्द भी पड़ सकती है, लेकिन प्रकृति की घड़ी की चाल कभी भी बन्द नहीं पड़ती है। समय एक समान चलता रहता है, लेकिन एक समान समय नसीब में किसी को मिलता नहीं है। जिंदगी सुन्दर अवसर जैसी लगे, ऐसी स्थिति जिंदगी में बहुत कम आता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हे कि सिर पर हाथ रखकर बैठे रहें और जीवन का आनन्द ही न लें। यह सही है कि खुशी के व आनन्द के दौर जिंदगी के मीठे फल होते हैं, लेकिन ये फल कब उगते हैं? जब तक मिट्टी में पौधा नहीं रोपेंगे, पौधे को पानी नहीं देंगे और उसकी जतन करने की तकलीफ सहन नहीं करेंगे, तब तक पौधे पर फल नहीं आएंगे। दुःख व सुख का आना-जाना जीवन की एक सहज प्रक्रिया है और इसमें सब अनुकूल चल रहा हो, उसके पश्चात् एकाएक यदि विकट समय आ जाए तो, तब अच्छे-अच्छे चौड़ी छाती वाले भी आघात अनुभव करते हैं। ऐसे आघात में से जो व्यक्ति जल्दी से जल्दी बाहर आ जाता है, वह निश्चित ही समझदार होता है। शेष लोग अपना जीव चिन्तानगरी में रखते हैं। चिन्ता को अपने दिमाग पर छा जाने की छूट क्यों दे देते हो? नौका डुबो देने की विपरीत मति वाले समुद्र के जैसी जिंदगी के साथ यदि लड़ना हो तो आजीवन लड़ाकू बने रहें। समुद्र में व जीवन में एक फर्क है। समुद्र कभी-कभी आक्रामक होता है और जीवन कभी कभी रीझता है और जो यह राह देखता है कि जीवन तब रीझे, उसे ही मीठे फल चखने को मिलते हैं।
४९) यदि हम पच्चीस से लेकर पचास तक के वर्षों को विस्तार से गौर करें तो हम पाएंगे न जाने कितने ही कहे जाने वाले मित्रों को हमने अपना सर्वस्व मानने की भूल की थी। अच्छे और सच्चे मित्र तथा कहे जाने वाले मित्र में गंगाजल और सादे पानी जितना अंतर होता है। सादे पानी से पंद्रह-बीस दिनों में दुर्गंध आने लगती है, जबकि गंगाजल को वर्षों तक संग्रहित किया जा सकता है। वैसे दिखने में दोनों जल एक जैसे दिखाई देते हैं। तो फिर अच्छे मित्र की क्या पहचान है? एक-दो व्यक्ति के साथ मित्रता हो जाए, फिर कुछ समय तक मित्रता जारी रहने के पश्चात् स्वमूल्यांकन करना चाहिए। सादे पानी से जिस प्रकार कुछ समय के बाद दुर्गंध आने लगती है, उसी प्रकार खराब मित्र के प्रति कुछ समय के पश्चात्, उसमें भी कुछ कमी व अधूरेपन की भावना की सम्भावना होने लगती है। मित्रता में यदि अपनेपन की भावना नहीं पनपे तो समय पर सावधान हो जाएँ और हाँ मित्रता की गाड़ी को घसीटा नहीं जा सकता और न ही उसे घसीटा जाना चाहिए और साथ ही हमदर्द मित्र की मित्रता का पूरी उम्र जतन करें, गंगाजल की तरह।
५०) कम से कम पिछली दो सदियों से यह स्थिति है। सम्बन्धित समय में जी रहे लोगों ने अपने समय के समाज को, सामाजिक व्यवस्था को व रीति-रिवाजों को गालियाँ दी हैं। प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा लगा है कि समाज की समस्त बुराइयाँ अब असीम हो गई हैं। यह मान सकते हैं कि प्रत्येक दिन के पूरा होने के बाद कलियुग ने थोड़े और खराब रंग बिखेरे होंगे। परन्तु इन बुराइयों की आलोचना करने से मेरा या आपका फर्ज पूरा नहीं हो जाता है। यह इसलिए होता है कि हम सब मात्र वर्तमान में ही जीते हैं। न तो भूतकाल से कोई सीख लेने की हमारी इच्छा होती है और न ही भविष्य के लिए कुछ करने की तमन्ना होती है। पूरी तरह स्वार्थ से भरे हम पामर लोग अपनी इस जड़ बुद्धि से समाज को गाली ही देते रहे हैं। बाय द वे। यह समाज है क्या? यह समाज कैसे व कहाँ से बना है? सत्य का यह चेहरा आप ठीक से समझ सकेंगे। आपको इतना खराब विश्व मिला, इस प्रकार की छाती पीटना बन्द करो। सही दिशा में विचार करने वाला समाज सही भविष्य की ओर आगे बढ़ सकेगा और हम सबको सिद्ध करना है कि हम सब सही दिशा के मुसाफिर हैं।