Bigo in Hindi Short Stories by Saadat Hasan Manto books and stories PDF | बीगो

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बीगो

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तसल्लीयां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई मैं आप के अख़्लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप कैसे कह रहे हैं कि मैं दिक़ का मरीज़ नहीं। क्या मैं हर रोज़ ख़ून नहीं थूकता? आप यही कहेंगे कि मेरे गले और दाँतों की ख़राबी का नतीजा है मगर मैं सब कुछ जानता हूँ। मेरे दोनों फेफड़े ख़ाना-ए-ज़ंबूर की तरह मुशब्बक हो चुके हैं। आप के इंजैक्शन मुझे दुबारा ज़िंदगी नहीं बख़्श सकते। देखिए मैं इस वक़्त आप से बातें कर रहा हूँ। मगर सीने पर एक वज़नी इंजन दौड़ता हुआ महसूस कर रहा हूँ। मालूम होता है कि मैं एक तारीक गढ़े में उतर रहा हूँ........ क़ब्र भी तो एक तारीक गढ़ा है। आप मेरी तरफ़ इस तरह न देखिए डाक्टर साहब, मुझे इस चीज़ का कामिल एहसास है कि आप अपने हस्पताल में किसी मरीज़ का मरना पसंद नहीं करते मगर जो चीज़ अटल है वो होके रहेगी। आप ऐसा कीजिए कि मुझे यहां से रुख़स्त कर दीजिए। मेरी टांगों में तीन चार मेल चलने की क़ुव्वत अभी बाक़ी है किसी क़रीब के गांव में चला जाऊंगा। और........ मगर मैं तो रो रहा हूँ। नहीं नहीं। डाक्टर साहब यक़ीन कीजिए। मैं मौत से ख़ाइफ़ नहीं। ये मेरे जज़्बात हैं, जो आँसूओं की शक्ल में बाहर निकल रहे हैं। आह! आप क्या जानें। इस मदक़ूक़ के सीने से क्या कुछ बाहर निकलने को मचल रहा है। मैं अपने अंजाम से बा-ख़बर हूँ। आज से पाँच बरस पहले भी मैं इस वहशत नाक अंजाम से बा-ख़बर था। जानता था। और अच्छी तरह जानता था कि कुछ अर्सा के बाद मेरी ज़िंदगी की दौड़ ख़त्म हो जाएगी। मैंने उस गेंद को जिसे आप ज़िंदगी के नाम से पुकारते हैं, ख़ुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार कर काटा है। इस में किसी का कोई क़ुसूर नहीं। वाक़िया ये है कि मैं इस खेल में लज़्ज़त महसूस कर रहा हूँ। लज़्ज़त........ हाँ लज़्ज़त........ मैंने अपनी ज़िंदगी की कई रातें हुस्नफ़रोश औरतों के तारीक अड्डों पर गुज़ारी हैं। शराब के नशे में चूर मैं ने किस बेदर्दी से ख़ुद को इस हालत में पहुंचाया। मुझे याद है, उन्ही अड्डों की स्याह पेशा औरत........ क्या नाम था उस का?........ हाँ गुलज़ार, मुझे इस बुरी तरह अपनी जवानी को कीचड़ में लत-पत करते देख कर मुझ से हमदर्दी करने लग गई थी। बेवक़ूफ़ औरत, उस को क्या बताता कि मैं इस कीचड़ में किस का अक्स देखने की कोशिश कर रहा था। मुझे गुलज़ार और उस की दीगर हमपेशा औरतों से नफ़रत थी और अब भी है लेकिन क्या आप मरीज़ों को ज़हर नहीं खिलाते अगर उस से अच्छे नताइज की उम्मीद हो। मेरे दर्द की दवा ही तारीक ज़िंदगी थी। मैंने बड़ी कोशिश और मुसीबतों के बाद इस अंजाम को बुलाया है जिस की कुछ रोइदाद आप ने मेरे सिरहाने एक तख़्ती पर लिख कर लटका रखी है। मैंने इस के इंतिज़ार में एक एक घड़ी किस बेताबी से काटी है, आह! कुछ न पूछिए! लेकिन अब मुझे दिली तसकीन हासिल हो चुकी है। मेरी ज़िंदगी का मक़सद पूरा होगया। मैं दिक और सिल का मरीज़ हूँ इस मर्ज़ ने मुझे खोखला कर दिया है........ आप हक़ीक़त का इज़हार क्यों नहीं कर देते। बख़ुदा इस से मुझे और तसकीन हासिल होगी। मेरा आख़िरी सांस आराम से निकलेगा........ हाँ डाक्टर साहब ये तो बताईए, किया आख़िरी लम्हात वाक़ई तकलीफ़देह होते हैं? मैं चाहता हूँ मेरी जान आराम से निकले। आज में वाक़ई बच्चों की सी बातें कर रहा हूँ। आप अपने दिल में यक़ीनन मुस्कुराते होंगे कि मैं आज मामूल से बहुत ज़्यादा बातूनी होगया हूँ........ दिया जब बुझने के क़रीब होता है तो उस की रोशनी तेज़ हो जाया करती है। क्या मैं झूट कह रहा हूँ?........ आप तो बोलते ही नहीं और मैं हूँ कि बोले जा रहा हूँ। हाँ हाँ। बैठिए मेरा जी चाहता है। आज किसी से बातें किए जाऊं। आप न आते तो ख़ुदा मालूम मेरी क्या हालत होती........ आप का सफ़ैद सूट आँखों को किस क़दर भला मालूम हो रहा है। कफ़न भी इसी तरह साफ़ सुथरा होता है फिर आप मेरी तरफ़ इस तरह क्यों देख रहे हैं। आप को क्या मालूम कि मैं मरने के लिए किस क़दर बेताब हूँ। अगर मरने वालों को कफ़न ख़ुद पहनना हो तो आप देखते मैं उस को कितनी जल्दी अपने गिर्द लपेट लेता। मैं कुछ अर्सा और ज़िंदा रह कर क्या करूंगा? जब कि वो मर चुकी है। मेरा ज़िंदा रहना फ़ुज़ूल है। मैंने इस मौत को बहुत मुश्किलों के बाद अपनी तरफ़ आमादा किया है और अब मैं इस मौक़ा को हाथ से जाने नहीं दे सकता। वो मर चुकी है और अब मैं भी मर रहा हूँ। मैंने अपनी संगदिली........ वो मुझे संगदिल के नाम से पुकारा करती थी, की क़ीमत अदा करदी है। और ख़ुदा गवाह है कि उस का कोई भी सिक्का खोटा नहीं। मैं पाँच साल तक उन को परखता रहा हूँ, मेरी उम्र इस वक़्त पच्चीस बरस की है। आज से ठीक सात बरस पहले मेरी उस से मुलाक़ात हुई थी। आह इन सात बरसों की रोइदाद कितनी हैरतअफ़्ज़ा है अगर कोई शख़्स उस की तफ़सील काग़ज़ों पर फैला दे तो इंसानी दिलों की दास्तानों में कैसा दिलचस्प इज़ाफ़ा हो। दुनिया एक ऐसे दिल की धड़कन से आश्ना होगी। जिस ने अपनी ग़लती की क़ीमत ख़ून की उन थोकों में अदा की है। जिन्हें आप हर रोज़ जलाते रहते हैं कि उन के जरासीम दूसरों तक न पहुंचें........ आप मेरी बकवास सुनते सुनते क्या तंग तो नहीं आगए। ख़ुदा मालूम क्या क्या कुछ बकता रहूं। तकल्लुफ़ से काम न लीजिए, आप वाक़ई कुछ नहीं समझ सकते, मैं ख़ुद नहीं समझ सका। सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि बटोत से वापस आकर मेरे दिल-ओ-दिमाग़ का हर जोड़ हिल गया था। अब यानी आज जब कि मेरे जुनून का दौरा ख़त्म हो चुका है और मौत को चंद क़दम के फ़ासले पर देख रहा हूँ। मुझे यूं महसूस होता कि वो वज़न जो मेरी छाती को दाबे हुए था हल्का होगया है और मैं फिर ज़िंदा हो रहा हूँ। मौत में ज़िंदगी........ कैसी दिलचस्प चीज़ है! आज मेरे ज़ेहन से धुंद के तमाम बादल उठ गए हैं मैं हर चीज़ को रोशनी में देख रहा हूँ। सात बरस पहले के तमाम वाक़ियात इस वक़्त मेरी नज़रों के सामने हैं। देखिए........ मैं लाहौर से गर्मियां गुज़ारने के लिए कश्मीर की तैय्यारियां कर रहा हूँ। सूट सिलवाए जा रहे हैं। बूट डिब्बों में बंद किए जा रहे हैं। होल्ड राल और ट्रंक कपड़ों से परे किए जा रहे हैं। मैं रात की गाड़ी से जम्मू रवाना होता हूँ। शमीम मेरे साथ है। गाड़ी के डिब्बे में बैठ कर हम अर्सा तक बातें करते रहते हैं। गाड़ी चलती है। शमीम चला जाता है। मैं सौ जाता हूँ। दिमाग़ हर क़िस्म के फ़िक्र से आज़ाद है। सुबह जम्मू की स्टेशन पर जागता हूँ। कश्मीर की हसीन वादी की होने वाली सैर के ख़यालात में मगन लारी पर सवार होता हूँ। बटोत से एक मील के फ़ासले पर लारी का पहिया पंक्चर हो जाता है। शाम का वक़्त है इस लिए रात बटोत के होटल में काटनी पड़ती है । इस होटल का कमरा बेहद ग़लीज़ मालूम होता है मगर क्या मालूम था कि मुझे वहां पूरे दो महीने रहना पड़ेगा। सुबह सवेरे उठता हूँ तो मालूम होता है कि लारी के इंजन का एक पुर्ज़ा भी ख़राब होगया है। इस लिए मजबूरन एक दिन और बटोत में ठहरना पड़ेगा। ये सुन कर मेरी तबीयत किस क़दर अफ़्सुर्दा होगई थी! इस अफ़्सुर्दगी को दूर करने के लिए मैं...... मैं उस रोज़ शाम को सैर के लिए निकलता हूँ। चीड़ के दरख़्तों का तनफ़्फ़ुस, जंगली परिन्दों की नग़्मा सराईआं सेब के लदे हुए दरख़्तों का हुस्न और ग़ुरूब होते हुए सूरज का दिलकश समां, लारी वाले की बे-एहतियाती और रंग में भंग डालने वाली तक़दीर की गुस्ताख़ी का रंज अफ़्ज़ा ख़याल मह्व करदेता है। मैं नेचर के मसर्रत अफ़्ज़ा मनाज़िर से लुत्फ़ अंदोज़ होता सड़क के एक मोड़ पर पहुंचता हूँ........ दफ़अतन मेरी निगाहें उस से दो चार होती हैं। बेगू मुझ से बीस क़दम के फ़ासले पर अपनी भैंस के साथ खड़ी है........ जिस दास्तान का अंजाम इस वक़्त आप के पेशे नज़र है। उस का आग़ाज़ यहीं से होता है।

वो जवान थी। उस की जवानी पर बटोत की फ़िज़ा पूरी शिद्दत के साथ जलवागर थी। सब्ज़ लिबास में मल्बूस वो सड़क के दरमियान मकई का एक दराज़क़द बूटा मालूम हो रही थी चेहरे के ताँबे ऐसे ताबां रंग पर उस की आँखों की चमक ने एक अजीब कैफ़ीयत पैदा करदी थी। जो चश्मे के पानी की तरफ़ साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ थीं..... मैं उस को कितना अर्सा देखता रहा। ये मुझे मालूम नहीं। लेकिन इतना याद है कि मैंने दफ़अतन अपना सीना मोसीक़ी से लबरेज़ पाया। और फिर मैं मुस्कुरा दिया। उस की बहकी हुई निगाहों की तवज्जोह भैंस से हट कर मेरे तबस्सुम से टकराई। मैं घबरा गया। उस ने एक तेज़ तजस्सुस से मेरी तरफ़ देखा। जैसे वो किसी भूले हुए ख़्वाब को याद कर रही है। फिर उस ने अपनी छड़ी को दाँतों में दबा कर कुछ सोचा और मुस्कुरा दी, इस का सीना चश्मे के पानी की तरह धड़क रहा था। मेरा दिल भी मेरे पहलू में अंगड़ाईआं ले रहा था..... और ये पहली मुलाक़ात किस क़दर लज़ीज़ थी। इस का ज़ायक़ा अभी मेरे जिस्म की हर रग में मौजूद है...... वो चली गई..... मैं उस को आँखों से ओझल होते देखता रहा। वो इस अंदाज़ से चल रही थी जैसे कुछ याद कर रही है। कुछ याद करती है मगर फिर भूल जाती है। उस ने जाते हुए पाँच छः मर्तबा मेरी तरफ़ मुड़ कर देखा। लेकिन फ़ौरन सर फेर लिया। जब वो अपने घर में दाख़िल होगई जो सड़क के नीचे मकई के छोटे से खेत के साथ बना हुआ था। मैं अपनी तरफ़ मुतवज्जोह हुआ मैं उस की मोहब्बत में गिरफ़्तार हो चुका था। इस एहसास ने मुझे सख़्त मुतहय्यर किया। मेरी उम्र उस वक़्त अठारह साल की थी। कॉलेज में अपने हम-जमाअत तलबा की ज़बानी मैं मोहब्बत के मुतअल्लिक़ बहुत कुछ सुन चुका था। इश्क़िया दास्तानें भी अक्सर मेरे ज़ेर मुताला रही थीं। मगर मोहब्बत के हक़ीक़ी मआनी मेरी नज़रों से पोशीदा थे। उस के जाने के बाद जब मैंने एक नाक़ाबिल-ए-बयान तल्ख़ी अपने दिल की धड़कनों में हल होती हुई महसूस की तो मैंने ख़आल किया शायद इसी का नाम मोहब्बत है........ ये मोहब्बत ही थी..... औरत से मोहब्बत करने का पहला मक़सद ये होता है कि वो मर्द की हो जाये यानी वो उस से शादी करले और आराम से अपनी बक़ाया ज़िंदगी गुज़ार दे। शादी के बाद ये मोहब्बत करवट बदलती है। फिर मर्द अपनी महबूबा के काँधों पर एक घर तामीर करता है। मैंने जब बेगू से अपने दिल को वाबस्ता होते महसूस किया तो फ़ितरी तौर पर मेरे दिल में उस रफीक़ा-ए-हयात का ख़याल पैदा हुआ जिस के मुतअल्लिक़ मैं अपने कमरे की चार दीवारी में कई ख़्वाब देख चुका था। इस ख़याल के आते ही मेरे दिल से ये सदा उठी। देखो सईद ये लड़की ही तुम्हारे ख़्वाबों की परी है। चुनांचे मैं तमाम वाक़े पर ग़ौर करता हुआ होटल वापस आया और एक माह के लिए होटल का वो कमरा किराए पर उठा लिया जो मुझे बेहद ग़लीज़ महसूस हुआ था। मुझे अच्छी तरह याद है कि होटल का मालिक मेरे इस इरादे को सुन कर बहुत मुतहय्यर हुआ था।

इस लिए कि मैं सुबह उस की ग़लाज़त पसंदी पर एक तवील लैक्चर दे चुका था। दास्तान कितनी तवील होती जा रही है। मगर मुझे मालूम है कि आप उसे ग़ौर से सुन रहे हैं........ हाँ हाँ आप सिगरेट सुलगा सकते हैं। मेरे गले में आज खांसी के आसार महसूस नहीं होते। आप की डिबिया देख कर मेरे ज़ेहन में एक और वाक़िया की याद ताज़ा होगई है। बेगू भी सिगरेट पिया करती थी मैंने कई बार उसे गोल्ड फ्लेक की डिबियां ला करदी थीं। वो बड़े शौक़ से उन को मुँह में दबा कर धोंएँ के बादल उड़ाया करती थीं। धूवां........! मैं उस नीले नीले धूएं को अब भी देख रहा हूँ जो उस के गीले होंटों पर रक़्स किया करता था..... हाँ तो दूसरे रोज़ मैं शाम को उसी वक़्त इधर सैर को गया। जहां मुझे वो सड़क पर मिली थी। देर तक सड़क के एक किनारे पत्थरों की दीवार पर बैठा रहा मगर वो नज़र न आई..... उठा और टहलता टहलता आगे निकल गया। सड़क के दाएं हाथ ढलवान थी। जिस पर चीड़ के दरख़्त उगे हुए थे। बाएं हाथ बड़े बड़े पत्थरों के कटे फटे सर उभर रहे थे। उन पर जमी हुई मिट्टी के ढेलों में घास उगी हुई थी। हवा ठंडी और तेज़ थी। चीड़ के तागा नुमा पत्तों की सरसराहट कानों को बहुत भली मालूम होती थी। जब मोड़ मुड़ा तो दफ़अतन मेरी निगाहें सामने उठीं मुझ से सौ क़दम के फ़ासले पर वो अपनी भैंस को एक संगीन हौज़ से पानी पिला रही थी। मैं क़रीब पहुंचा मगर उस को नज़र भर के देखने की जुर्रत न कर सका। और आगे निकल गया और जब वापस मुड़ा तो वो घर जा चुकी थी। अब हर रोज़ उस तरफ़ सैर को जाना मेरा मामूल होगया मगर बीस रोज़ तक मैं उस से मुलाक़ात न कर सका। मैंने कई बार बाओली पर पानी पीते वक़्त इस से हम-कलाम होने का इरादा किया। मगर ज़बान गुंग होगई। कुछ बोल न सका। क़रीबन हर रोज़ मैं उस को देखता। मगर रात को जब मैं तसव्वुर में उस की शक्ल देखना चाहता। तो एक धंदसी छा जाती। ये अजीब बात है कि मैं उस की शक्ल को इस के बावजूद कि उसे हर रोज़ देखता था भूल जाता था। बीस दिनों के बाद एक रोज़ चार बजे के क़रीब जब कि मैं एक बाओली के ऊपर चीड़ के साय में लेटा था। वो ख़ुर्द साल लड़के को लेकर ऊपर चढ़ी। उस को अपनी तरफ़ आता देख कर मैं सख़्त घबरा गया। दिल में यही आया कि वहां से भाग जाऊं लेकिन इस की सकत भी न रही। वो मेरी तरफ़ देखे बग़ैर आगे निकल गई। चूँकि उस के क़दम तेज़ थे। इस लिए लड़का पीछे रह गया। मैं उठ कर बैठ गया। उस की पीठ मेरी तरफ़ थी। दफ़अतन लड़के ने एक चीख़ मारी और चश्म-ए-ज़दन में चीड़ के ख़ुश्क पत्तों पर से फिसल कर नीचे आरहा। मैं फ़ौरन उठा और भाग कर उसे अपने बाज़ूओं में थाम लिया। चीख़ सुन कर वो मुड़ी और दौड़ने के लिए बढ़े हुए क़दम रोक कर आहिस्ता आहिस्ता मेरी तरफ़ आई। अपनी जवान आँखों से मुझे देखा और लड़के से ये कहा। “ख़ुदा जाने तुम क्यों गिर पड़ते हो?”

मैंने गुफ़्तगु शुरू करने का एक मौक़ा पा कर उस से कहा। “बच्चा है इस की उंगली पकड़ लीजिए। इन पत्तों ने ख़ुद मुझे कई बार औंधे मुँह गिरा दिया है।”

ये सुन कर वो खिखिला कर हंस पड़ी। “आप के हैट ने तो ख़ूब लुढ़कनियां खाई होंगी।”

“आप हंसती क्यों हैं? किसी को गिरते देख कर आप की तबीयत इतनी शाद क्यों होती है और जो किसी रोज़ आप गिर पड़ें तो........ वो घड़ा जो हर रोज़ शाम के वक़्त आप घर ले जाती है किस बुरी तरह ज़मीन पर गिर कर टुकड़े टुकड़े हो जाएगा।”

“मैं नहीं गिर सकती........ ” ये कहते हुए उस ने दफ़अतन नीचे बाओली की तरफ़ देखा। उस की भैंस नाले पर बंधे हुए पुल की तरफ़ ख़रामां ख़रामां जा रही थी ये देख कर उस ने अपने हलक़ से एक अजीब क़िस्म की आवाज़ निकाली। उस की गूंज अभी तक मेरे कानों में महफ़ूज़ है। किस क़दर जवान थी ये आवाज़। उस ने बढ़ कर लड़के को कांधे पर उठा लिया। और भैंस को “ए छलां, ए छलां” के नाम से पुकारती हुई चशम-ए-ज़दन में नीचे उतर गई। भैंस को वापस मोड़ कर उस ने मेरी तरफ़ देखा और घर को चल दी........ इस मुलाक़ात के बाद उस से हम-कलाम होने की झिझक दूर होगई। हर रोज़ शाम के वक़्त बाओली पर या चीड़ के दरख़्तों तले मैं उस से कोई न कोई बात शुरू कर देता। शुरू शुरू में हमारी गुफ़्तुगू का मौज़ू भैंस था।

फिर मैं ने उस से उस का नाम दरयाफ़्त किया और उस ने मेरा। इस के बाद गुफ़्तुगू का रुख़ असल मतलब की तरफ़ आगया। एक रोज़ दोपहर के वक़्त जब वो नाले में एक बड़े से पत्थर पर बैठी अपने कपड़े धो रही थी। मैं उस के पास बैठ गया। मुझे किसी ख़ास बात का इज़हार करने पर तैय्यार देख कर उस ने जंगली बिल्ली की तरह मेरी तरफ़ घूर कर देखा। और ज़ोर ज़ोर से अपनी शलवार को पत्थर पर झटकते हुए कहा। “आप कश्मीर कब जा रहे हैं। यहां बटोत में किया धरा है जो आप यहां ठहरे हुए हैं।”

ये सुन कर मैंने मुस्तफ़सिराना निगाहों से उस की तरफ़ देखा। गोया मैं उस के सवाल का जवाब ख़ुद उस की ज़बान से चाहता हूँ। उस ने निगाहें नीची करलीं और मुस्कुराते हुए कहा। “आप सैर करने के लिए आए हैं। मैंने सुना है कश्मीर में बहुत से बाग़ हैं। आप वहां क्यों नहीं चले जाते?”

मौक़ा अच्छा था। चुनांचे मैंने दिल के तमाम दरवाज़े खोल दिए। वो मेरे जज़्बात के बहते हुए धारे का शोर ख़ामोशी से सुनती रही। मेरी आवाज़ नाले के पानी की गुनगुनाहट में जो नन्हे नन्हे संगरेज़ों से खेलता हुआ बह रहा था डूब डूब कर उभर रही थी। हमारे सुरों के ऊपर अखरोट के घने दरख़्त में चिड़ियां चहचहा रही थीं। हवा इस क़दर तर-ओ-ताज़ा और लतीफ़ थी कि उस का हर झोंका बदन पर एक ख़ुश-गवार कपकपी तारी करदेता था। मैं उस से पूरा एक घंटा गुफ़्तुगू करता रहा उस से साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया कि मैं तुम से मोहब्बत करता हूँ और शादी का ख़्वाहिशमंद हूँ ये सुन कर वह बिलकुल मुतहय्यर न हुई। लेकिन उस की निगाहें जो दूर पहाड़ियों की स्याही और आसमान की नीलाहट को आपस में मिलता हुआ देख रही थीं इस बात की मज़हर थीं कि वो किसी गहरे ख़याल में मुसतग़रक़ है। कुछ अर्सा ख़ामोश रहने के बाद उस ने मेरे इसरार पर सिर्फ़ इतना जवाब दिया।

“अच्छा आप कश्मीर न जाएं।”

ये जवाब इख़्तिसार के बावजूद हौसला अफ़्ज़ा था........ इस मुलाक़ात के बाद हम दोनों बे-तकल्लुफ़ होगए। अब पहला सा हिजाब न रहा। हम घंटों एक दूसरे के साथ बातें करते रहते। एक रोज़ मैंने उस से निशानी के तौर पर कुछ मांगा तो इस ने बड़े भूले अंदाज़ में अपने सर के किलिप उतार कर मेरी हथेली पर रख दिए और मुस्कुरा कर कहा। “मेरे पास यही कुछ है।” ये किलिप मेरे पास अभी तक महफ़ूज़ हैं। ख़ैर कुछ दिनों की तूल तवील गुफ़्तगुओं के बाद मैंने उस की ज़बान से कहलवा लिया कि वो मुझ से शादी करने पर रज़ामंद है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब उस रोज़ शाम को उस ने अपने घड़े को सर पर सँभालते हुए अपनी रजामंदी का इज़हार इन अल्फ़ाज़ में किया था कि “हाँ मैं चाहती हूँ।” तो मेरी मुसर्रत की कोई इंतिहा न रही थी। मुझे ये भी याद है कि होटल को वापस आते हुए मैं कुछ गाया भी था। उस पुर-मुसर्रत शाम के चौथे रोज़ जब कि मैं आने वाली साअत-ए-सईद के ख़्वाब देख रहा था। यकायक उस मकान की तमाम दीवारें गिर पड़ीं जिन को मैंने बड़े प्यार से उस्तुवार किया था। बिस्तर में पड़ा था कि सुबह स्यालकोट के एक साहब जो बग़रज़-ए-तबदीली-ए-आब-ओ-हुआ बटोत में क़्याम पज़ीर थे। और एक हद तक बेगू से मेरी मोहब्बत को जानते थे। मेरी..... चारपाई पर बैठ गए और निहायत ही मुफ़क्किराना लहजा में कहने लगे

“वज़ीर बेगम से आप की मुलाक़ातों का ज़िक्र आज बटोत के हर बच्चे की ज़बान पर है। मैं वज़ीर बेगम के कैरेक्टर से एक हद तक वाक़िफ़ था। इस लिए कि स्यालकोट में उस लड़की के मुतअल्लिक़ बहुत कुछ सुन चुका हूँ। मगर यहां बटोत में उस की तसदीक़ होगई है। एक हफ़्ता पहले यहां का कसाई इस के मुतअल्लिक़ एक तवील हिकायत सुना रहा था। परसों पान वाला आप से हमदर्दी का इज़हार कर रहा था कि आप इस्मत बाख़्ता लड़की के दाम में फंस गए हैं। कल शाम को एक और साहब कह रहे थे कि आप टूटी हुई हंडिया ख़रीद रहे हैं। मैंने ये भी सुना है कि बाअज़ लोग उस से आप की गुफ़्तगु पसंद नहीं करते। इस लिए कि जब से........ आप बटोत में आए हैं वो उन की नज़रों से ओझल होगई है। मैंने आप से हक़ीक़त का इज़हार कर दिया है। अब आप बेहतर सोच सकते हैं।”

इस्मत बाख़्ता लड़की, टूटी हुई हंडिया, लोग उस से मेरी गुफ़्तुगू को पसंद नहीं करते, मुझे अपनी समाअत पर यक़ीन न आता था। बेगू और........ इस का ख़याल ही नहीं किया जा सकता था। मगर जब दूसरे रोज़ मुझे होटल वाले ने निहायत ही राज़दाराना लहजे में चंद बातें कहीं तो मेरी आँखों के सामने तारीक धुन्द सी छा गई। “बाबू जी, आप बटोत में सैर के लिए आए हैं मगर देखता हूँ कि आप यहां की एक हुस्नफ़रोश लड़की की मोहब्बत में गिरफ़्तार हैं इस का ख़याल अपने दिल से निकाल दीजिए। मेरा उस लड़की के घर आना जाना है, मुझे ये भी मालूम हुआ है कि आप ने उस को कुछ कपड़े भी ख़रीद दिए हैं। आप ने यक़ीनन और भी कई रुपय ख़र्च किए होंगे माफ़ कीजिए मगर ये सरासर हिमाक़त है। मैं आप से ये बातें हरगिज़ न करता क्योंकि यहां बीसियों ऐशपसंद मुसाफ़िर आते हैं मगर आपका दिल उन स्याहियों से पाक नज़र आता है। आप बटोत से चले जाएं इस क़ुमाश की लड़की से गुफ़्तुगू करना अपनी इज़्ज़त ख़तरे में डालना है।”

ज़ाहिर है कि इन बातों ने मुझे बेहद अफ़्सुर्दा बना दिया था वो मुझ से सिगरेट, मिठाई और इसी क़िस्म की दूसरी मामूली अश्या तलब क्या करती थी और मैं बड़े शौक़ और मोहब्बत से उस की ये ख़्वाहिश पूरी किया करता था। इस में एक ख़ास लुत्फ़ था। मगर अब होटल वाले की बात ने मेरे ज़ेहन में मुहीब ख़यालात का एक तलातुम बरपा कर दिया। गुज़श्ता मुलाक़ातों के जितने नुक़ूश मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में महफ़ूज़ थे और जिन्हें में हररोज़ बड़े प्यार से अपने तसव्वुर में ला कर एक ख़ास क़िस्म की मिठास महसूस किया करता था दफ़अतन तारीक शक्ल इख़्तियार कर गए मुझे उस के नाम ही से उफ़ूनत आने लगी। मैंने अपने जज़्बात पर क़ाबू पाने की बहुत कोशिश की मगर बेसूद। मेरा दिल जो एक कॉलेज के तालिब-ए-इल्म के सीने में धड़कता था, अपने ख़्वाबों की ये बुरी और भयानक तामीर देख कर चिल्ला उठा। उस की बातें जो कुछ अर्सा पहले बहुत भली मालूम होती थीं रिया कारी में डूबी हुई मालूम होने लगीं........ मैंने गुज़श्ता वाक़ियात, बेगू की नक़्ल-ओ-हरकत, उस की जुंबिश और अपने गिर्द-ओ-पेश के माहौल को पेशे नज़र रख कर अमीक़ मुताला किया तो तमाम चीज़ें रोशन होगईं, इस का हरशाम को एक मरीज़ के हाँ दूध लेकर जाना और वहां एक अर्सा तक बैठी रहना। बाओली पर हरकस-ओ-नाकस से बेबाकाना गुफ़्तुगू, दोपट्टे के बग़ैर एक पत्थर से दूसरे पर उछल कूद, अपनी हम-उमर लड़कियों से कहीं ज़्यादा शोख़ और आज़ाद रवी........ वो यक़ीनन इस्मत बाख़्ता लड़की है। मैंने ये राय मुरत्तिब तो करली। मगर आँसूओं से मेरी आँखें गीली होगईं। ख़ूब रोया मगर दिल का बोझ हल्का ना हुआ मैं चाहता था कि एक बार आख़िरी बार उस से मिलूं और उस के मुँह पर अपने तमाम ग़ुस्से को थूक दूँ यही सूरत थी जिस से मुझे कुछ सुकून हासिल हो सकता था। चुनांचे में शाम को बाओली की तरफ़ गया। वो पगडंडी पर अनार की झाड़ियों के पीछे बैठी मेरा इंतिज़ार कर रही थी। उस को देख कर मेरा दिल किसी क़दर कड़ा। मेरा हलक़ उस रोज़ की तल्ख़ी कभी फ़रामोश नहीं कर सकता। उस के क़रीब पहुंचा और पास ही एक पत्थर पर बैठ गया। छलां उस की भैंस और इस का बछड़ा चंद गज़ों के फ़ासले पर बैठे जुगाली कर रहे थे। मैं गुफ़्तुगू का आग़ाज़ करना चाहा मगर कुछ न कह सका। ग़ुस्से और अफ़्सुर्दगी ने मेरी ज़बान पर क़िफ़्ल लगा दिया था मुझे ख़ामोश देख कर उस की आँखों की चमक मानद पड़ गई, जैसे चश्मे के पानी में किसी ने अपने मिट्टी भरे हाथ धो दिए हैं। फिर वो मुस्कुराई, ये मुस्कुराहट मुझे किसी क़दर मस्नूई और फीकी मालूम हुई। मैंने सर झुका लिया और संगरेज़ों से खेलना शुरू कर दिया था। शायद मेरा रंग ज़र्द पड़ गया था। उस ने ग़ौर से मेरी तरफ़ देखा और कहा “आप बीमार हैं?”

“उस का ये कहना था कि मैं बरस पड़ा “हाँ बीमार हूँ, और ये बीमारी तुम्हारी दी हुई है, तुम्हें ने ये रोग लगाया है बेगू! मैं तुम्हारे चाल चलन की सब कहानी सुन चुका हूँ और तुम्हारे सारे हालात से बाख़बर हूँ।”

मेरी चुभती हुई बातें सुन कर और बदले हुए तीव्र देख कर वो भौंचक्का सी रह गई और कहने लगी। “अच्छा तो मैं अच्छी लड़की नहीं हूँ। आप को मेरे चाल चलन के मुतअल्लिक़ सब कुछ मालूम हो चुका है मेरी समझ में नहीं आता कि ये आप कैसी बहकी बहकी बातें कर रहे हैं।”

मैं चलाया। “गोया तुम को मालूम ही नहीं। ज़रा अपने गिरेबान में मुँह डाल कर देखो तो अपनी स्यह-कारियों का सारा नक़्शा तुम्हारी आँखों तले घूम जाएगा।” मैं तैश में आगया। “कितनी भोली बनती हो। जैसे कुछ जानती ही नहीं। परों पर पानी पड़ने ही नहीं देतीं। मैं क्या कह रहा हूँ भला तुम क्या समझो जाओ जाओ बेगू, तुम ने मुझे सख़्त दुख पहुंचाया है।” ये कहते कहते मेरी आँखों में आँसू डुबडुबा आए।

वो भी सख़्त मुज़्तरिब होगई और जल कर बोल उठी।“ आख़िर मैं भी तो सुनूं कि आप ने मेरे बारे में क्या क्या सुना है। पर आप तो रो रहे हैं।”

“हाँ। रो रहा हूँ। इस लिए कि तुम्हारे अफ़्आल ही इतने स्याह हैं कि उन पर मातम किया जाये। तुम पाकबाज़ों की क़दर क्या जानो। अपना जिस्म बेचने वाली लड़की मोहब्बत किया जाने। तुम सिर्फ़ इतना जानती हो कि कोई मर्द आए और तुम्हें अपनी छाती से भींच कर चूमना चाटना शुरू करदे और जब सैर हो जाये तो अपनी राह ले। क्या यही तुम्हारी ज़िंदगी है।”

मैं ग़ुस्से की शिद्दत से दीवाना होगया था जब उस ने मेरी ज़बान से इस क़िस्म के सख़्त कलिमात सुने तो उस ने ऐसा ज़ाहिर किया जैसे उस की नज़र में ये सब गुफ़्तुगू एक मुअम्मा है। उस वक़्त तैश की हालत में मैंने उस की हालत को नुमाइशी ख़याल किया और एक क़हक़हा लगाते हुए कहा। “जाओ! मेरी नज़रों से दूर हो जाओ। तुम नापाक हो।”

ये सुन कर उस ने डरी हुई आवाज़ में सिर्फ़ इतना कहा। “आप को क्या होगया है?”

“मुझे क्या होगया..... क्या होगया है।” मैं फिर बरस पड़ा। “अपनी ज़िंदगी की स्याह कारियों पर नज़र दोड़ाओ........ तुम्हें सब कुछ मालूम हो जाएगा। तुम मेरी बात इस लिए नहीं समझती हो कि मैं तुम से शादी करने का ख़्वाहिशमंद था। इस लिए कि मेरे सीने में शहवानी ख़यालात नहीं, इस लिए कि मैं तुम से सिर्फ़ मोहब्बत करता हूँ। जाओ मुझे तुम से सख़्त नफ़रत है।”

जब मैं बोल चुका। तो उस ने थूक निगल कर अपने हलक़ को साफ़ किया और थरथराई हुई आवाज़ में कहा। “शायद आप ये ख़याल करते होंगे कि जानबूझ कर अंजान बन रही हूँ। मगर सच्च जानिए मुझे कुछ मालूम नहीं आप क्या कह रहे हैं। मुझे याद है कि एक शाम आप सड़क पर से गुज़र रहे थे आप ने मेरी तरफ़ देखा था और मुस्कुरा दिए थे। यहां बीसियों लोग हम लड़कियों को देखते हैं और मुस्कुरा कर चले जाते हैं। फिर आप मुतवातिर बाओली की तरफ़ आते रहे। मुझे मालूम था आप मेरे लिए आते हैं मगर इसी क़िस्म के कई वाक़े मेरे साथ गुज़र चुके हैं। एक रोज़ आप ने मेरे साथ बातें कीं और इस के बाद हम दोनों एक दूसरे से मिलने लगे। आप ने शादी के लिए कहा मैं........ मान गई।, मगर इस से पहले इस क़िस्म की कई दरख़ास्तें सुन चुकी हूँ। जो मर्द भी मुझ से मिलता है दूसरे तीसरे रोज़ मेरे कान में कहता है। बेगू देख में तेरी मोहब्बत में गिरफ़्तार हूँ। रात दिन तू ही मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में बस्ती रहती है। आप ने भी मुझ से यही कहा। अब बताईए मोहब्बत क्या चीज़ है। मुझे क्या मालूम कि आप ने दिल में क्या छुपा रखा है। यहां आप जैसे कई लोग हैं जो मुझ से यही कहते हैं। बेगू तुम्हारी आँखें कितनी ख़ूबसूरत हैं जी चाहता है कि सदक़े हो जाऊं। तुम्हारे होंट किस क़दर प्यारे हैं जी चाहता है उन को चूम लूँ........ वो मुझे चूमते रहे हैं क्या ये मोहब्बत नहीं है? कई बार मेरे दिल में ख़याल आया है कि मोहब्बत कुछ और ही चीज़ है मगर मैं पढ़ी लिखी नहीं, इस लिए मुझे क्या मालूम हो सकता है। मैंने क़ायदा पढ़ना शुरू किया मगर छोड़ दिया। अगर मैं पढ़ूं तो फिर छलां और उस के बछड़े का पेट कौन भरे आप अख़बार पढ़ लेते हैं इस लिए आपकी बातें बड़ी होती हैं। मैं कुछ नहीं समझ सकती छोड़िए इस क़िस्से को आईए कुछ और बातें करें मुझे आप से मिल कर बहुत ख़ुशी हुई है। मेरी माँ कह रही थीं कि बेगू तू हैट वाले बाबू के पीछे दीवानी होगई है।”

मेरी नज़रों के सामने से वो तारीक पर्दा उठने लगा था जो इस अंजाम का बाइस था। मगर दफ़अतन मेरे जोश और ग़ुस्से ने फिर उसे गिरा दिया। बेगू की गुफ़्तुगू बेहद सादा और मासूमियत से पुर थी मगर मुझे उस का हर लफ़्ज़ बनावट में लिपटा नज़र आया। मैं एक लम्हा भी उस की एहमीयत पर ग़ौर न किया।

“बेगू, में बच्चा नहीं हूँ कि तुम मुझे चिकनी चुपड़ी बातों से बेवक़ूफ़ बनालोगी मैंने ग़ुस्सा में उस से कहा। “ये फ़रेब किसी और को देना। कहते हैं कि झूट के पांव नहीं होते तुम ने अभी अभी अपनी ज़बान से इस बात का एतराफ़ किया है अब मैं क्या कहूं।”

“नहीं नहीं कहिए!” उस ने कहा।

“कई लोग तुम्हारे मुँह को चूमते रहे हैं। तुम्हें शर्म आनी चाहिए!”

“हाँ आप तो समझते ही नहीं। अब मैं क्या झूट बोलती हूँ। मैं ख़ुद थोड़ा ही उन के पास जाती हूँ और मुँह बढ़ा कर चूमने को कहती हूँ। अगर आप उस रोज़ मेरे बालों को चूमना चाहते जबकि आप उन की तारीफ़ कर रहे थे, तो क्या मैं इनकार कर देती! मैं किस तरह इनकार कर सकती हूँ मुझे छलां बहुत प्यारी लगती है और मैं हर रोज़ उस को चूमती हूँ इस में क्या हर्ज है मैं चाहती हूँ कि लोग मेरे बालों, मेरे होंटों और मेरे गालों की तारीफ़ करें इस से मुझे ख़ुशी होती है ख़बर नहीं क्यों? मैं सुबह सवेरे उठती हूँ और छलां को लेकर घास चराने के लिए बाहर चली जाती हूँ, दोपहर को रोटी खा कर फिर घर से निकल आती हूँ। शाम को पानी भर्ती हूँ। हर रोज़ मेरा यही काम है, मुझे याद है कि आप ने मुझ से कई मर्तबा कहा थाकि मैं पानी भरने न आया करूं। भैंस न चराया करूं। शायद आप इसी वजह से नाराज़ हो रहे हैं। मगर ये तो बताईए कि मैं घर पर रहूं तो फिर आप मुलाक़ात क्योंकर कर सकेंगे? मैंने सुना है कि पंजाब में लड़कियां घर से बाहर नहीं निकलतीं मगर हम पहाड़ी लोग हैं हमारा यही काम है।”

“तुम्हारा यही काम है कि हर रहगुज़र से लिपटना शुरू कर दो। तुम पहाड़ी लोगों के चलन मुझ से छुपे हुए नहीं, ये तक़रीर किसी और को सुनाना। घर पर रहो या बाहर रहो। अब मुझे इस से कोई सरोकार नहीं। इन पहाड़ियों में रह कर जो सबक़ तुम ने सीखा है वो मुझे पढ़ाने की कोशिश न करो”

“आप बहुत तेज़ होते जा रहे हैं बहुत चल निकले हैं।” उस ने क़दरे बिगड़ कर कहा। “मालूम होता है लोगों ने आप के बहुत कान भरे हैं। मुझे भी तो पता लगे कि वो कौन मरण जोगे हैं जो मेरे मुतअल्लिक़ आप को ऐसी बातें सुनाते रहे हैं। आप ख़्वाह-मख़्वाह इतने गर्म होते जा रहे हैं। ये सच्च है कि मैं मर्दों के साथ बातें करती हूँ मिलती हूँ मगर........ ” ये कहते हुए इस के गाल सुर्ख़ होगए। मगर मैंने उस की तरफ़ ध्यान न दिया। एक लम्हा ख़ामोश रहने के बाद वो फिर बोली। “आप कहते हैं कि में बुरी लड़की हूँ ये ग़लत है। मैं पगली हूँ........ सचमुच पगली हूँ। कल आपके चले जाने के बाद में पत्थर पर बैठ कर देर तक रोती रही। जाने क्यों। ऐसा कई दफ़ा हुआ है कि मैं घंटों रोया करती हूँ। आप हंसेंगे मगर उस वक़्त भी मेरा जी चाहता है कि यहां से उठ भागूं और इस पहाड़ी की चोटी पर भागती हुई चढ़ जाऊं और फिर कूदती फांदती नीचे उतर जाऊं। मेरे दिल में हरवक़्त एक बेचैनी सी रहती है। भैंस चराती हूँ पानी भर्ती हूँ। लकड़ियां काटती हूँ। लेकिन ये सब काम में ऊपरे दिल से करती हूँ। मेरा जी किसी को ढूंढता है। मालूम नहीं किस को........ मैं दीवानी हूँ।”

बेगू की ये अजीब-ओ-ग़रीब बातें जो दर-हक़ीक़त उस की ज़िंदगी का एक निहायत उलझा हुआ बाब थीं और जिसे बग़ौर मुताला करने के बाद सब राज़ हल हो सकते थे उस वक़्त मुझे किसी मुजरिम का ग़ैर-मरबूत बयान मालूम हुईं, बेगू और मेरे दरमियान इस क़दर तारीक और मोटा पर्दा हाइल होगया था कि हक़ीक़त की निक़ाब कुशाई बहुत मुश्किल थी।

“तुम दीवानी हो।” मैंने उस से कहा। “क्या मर्दों के साथ बैठ कर झाड़ियों के पीछे पहरों बातें करते रहना भी इस दीवानगी ही की एक शाख़ है?........ बेगू, तुम पगली हो मगर अपने काम में आठों गांठ होशियार!”

“मैं बातें करती हूँ, उन से मिलती हूँ, मैंने इस से कब इनकार किया है अभी अभी मैंने आप से अपने दिल की सच्ची बात कही तो आप ने मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया अब अगर मैं कुछ और कहूं तो इस से किया फ़ायदा होगा। आप कभी मानेंगे ही नहीं।”

“नहीं, नहीं, कहो, क्या कहती हो, तुम्हारा नया फ़ल्सफ़ा भी सुन लूं।”

“सुनिए फिर” ये कह कर उस ने थकी हुई हिरनी की तरह मेरी तरफ़ देखा और आह भर कर बोली। “ये बातें जो मैं आज आप को सुनाने लगी हूँ मेरी ज़बान से पहले कभी नहीं निकलीं मैं ये आप को भी ना सुनाती। मगर मजबूरी है। आप अजीब-ओ-ग़रीब आदमी हैं। मैं बहुत से लोगों से मिलती रही हूँ। मगर आप बिलकुल निराले हैं। शायद यही वजह है कि मुझे आप से”........वो हिचकिचाई........ “हाँ आप से प्यार हो गया है। आप ने कभी मुझ से ग़ैर बात नहीं कही। हालाँकि मैं जिस से मिलती रही हूँ वो मुझ से कुछ और ही कहता था। मेरी अम्मां जानती है कि मैं घर में हरवक़्त आप ही की बातें करती रहती हूँ मेरा मुँह थकता ही नहीं। आप ने नहीं कहा। पर मैंने ग्राहकों के पास दूध ले जाना छोड़ दिया। लोगों से बातें करना छोड़ दीं। पानी भरने के लिए भी ज़्यादा छोटी बहन ही को भेजती रही हूँ। आप के आने से पहले में लोगों से मिलती रही हूँ। अब मैं आप को बताऊं कि मैं उन से क्यों मिलती थी........ मुझे कोई मर्द भी बुलाता तो मैं उसी से बातें करने लगती थी। इस लिए........ नहीं नहीं मैं नहीं बताऊंगी........ मेरा दिल जो चाहता था वो उन लोगों के पास नहीं था, मैं बुरी नहीं, अल्लाह की क़सम, बे-गुनाह हूँ, ख़ुदा मालूम लोग मुझे बुरा क्यों कहते हैं। आप भी मुझे बुरा कहते हैं जिस तरह आप ने आज मेरे मुँह पर इतनी गालियां दी हैं अगर आप के बजाय कोई और होता तो मैं उस का मुँह नोच लेती मगर आप........ अब मैं क्या कहूं, मैं बहुत बदल गई हूँ, आप बहुत अच्छे आदमी हैं। मैं ख़याल करती थी कि आप मुझे कुछ सिखाएंगे मुझे अच्छी अच्छी बातें बताएंगे। लेकिन आप मुझ से ख़्वाह-मख़्वाह लड़ रहे हैं........ आप को क्या मालूम कि मैं आप की कितनी इज़्ज़त करती हूँ। मैंने आप के सामने कभी गाली नहीं दी। हालाँकि हमारे घर सारा दिन गाली ग्लोच होती रहती है।

मेरी समझ में कुछ न आया कि वो क्या कह रही है डाक्टर साहब! इस पहाड़ी लड़की की गुफ़्तुगू किस क़दर सादा थी। मगर अफ़सोस है कि इस वक़्त मेरे कानों में रूई ठुँसी हुई थी। उस के हर लफ़्ज़ से मुझे इस्मत फ़रोशी की बू आरही थी। मैं कुछ ना समझ सका।

“बेगू! तुम हज़ार क़स्में खाओ। मगर मुझे यक़ीन नहीं आता। अब जो तुम्हारे जी में आए करो। मैं कल बटोत छोड़ कर जा रहा हूँ मैंने तुम से मोहब्बत की, मगर तुम ने उस की क़दर न की। तुम ने मेरे दिल को बहुत दुख दिया है...... ख़ैर अब जाता हूँ, मुझे और कुछ नहीं कहना।”

मुझे जाता देख कर वो सख़्त मुज़्तरिब होगई और मेरा बाज़ू पकड़ कर और फिर उसे फ़ौरन डरते हुए छोड़ कर थराई हूई आवाज़ में सिर्फ़ इस क़दर कहा। “आप जा रहे हैं?”

मैंने जवाब दिया “हाँ जा रहा हूँ ताकि तुम्हारे चाहने वालों के लिए मैदान साफ़ हो जाये।”

“आप न जाईए, अल्लाह की क़सम मेरा कोई चाहने वाला नहीं।” ये कहते हुए उसकी आँखें नमनाक होगईं “न जाईए, न जाईए न...... ” आख़िरी अल्फ़ाज़ उस की गुलूगीर आवाज़ में दब गए। उस का रोना मेरे दिल पर कुछ असर न कर सका। मैं चल पड़ा। मगर उस ने मुझे बाज़ू से पकड़ लिया और रोती हुई आवाज़ में कहा। “आप ख़फ़ा क्यों होगए हैं। मैं आइन्दा किसी आदमी से बात न करूंगी। अगर आप ने मुझे किसी मर्द के साथ देखा तो आप इस छड़ी से जितना चाहिए पीट लीजिएगा। आईए घर चलें। मैं आप के लिए हुक़्क़ा ताज़ा करके लाऊंगी।”

मैं ख़ामोश रहा और उस का हाथ छोड़कर फिर चल पड़ा। उस वक़्त बेगू से एक मिनट की गुफ़्तुगू करना भी मुझे गिरां गुज़र रहा था। मैं चाहता था कि वो लड़की मेरी नज़रों से हमेशा के लिए ओझल हो जाये मैंने ब-मुश्किल दो गज़ का फ़ासले तय होगा कि वो मेरे सामने आ खड़ी हुई। उस के बाल परेशान थे आँखों के डोरे सुर्ख़ और उभरे हुए थे सीना आहिस्ता आहिस्ता धड़क रहा था।

इस ने पूछा। “क्या आप वाक़ई जा रहे हैं? ”

मैंने तेज़ी से जवाब दिया। “तो और क्या झूट बक रहा हूँ।”

“जाईए।”

मैंने उस की तरफ़ देखा। उस की आँखों से अश्क रवां थे और गाल आँसूओं की वजह से मैले होरहे थे मगर उस की आँखों में एक अजीब क़िस्म की चमक नाच रही थी।

“जाईए।” ये कह कर वो उलटे पांव मुड़ी। उस का क़द पहले से लंबा होगया था।

मैंने नीचे उतरना शुरू कर दिया। थोड़ी दूर जा कर मैंने झाड़ियों के पीछे से रोने की आवाज़ सुनी। वो रो रही थी। वो थर्राई हुई आवाज़ अभी तक मेरे कानों में आरही है। ये है मेरी दास्तान डाक्टर साहब, मैंने उस पहाड़ी लड़की की मोहब्बत को ठुकरा दिया। इस ग़लती का एहसास मुझे पूरे दो साल बाद हुआ। जब मेरे एक दोस्त ने मुझे ये बताया कि बेगू ने मेरे जाने के बाद अपने शबाब को दोनों हाथों से लुटाना शुरू कर दिया और दिक़ के मरीज़ों से मिलने की वजह से वो ख़ुद उस का शिकार होगई। बादअज़ां मुझे मालूम हुआ कि इस मर्ज़ ने बिल-आख़िर उसे क़ब्र की गोद में सुला दिया........ उस की मौत का बाइस मेरे सिवा और कौन हो सकता है वो ज़िंदगी की शाहराह पर अपना रास्ता तलाश करती थी मगर मैं उसको भूल भुलैय्यों में छोड़कर भाग आया जिस का नतीजा ये हुआ कि वो भटक गई मैं मुजरिम था। चुनांचे मैंने अपने लिए वही मौत तजवीज़ की जिस से वो दो-चार हुई। वो वज़न जो मैं पाँच साल अपनी छाती पर उठाए फिरता रहा हूँ, ख़ुदा का शुक्र है कि अब हल्का होगया है।

मैं मरीज़ की दास्तान ख़ामोशी से सुनता रहा। वो बोल चुका तो फिर भी ख़ामोश रहा मैं नहीं चाहता था कि उस के जज़्बात पर राय ज़नी करूं। चुनांचे वहां से उठ कर चला गया। मुझे कई मरीज़ों की दास्तानें सुनने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है मगर ये निहायत अजीब-ओ-ग़रीब और पुर-असर........ दास्तान थी गो मरीज़ बीमारी की वजह से हड्डियों का ढांचा रह गया था। मगर हैरत है कि उस ने अपने तवील बयान को किस तरह जारी रखा।

सुबह के वक़्त मैं उस का टैमप्रेचर देखने के लिए आया। मगर वो मर चुका था। सफ़ैद चादर ओढ़े वो बड़े सुकून से सौ रहा था।

जब उस को ग़ुसल देने लगे तो हस्पताल के एक नौकर ने मुझे बुलाया। “डाक्टर साहब उस की मुट्ठी में कुछ है” मैंने उस की बंद मुट्ठी को आधा खोल कर देखा, लोहे के दो किलिप थे। उस की बेगू की यादगार!

“इन को निकालना नहीं, ये इस के साथ ही दफ़न होंगे।” मैंने ग़ुसल देने वालों से कहा और दिल में ग़म की एक अजीब-ओ-ग़रीब कैफ़ीयत लिए दफ़्तर चला गया।