Laga Chunari me Daag - 2 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | लागा चुनरी में दाग--भाग(२)

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लागा चुनरी में दाग--भाग(२)

ये सन् १९५९ की बात है,बाँम्बे जो अब मुम्बई कहा जाता है,वहाँ समुद्री रास्तों के जरिए तस्करी बहुत बढ़ चुकी थी,पुलिस के चौकन्ने रहते हुए भी लाखों करोड़ो का माल मुम्बई में आ जाता था,पुलिस महकमें की तो जैसे जान पर बन आई थी,आए दिन सोने के बिस्किट,हीरे,नशीले पदार्थ वगैरह आ जा रहे थे और वहाँ का सबसे कुख्यात तस्कर था पप्पू गोम्स,उसके माता पिता बँटवारे के समय पेशावर से भारत आकर यहीं बस गए थे,बँटवारे के समय उसका परिवार भूखा मर रहा था इसलिए उसने अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए छोटी मोटी चोरियाँ शुरु कर दीं और फिर उसे एक माफिया डाँन बच्चू राजा का साथ मिल गया, उसके साथ मिलकर उसने तस्करी सीखी और फिर एक दिन उसने बच्चू राजा का काम भी तमाम कर दिया और उसकी सत्ता हथिया ली,अब वो बच्चू राजा के गुर्गो के साथ मिलकर खुलेआम तस्करी किया करता था,मुम्बई की तस्करी और इसके अलावा कई और गैर कानूनी धन्धों में उसकी तूती बोलती थी,वो हफ्ता वसूली का काम भी किया करता था.....
वैसे भी उस समय देश नया नया आजाद हुआ था और बँटवारे के कारण देश में चारों ओर गरीबी और भुखमरी फैली हुई थी,जिसे जो भी काम मिल रहा था तो वो उसे करने के लिए तैयार था,इसलिए पप्पू गोम्स के साथ काम करने वाले लोगों की तादाद भी बहुत ज्यादा थी,वे सब नौजवान भी बँटवारे के सताए हुए थे,भूख और गरीबी से संघर्ष करते करते उन सभी की इन्सानियत कहीं खो चुकी थी,वे लोगों को मारने में जरा भी खौफ़ ना खाते थे,बस उठाया कट्टा और ठोक दिया,उन्हें तो बस अपने रुपयों से मतलब था,किसी की भी जान जाए उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था और वे खुद भी कभी कभी पुलिस इन्काउन्टर में मारे जाते थे,लेकिन पप्पू गोम्स का दबदबा इतना था कि पुलिस उस तक पहुँच ही नहीं पाती थी...
पुलिस परेशान हो चुकी थी,जो भी पुलिस वाला पप्पू गोम्स को पकड़ने की हिम्मत जुटाता तो अपनी जान से हाथ धो बैठता और ऐसे ही उस इलाके में एक नए थानेदार साहब आएँ जिनका नाम प्रमोद मेहरा था और उन्होंने पप्पू गोम्स को पकड़ने के लिए बहुत जुगत लगाई,अपनी सारी ताकत झोंक दी उसे पकड़ने के लिए और एक दिन पप्पू गोम्स पकड़ा भी गया,उसे अदालत में पेश किया गया और उसके लिए उम्रकैद की सजा मुकर्रर की गई,अब प्रमोद मेहरा साहब को शान्ति मिल चुकी थी,इस बात के लिए सरकार ने प्रमोद मेहरा जी को पुरस्कार भी दिया,उस दिन प्रमोद मेहरा जी के घर में खुशी का माहौल था,पुरस्कार लेकर वे अपने घर पहुँचे तो उनकी पत्नी सुरेखा और उनके छोटे भाई सुबोध ने उनका जोरदार स्वागत किया,प्रमोद मेहरा जी का प्रमोशन भी हो गया था,उनकी तरक्की से पूरे परिवार में खुशी का माहौल था,सब खाना खाने डाइनिंग टेबल पर बैठे ही थे कि तभी उनकी पत्नी सुरेखा उनसे बोलीं...
"सुनिए जी! किन्हीं सुभाष मेहरा का खत आया था आपके लिए",
"कहाँ है ख़त!",प्रमोद मेहरा ने पूछा...
"जी!अभी लाई",
और ऐसा कहकर सुरेखा ने वो खत प्रमोद मेहरा जी को लाकर दिया,प्रमोद जी ने फौरन वो ख़त खोला और खोलकर पढ़ने लगे,ख़त पढ़ने के बाद वे बोले....
"मेरे दोस्त सुभाष का ख़त है,उसने मुझे अपने गाँव बुलाया है,हम काँलेज में साथ में पढ़ा करते थे ",
"कोई जरूरी काम है क्या"?,सुरेखा ने पूछा....
"हाँ! चार बेटियों के बाद उसके घर बेटा हुआ है,उसी बच्चे का नामकरण संस्कार है,मुझे कल ही उसके गाँव के लिए निकलना होगा",प्रमोद मेहरा जी बोले...
"तो फिर मैं आपके जाने की तैयारी बना देती हूँ",सुरेखा बोली....
"अरे! तुम भी अपनी तैयारी बना लो,उसने तुम्हें भी तो साथ लाने को कहा है",प्रमोद मेहरा जी बोले...
"मैं आपके साथ नहीं जाऊँगी",सुरेखा बोली...
"लेकिन क्यों भाभी?आपको भी भइया के साथ जाना चाहिए",सुबोध मेहरा बोला...
"तू तो जानता है ना सुबोध! कि शादी के इतने साल बाद भी मेरी गोद सूनी है,भला मैं किसी के बच्चे के नामकरण में कैंसे जा सकती हूँ,उनके घर इतनी मन्नतो के बाद बेटा पैदा हुआ है,उस शुभ कार्य में भला मुझ अभागन का क्या काम",
सुरेखा ये कहते कहते उदास हो उठी,तब सुबोध उससे बोला....
"भाभी! इतना उदास नहीं होते,मैं भी तो आपका बेटा हूँ,माँ बाबूजी के जाने के बाद आपने ही तो मुझे पालपोसकर इतना बड़ा किया है,इसलिए आप ही मेरी माँ हैं",
"सही तो कहता है सुबोध! अब तुम ही इसकी माँ हो,इसलिए इस बात के लिए इतना उदास मत हुआ करो,अगर तुम्हारा वहाँ जाने का मन नहीं है तो मैं तुमसे जोर जबरदस्ती नहीं करूँगा,तुम मेरी तैयारी बना दो,मैं कल ग्यारह बजे की ट्रेन से वहाँ के लिए निकलूँगा,फिर कस्बे पहुँचकर मुझे उसके गाँव जाने के लिए ताँगा पकड़ना पड़ेगा,तब जाकर शाम तक पहुँच पाऊँगा उसके घर",प्रमोद मेहरा जी बोले...
"ठीक है तो मैं आपकी तैयारी बना दूँगीं",
और फिर ऐसा कहकर सुरेखा ने सबकी प्लेट्स पर खाना परोस शुरु किया....
दूसरे दिन प्रमोद मेहरा जी निर्धारित ट्रेन से अपने दोस्त सुभाष मेहरा के गाँव की ओर चल पड़े,उनकी ट्रेन कस्बे के स्टेशन के छोटे से प्लेटफार्म पर जाकर रुकी,उन्होंने ट्रेन से उतरकर उस छोटे से स्टेशन को निहारा,सिंगल पटरी की लाइन थी उस स्टेशन की,इस ओर प्लेटफार्म और उस ओर खेत ही खेत ,फागुन माह चल रहा था इसलिए खेतों में पके हुए गेहूँ के सुनहरे पौधें सूरज की रोशनी में जगमगा रहे थे,प्लेटफार्म पर दो चार पीपल के पेड़ लगे थे,बस चारों ओर टेसू ही टेसू के फूल नजर आ रहे थे,उनका उस कुदरत की खूबसूरती में खो जाने को जी चाह रहा था ....
और उधर बगल में ही एक हैंडपम्प लगा था,यात्रियों के पीने के पानी का एकमात्र साधन हुआ करता था वो उस जमाने में,साथ में एक दो चना जोर गरम बेचने वाले चिल्ला रहे थे,एक चाय वाला भी चाय गरम चाय करके चिल्ला रहा था,छोटा सा स्टेशन जहाँ केवल सुकून ही सुकून पसरा था और लोग भी सुकून के साथ टहल रहे थे,ऐसा सुकून प्रमोद बाबू को बाम्बे में नसीब नहीं होता था,वे स्टेशन की खूबसूरती निहारकर जैसे ही स्टेशन से बाहर आए तो एक अजीब सी दुर्गन्ध ने उनके नथुने फाड़कर रख दिए,वो कुछ और नहीं घोड़ो के लीद की दुर्गन्ध थी,क्योंकि वहाँ केवल ताँगे ही चलते थे,जो उस जमाने में गाँव के भीतर जाने का एकमात्र साधन हुआ करते थे....
प्रमोद मेहरा जी ने देखा कि उस ट्रेन से केवल इक्का दुक्का यात्री ही उतरे थे,वे सभी यात्री भी अपने अपने परिवार के साथ बाहर आ चुके थे और वहाँ केवल तीन ही ताँगे खड़े थे,इसलिए प्रमोद मेहरा जी ने जल्दी से ताँगा पकड़ने में ही भलाई समझी,क्योंकि अन्जानी जगह फिर बाद में ना जाने कब ताँगा आए और वे उसमें बैंठ पाएँ,इसलिए यही सब सोचकर उन्होंने एक ताँगे वाले के पास जाकर बात करनी चाही,तो तभी एक सत्रह अठारह साल की लड़की भी अपने परिवार के साथ उस ताँगेवाले के पास जा पहुँची,जिसने रिबन से दो लम्बी चोटियाँ बना रखीं थीं,बसन्ती रंग के सलवार कमीज के साथ हरा दुपट्टा डाल रखा था,गोरा रंग,सुन्दर नैन नक्श और स्वस्थ शरीर की धनी थी वो लड़की,फिर वो लड़की प्रमोद मेहरा जी के पास आकर बोली......
"बाबू साहब! इस ताँगे पर हम लोग जाऐगें",
"लेकिन पहले तो मैं यहाँ आया था",प्रमोद मेहरा जी बोले...
"इससे क्या होता"
और ऐसा कहकर उस लड़की ने ताँगे के भीतर अपने हाथ में पकड़ा थैला पटका और अपने परिवार से बोली...
"माँ..बाबूजी! आइए! चलते हैं"
उस लड़की की हरकत देखकर प्रमोद मेहरा जी का मुँह खुला का खुला रह गया...

क्रमशः....
सरोज वर्मा...