Dwaraavati in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 30

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द्वारावती - 30

30

एक नया प्रभात अपने सौंदर्य को लेकर आगमन करने की तैयारी कर रहा था। उस क्षण अनायास ही आकर्षित होती हुई गुल भड़केश्वर महादेव के मंदिर के प्रति चलने लगी। तट पर आकर रुक गई।
‘मुझे मंदिर तक जाना है किन्तु आज भी समुद्र का जल स्तर कल की भांति अधिक है। इसने मंदिर को अपने बाहुपाश में घेरे रखा है।’ वह इधर उधर देखने लगी।
‘क्या कोई मार्ग नहीं इस जल स्तर के उपरांत उस मंदिर तक जाने का? कोई तो अन्य मार्ग अवश्य होगा। मुझे खोजना होगा उस मार्ग को।’
‘मैं जाना चाहती हूँ किन्तु कोई मार्ग नहीं दिख रहा। कैसे जाऊँ?’
‘कल तो तुम समुद्र के इसी जल को पार कर मंदिर गई थी। तुम्हें इस मार्ग का अनुभव है। आज भी तुम उस मार्ग से मंदिर जा सकती हो।’
‘कल की बात भिन्न थी। आज स्थिति भिन्न है। कल मेरे साथ केशव था, कल मुझे पानी की गहराई का आभास न था। कल मैं ऐसे दु:साहस के परिणाम से परिचित नहीं थी। मैं तो बस चल पड़ी थी केशव के सहारे। किन्तु... ।’
‘किन्तु क्या?’
‘आज मैं परिणाम से परिचित हूँ। आज ऐसा दु:साहस करने का साहस नहीं है मुझ में।’
‘यदि तुम साहस नहीं करोगी तो मंदिर की आरती का आनंद कैसे प्राप्त करोगी? उस अनुभूति से वंचित हो जाओगी।’
‘यदि मुझे तैरना आता तो मैं अवश्य ही यह साहस कर लेती।’
गुल को किसी के अट्टहास्य की ध्वनि सुनाई दी। वह मुड़ी।
“केशव तुम? तुम ऐसे हंस क्यूँ रहे हो? कहाँ थे अब तक?”
“मैं तो कब से यहीं हूँ, तुम्हारे पिछे, तुम्हारी बातें सुन रहा था।”
“मेरी बातें? मैं तो मन ही मन बातें कर रही थी। तो तुमने कैसे सुन ली?”
“तुम अपनी बातों में इतनी मग्न थी की तुम्हें यह भी ज्ञात नहीं रहा कि तुम मन ही मन नहीं किन्तु प्रकट रूप से बोल रही थी।”
“अच्छा? तो यह कहो कि इसमें हंसने जैसी क्या बात थी? तुम मेरी सहायता करने के स्थान पर मेरा उपहास कर रहे हो?”
“गुल, कोई किसी की सहायता नहीं कर सकता। अपने मार्ग पर, अपने लक्ष्य तक हमें स्वयं ही जाना पड़ता है और वह भी अकेले। कोई किसी के साथ जीवन भर नहीं रहता।”
“ज्ञान की बातें ना करो। यह कहो कि मेरा उपहास क्यूँ हो रहा है?”
“उपहास ना करूँ तो क्या करूँ?”
“क्या तात्पर्य है तुम्हारा?”
“गुल, तुम समुद्र के तट पर जन्मी हो। यहीं अभी तक का जीवन व्यतीत किया है। इतनी आयु हो जाने पर भी तुम्हें तैरना नहीं आता! क्या यह उपहास का विषय नहीं है?”
“तैरना तो तुम्हें भी ...।”
“नहीं आता था। किन्तु अब आता है।”
“क्या तुम सत्य कह रहे हो?”
“क्या कोई संदेह है? तो लो, देख लो।”
केशव समुद्र के जल प्रवाह में कूद पड़ा। गुल ने उसे रोकना चाहा किन्तु वह आगे बढ़ गया था। देखते ही देखते वह मंदिर तक जा पहुंचा।
मंदिर से केशव ने हाथ हिलाकर गुल का अभिवादन किया।
‘केशव मुझे आमंत्रित कर रहा है। किन्तु …छोड़ो। मैं कहाँ जा सकती हूँ। मैं यहीं तट पर ही प्रतीक्षा करती हूँ।’ वह एक शीला पर बैठ गई।
“आरती का समय हो गया है। घंट नाद भी हो रहा है। आरती दिखाई नहीं दे रही है। केवल नाद सुनकर ही मन मनाना पड़ेगा। यह कैसे क्षण है प्रभु?”
एक अंतराल के पश्चात केशव आया।
“तुम अभी भी यहीं बैठकर मेरी प्रतीक्षा कर रही हो?”
गुल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
“गुल, यह पुष्प ले लो। आरती का पुष्प है। तुम्हारे लिए ही लाया हूँ।” गुल ने पुष्प को देखा, पुष्प लिया, मस्तक पर चढ़ाया और समुद्र में प्रवाहित कर दिया।
“गुल, चलो चलें।” केशव चलने लगा। गुल वहीं बैठी रही। केशव लौट आया।
“अच्छे बालक क्रोध नहीं किया करते। चलो मान जाओ।”
“बात क्रोध की नहीं है केशव।”
“कुछ कहो तो …।”
“क्या क्या कहूँ? मेरे मन में एक साथ अनेक बातें चल रही है जिसके कारण मेरा मन उद्विग्न है।”
“कहो, कह दो वह सब बातें।”
“एक तो मुझे तैरना नहीं आता। दूसरा यह समुद्र आरती के समय ही इतनी अधिक जल राशि लेकर क्यूँ आ जाता है?”
“अन्य कोई बात?”
“है। कल उस पंखी ने जो पाप किया था। उस बात का कोई समाधान नहीं हो रहा है। मेरा मन अत्यंत विचलित है इस समय।”
कुछ क्षण विचार करने के पश्चात केशव ने कहा, “चलो, प्रत्येक बात का समाधान खोजते हैं, एक एक करके।”
केशव गुल के समीप जा बैठा। गुल ने कोई प्रतिभाव नहीं दिये, वह मौन ही रही। केशव प्रतीक्षा करता रहा गुल के मौन भंग होने का।
“केशव?”
“हाँ।”
“क्या किसी मौन में कोई समस्या का समाधान हो सकता है?”
“हाँ भी, नहीं भी।”
“?”
“जब हम मौन हो जाते हैं तब हमें जो ध्वनि सुनाई देती है वह ध्वनि हमारे भीतर की होती है, इस प्रकृति की होती है। इसी ध्वनि को हम अभी सुन रहे थे।”
“तो?”
“उस ध्वनि को ध्यान से सुनो तो समस्या का समाधान संभवत: प्राप्त हो सकता है। हमें उन ध्वनियों के संकेतों को पकड़ना होगा।”
“तो ठीक है, मैं मौन हो जाती हूँ। लो।”
“मैं भी।”
मौन अवस्था में दोनों को अरबी समुद्र की ध्वनि सुनाई देने लगी। गुल ने उस ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित किया। वह ध्वनि धीरे धीरे स्पष्ट होती गई, अन्य ध्वनियाँ शांत होने लगी।
“गुल, मेरे समीप आओ। मेरे भीतर आओ। यदि तुम मुझे समर्पित हो जाओगी तो मैं तुम्हें तैरना सीखा दूँगा। मुझ पर विश्वास करोगी तो मैं तुम्हें डूबने नहीं दूंगा।” गुल सुनती रही। वह ध्वनि अधिक तीव्र होती गई।
“आओ, मेरे भीतर आओ। आओ... आ जाओ...।”
“कौन हो तुम? तुम मुझे पुकार रहे हो, अपनी तरफ खिंच रहे हो, मुझे आमंत्रित कर रहे हो। तुम हो कौन?”
“मैं समुद्र हूँ।”
गुल उठी, समुद्र की तरफ चलने लगी। समुद्र के भीतर प्रवेश कर गई। तरंगों ने उसे गिरा दिया। वह उठी, पुन: चलने लगी। लहरों ने पुन: गिरा दिया। वह पुन: उठी, स्वयं को संतुलित करते करते हाथ पैर हिलाने लगी। तरंगों का प्रतीकार करने लगी। परास्त होती रही किन्तु प्रयास करती रही।
अंतत: गुल ने तरंगों पर विजय प्राप्त कर ली। प्रवाह से सामंजस्य हो गया। प्रवाह के साथ प्रवाहित होने लगी। तरंगों से मित्रता कर ली। समुद्र से गुल का संघर्ष समाप्त हो गया। वह समुद्र की तरंगों के साथ क्रीडा करने लगी। मन से समुद्र का भय दूर हो गया।
जब वह थक गई तो तट पर आ गई। केशव वहीं प्रतीक्षा कर रहा था। गुल के मुख पर जो भाव थे उसे देख कर केशव प्रसन्न हो गया। केशव उठा। दोनों रेत पर चलने लगे। एक बिन्दु पर आकर गुल घर चली गई। अपने पदचिन्हों को रेत पर छोड़ गई। केशव ने उन पद चिन्हों को देखा।
“गुल जब भी विदा लेती है, इसी प्रकार पदचिन्हों को छोड़ जाती है। समुद्र की तरंगें उसे मिटा देती है। किन्तु आज यह पदचिन्ह भिन्न ही प्रतीत हो रहे हैं, भिन्न भाषा बोल रहे हैं। कुछ भिन्न संकेत दे रहे हैं। मुझे इन संकेतों का अर्थ समझना होगा।”
केशव लौट गया गुरुकुल।