water level in Hindi Moral Stories by Bharati babbar books and stories PDF | जलसतह

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जलसतह



उसके स्टेशन पहुँचते ही बूँदाबाँदी शुरू हो गयी।मॉनसून के साथ ही शहर का मूड जैसे बदल गया।सबके चेहरे खिले हुए लगे।एक मॉनसून ही तो बदलता है मुंबई शहर को, अन्यथा दो ही मौसम हैं यहाँ,गर्मी और बहुत गर्मी,सर्दी का नामोनिशान नहीं।अब अगले कई दिनों तक लगातार यही सिलसिला चल सकता है।

वह प्लेटफ़ॉर्म नम्बर दो पर जाने के लिए पुल पर चढ़ रही भीड़ के रेले में शामिल हो गयी।उसका पूरा ध्यान सीढ़ियों पर लगा रहा इसलिए उसे अगल-बगल जूते चप्पलों की भीड़ के अतिरिक्त कुछ और नहीं दिखा।प्लेटफॉर्म पर पहुँचने तक बारिश तेज़ हो गयी लेकिन भीड़ की गतिविधि पर कोई असर नहीं पड़ा।लेडीज़ स्पेशल लोकल का समय होने के कारण प्लेटफॉर्म पर महिलाओं की ही भीड़ उमड़ती नज़र आयी।ट्रेन के गुज़रते ही लोगों का इतना ही बड़ा हुजूम फिर आ जायेगा।वह फर्स्ट क्लास के डिब्बे की जगह पर खड़ी हो गयी, तभी गाड़ी की धीमी सरसराहट सुनायी दी।तिरछी पड़ती बारिश की तेज़ बौछारें उसे भिगोती उससे पहले फर्स्ट क्लास का डिब्बा उसके सामने आ गया।वह तेज़ी से चढ़कर खिड़की के पास बैठ गयी।बोरीवली से दादर तक फ़ास्ट लोकल होने के कारण उसे अंधेरी में भी रोज सीट मिल जाती है।उसने चारों ओर निगाह घुमायी।आज बारिश से भीड़ में कोई कमी आयी हो ऐसा बिल्कुल नहीं लगा।

गाड़ी के प्लेटफॉर्म छोड़ते ही उसने अपनी निगाह खिड़की से बाहर टिका दी।खिड़की पर जाली होने के कारण बाहर बारिश होते हुए भी अंदर छींटे नहीं पड़ सकते।सभी महिलाएँ अपने-अपने क्रिया कलापों में व्यस्त हो गयीं।जिन्हें सीट नहीं मिली वे खड़े-खड़े ही बतियाने में जुट गयी।गाड़ी में उसके दफ्तर की वह अकेली है लेकिन पिछले कई महीनों से लगातार आते कुछ चेहरे परिचित हो गये हैं जिनसे कोई बात किये बिना ही एक मूक रिश्ता अनुभव होने लगा है।किसी-किसी के साथ मुस्कुराहट तक का परिचय हो चुका है। सबके कार्यालय दादर से आगे ही होंगे इसलिए किसी को उतरने की जल्दी नहीं।स्वयं उसे ग्रांट रोड़ उतरना है।

वह प्रायः रोज ही खिड़की के पास बैठती है।नज़र गुज़रते स्टेशनों पर होती है और मन दूर माँ और रोहन के पास।मुंबई में सुबह की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में भागते-दौड़ते लोगों में दूर बिहार में घर का काम करती माँ और पंचगनी में स्कूल के लिए तैयार होते रोहन की तसवीरें घुलमिल जाती हैं।वह उन तस्वीरों की अनायास ही तुलना करने लग जाती है जो हो नहीं पाती।मुंबई की ज़िंदगी की तुलना कहीं और की ज़िंदगी से करना बेमानी लगने लगता है।बारिश देखते हुए बचपन में छत पर भीगना और बाद में भीगने से बचते हुए स्कूल जाना याद आ गया।तब वहाँ बारिश शुरू होने के साथ ही जैसे मौज-मस्ती के दिन आ जाते थे लेकिन अब तो थोड़ी-सी बारिश के साथ बाढ़ की आशंका घेर लेती है जो सारा आनन्द गायब कर देती है।परसों ही फोन पर माँ के स्वर में चिंता थी।पास वाली नदी का जलस्तर बढ़ने की बात करते हुए बताया कि फिर बाढ़ की चेतावनी है।बारिश जीवन में अब आनन्द नहीं अभिशाप बन गयी है।उसके विपरीत यहाँ सब के चेहरे खिले हुए हैं।जिनके घरों में पानी घुसने की आशंका है, फिलहाल तो वे भी मुस्कुरा रहे हैं, जब पानी आयेगा तब देख लेंगे, अभी तो बारिश के आ जाने की खुशी मनाने का समय है।पटरियों के किनारे उनके छोटे-छोटे अधनंगे बच्चे खिलखिलाते हुए बारिश में खेल रहे हैं।सस्ते प्लास्टिक की चादरों से ढकी इनके घरों की छतों पर मुंबई की बारिश क्या कहर ढायेगी इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है।पर जो चिंता माँ के स्वर में थी उसकी कोई झलक भी इनके चेहरों पर नहीं।

दादर के बाद गाड़ी हर स्टेशन पर रुकने लगी।जितनी महिलाएँ उतरती उससे अधिक चढ़ जाती।वह भी अपनी जगह से उठकर दरवाज़े की ओर बढ़ने की कोशिश करने लगी।स्टेशन आने पर भीड़ के रेले के साथ वह भी उतर गयी।स्टेशन से उसका दफ्तर दस मिनट की दूरी पर है।

बारिश की हल्की फुहार अच्छी लगने के बावजूद कपड़े खराब हो जाने के डर से उसने टॅक्सी ले ली।दफ्तर पहुँचते ही अर्चना उसे लिफ्ट के बाहर मिल गयी।उसके साथ ही पाँच-छह लोग और आते ही लिफ्ट पूरी भर गयी।

"प्रियंवदा प्रसाद...इज़न्ट दैट यू!"
उसने चौंक कर देखा।लिफ्ट में उसका एक समवयस्क युवक उससे पूछ रहा था।वह कुछ प्रतिक्रिया देती तब तक लिफ्ट सातवीं मंज़िल पर रुक गयी और वह बाहर निकल गयी।वह युवक भी बाहर आ गया।
"यस...लेकिन आप...सॉरी,मैंने आपको....
"माइसेल्फ अनिरुद्ध जोशी...एम बी ए में हम साथ थे।"
उसे नाम याद आ गया लेकिन बारह वर्षों में चेहरा काफ़ी बदला हुआ लगा।
"ओके...काफ़ी बदलाव आ गया है न,पहचान नहीं सकी, सॉरी," उसने मुस्कुराते हुए कहा।
"दाढ़ी की वजह से ?"
"ह्म्म्म,थोड़ा वज़न भी..."
"बढ़ गया है, है ना?अब तो कोई सिंगल पसली नहीं कहेगा मुझे!" वह हँसा।
उसे याद आया ,लड़के उसे इसी नाम से छेड़ते थे।लेकिन अब उसका व्यक्तित्त्व काफ़ी आकर्षक लगा।
"यहाँ कैसे?" अनिरुद्ध ने पूछा।
"इसी कम्पनी में हूँ।"
"वेल,मेरा ऑफिस टेंथ फ्लोर पर है।विनीत कैसा है?"
वह कुछ कहती उससे पहले ही लिफ्ट का दरवाज़ा खुला। "सी यू अगेन," कहकर हाथ हिलाते हुए अनिरुद्ध अंदर चला गया।
"विनीत कौन हैं,तुम्हारे हसबेंड?" अर्चना ने पूछा।
"ह्म्म्म,एक्स..." उसके उत्तर पर अर्चना ने प्रतिक्रिया नहीं दी।

उसका केबिन आने तक वह कई वर्ष पीछे पहुँच गयी।बैठकर उसने कॉफी मँगवायी।बाहर बारिश ने ज़ोर पकड़ लिया।एक बार उसका जी चाहा कि माँ को फोन करके बाढ़ का हाल पूछ ले लेकिन फिलहाल वह मन में आयी विचारों और भावनाओं की बाढ़ से जूझने लगी।पता नहीं क्यों लेकिन जब भी उसके भीतर या आसपास सवालों और जीवन की विषम परिस्थितियों का सैलाब उमड़ रहा होता है उसे घर पर बाढ़ की चिंता से जूझते माँ-पिताजी याद आ जाते हैं।

कॉफ़ी का प्याला उठाकर वह खिड़की के पास खड़ी हो गयी। दूर समंदर की धुंधली रेखा देखकर उसे अच्छा लगा।बारिश से वह और भी धुंधली दिखायी दी लेकिन दूर से ही लहरों के उठने-गिरने का अहसास उसे तसल्ली दे गया।

यहाँ विनीत के नाम से कोई परिचित नहीं है।दफ्तर में सब इतना ही जानते हैं कि वह अकेली रहती है जो इस शहर के लिए आम बात है।इससे अधिक न किसी ने जानना चाहा न उसने बताया।आज विनीत के बारे में सुनकर भी अर्चना ने आगे कुछ नहीं पूछा।इस शहर की बुरी कहलाने वाली यही बात उसे पसंद है।कोई किसी के बारे में अनावश्यक बातें नहीं पूछता।सब को अपने ही काम से मतलब है, दूसरों की ज़िंदगी में कोई दखलअंदाज़ी नहीं।उसके बारे में कभी किसी ने अनावश्यक प्रश्न नहीं पूछे।वह अंधेरी में रहती है ये सबको पता है लेकिन कहाँ, ये किसी ने नहीं जानना चाहा क्योंकि वहाँ उनमें से कोई नहीं रहता।स्वयं उसने दफ्तर में एक निश्चित दूरी बनाते हुए कभी किसी के विषय में पूछताछ नहीं की।उसे लगा था कि विनीत का नाम जानने के बाद कोई पूछेगा लेकिन अर्चना या किसी और ने कुछ नहीं पूछा।इसके विपरीत जब घर पर उसने पहली बार विनीत के बारे में बताया था तब रिश्तेदार और मोहल्ले वालों ने,जिनका सरोकार था और जिनका नहीं था उन्होंने भी,पूरी प्रश्नावली ही सामने रख दी थी।उनका उत्तर बेशक माँ-पिताजी देते पर उसके लिए ज़िम्मेदार वही ठहरायी गयी।

विनीत से उसका परिचय बंगलूरू में एम बी ए करने के दौरान हुआ था।दो साल की घनिष्ठता के बाद उन्होंने शादी करने का फैसला लिया।उसके बारे में सबकुछ अच्छा होते हुए भी घरवाले इस बात से नाराज़ थे कि उसने अपने लिए स्वयं ही वर चुन लिया,रिश्तेदार और मोहल्ले वालों के सामने वे क्या कहेंगे।माँ ने तो कहानी भी गढ़ दी कि कोई खास परिचित रिश्ता लेकर आये थे लेकिन जब सबको पता चला कि वह बंगलूरू में रहता है तो सच जानने-बूझने में देर नहीं लगी।

उसे भी बंगलूरू में ही एक बहु-राष्ट्रीय कम्पनी में उच्च स्तरीय नौकरी मिल गयी।शादी के बाद दो साल तक तो सब ठीक रहा लेकिन उसके बाद परिस्थिति जैसे एकदम बदल गयी।हालाँकि विनीत और उसकी नौकरी अलग-अलग थी,लेकिन विनीत से पहले उसे पदोन्नति और अधिक वेतन मिलने की आँच उनके आपसी संबंध पर लगने लगी।पहले हर बात पर उसे प्रोत्साहित करने वाला विनीत अचानक एक रूढ़िवादी पति की भूमिका में आ गया।शुरू में वह अनदेखी कर समझौता करती रही।उसे यह भी लग रहा था कि अपनी पसंद से शादी करके वह पहले ही घरवालों को आहत कर चुकी है, अब तो हर स्थिति का सामना उसे ही करना होगा।इस बीच वह गर्भवती हो गयी।उसे लगा कि बच्चा आ जाने पर उनके बीच की दूरी कम हो जायेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।विनीत को तो जैसे पिता बन जाने की भी खुशी नहीं हुई।मैटरनिटी लीव पर उसके घर पर रहते हुए विनीत ने ज़्यादातर घर से बाहर रहना शुरू कर दिया।यह बात घरवालों से ज़्यादा दिनों तक छुप नहीं सकी।विनीत की माँ ने आते ही भाँप लिया कि बेटे के तेवर बदल गये हैं ।
" क्या बात है वीनू ,देख रही हूँ आजकल तू घर पर कम रहता है," उन्होंने बहू को कुछ कहने से पहले उसके सामने अपने बेटे को ही पूछ लिया।
" काम होता है मम्मी," विनीत ने जवाब देते हुए प्रियंवदा की तरफ आक्षेप से देखा।
" मेरे पीछे भी इतना ही काम रहता है क्या?" विनीत इस सवाल का उत्तर दिये बिना चला गया।मम्मी ने प्रियंवदा की तरफ देखा तो उसकी आँखें छलछला गयी।
" कुछ हुआ है तुम दोनों के बीच ?" उनके इतना पूछते ही प्रियंवदा का बाँध टूट गया और अरसे बाद दबी भावनाओं की कुण्ठा बह निकली।विनीत और उसके अलावा पहली बार किसी तीसरे व्यक्ति के सामने यह सच उजागर हुआ था।लेकिन एक बार जो यह गाँठ खुली तो मम्मी की कोशिशों के बाद भी दोबारा बन्ध न सकी।एक बार उद्घाटित होने के बाद विनीत ने उस सच को बेशर्मी से ओढ़ ही लिया और उससे बचने का कोई यत्न नहीं किया।

रोहन को लेकर पहली बार अकेले मायके पहुँचने पर वहाँ पड़ोसियों और रिश्तेदारों की प्रश्नावली फिर तैयार थी।रिश्तेदारों के आगे माँ ने तो विनीत के विदेश जाने की कहानी गढ़ दी, लेकिन माँ-पिताजी के प्रश्नों के आगे प्रियंवदा कोई कहानी नहीं गढ़ सकी।घर पर तो जैसे बेमौसम ही बाढ़ आ गयी।माँ और पिताजी लोगों और रिश्तेदारों के सवालों से बचने के लिए घर से निकलने से भी बचते रहे।हर समय यही तनाव रहता कि दामाद के न आने की बात का वे समाज को क्या उत्तर देंगे ! स्वयं प्रियंवदा को उनकी ये आशंकायें और सवाल बेबुनियाद लग रहे थे,लेकिन घरवालों को समझा पाना भी सरल नहीं था।वह महीना भर रहकर बंगलूरू लौट आयी।रोहन के दो साल का होने तक विनीत और उसके बीच बात तलाक तक पहुँच गयी।वह बंगलूरू छोड़ कर नयी कम्पनी में लगकर मुंबई आ गयी।मुंबई की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में नौकरी के साथ रोहन का अकेले ध्यान रखना,चाहते हुए भी कठिन था।माँ ने रोहन को अपने पास रखने की पेशकश की,लेकिन प्रियंवदा उसे वहाँ रखकर रिश्तेदारों और पड़ोसियों को बोलने का मौका नहीं देना चाहती थी।उसके तलाक को लेकर घर पर पहले ही तनाव था।भाई की शादी हो चुकी थी, ऐसे में घरवालों के लिए वह कोई समस्या नहीं बनना चाहती थी।उन्हें एक तरफ उसके भविष्य की चिंता सता रही थी तो दूसरी तरफ उसके तलाक को लेकर समाज और रिश्तेदारों के बीच होने वाली बातों से परेशान थे।वह रोहन को ऐसे माहौल से दूर रखना चाहती थी, इसलिए उसने दिल पर पत्थर रखकर उसे पंचगनी के एक बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया।

इंटरकॉम की घन्टी ने उसकी तन्द्रा तोड़ी।
" शाम को चौपाटी चलोगी ? " दूसरी तरफ काम्या थी।
" इस मौसम में !" उसने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा।बादलों के कारण बाहर धुंधलका था, हालाँकि उसने घड़ी देखी तो चार ही बजे थे।
" इसी मौसम में तो मज़ा है, अर्चना और मंदिरा भी चल रहे हैं।"
" ओके," कहकर उसने फोन काट दिया।

बाहर बारिश नहीं थी लेकिन आसमान काले बादलों से भरा हुआ था।शाम छह बजे ऑफिस छूटने से पहले एक झड़ी लग गयी लेकिन बाहर निकलने तक मौसम खुशगवार हो गया।उन्होंने चौपाटी तक की टॅक्सी कर ली।बारिश के बावजूद घूमने वालों की कमी नहीं थी।सड़कें रोज ही की तरह व्यस्त थी।हाय टाइड के कारण समंदर में बहुत ऊँची लहरें उठ रही थी जिससे किनारा भी सिकुड़कर छोटा लग रहा था।खाने-पीने की वस्तुएँ बेचने वालों का भी जमघट था।उन चारों ने भेलपुरी ले ली और उसके तिकोने दोने में से चुगते हुए घूमने लगे।आसमान काले बादलों से पटा हुआ था और किसी भी समय उमड़कर बरसने को तैयार था।उसने चारों ओर देखा, सबके चेहरों पर एक रौनक थी।काले घुमड़ते आसमान की छाया किसी को छू भी नहीं सकी थी।गीली रेत पर भिखारियों के कुछ बच्चे ठिठोली कर रहे थे।उन्हें देखकर पास बैठी उनकी माँए भी खिलखिला रही थीं।

" तुम्हारा फोन बज रहा है," मंदिरा के कहने पर उसका ध्यान गया।माँ का फोन था।समाचारों में उन्हें मुंबई के मॉनसून की सूचनायें मिल रही थी।बारिश की कोई भी खबर उन्हें चिंतित करने के लिए काफी है।जब पता चला कि वह घर न पहुँचकर चौपाटी घूम रही है तो वे घबरा ही गयी।
" मैं अकेली नहीं हूँ, सहेलियाँ हैं साथ और आधी मुंबई भी," उसने कहा तो सारी हँस पड़ी,लेकिन माँ की चिंता कम नहीं हुई।उसने कैमरा ऑन करके चारों तरफ घुमा दिया।माँ तो समंदर की हालत और लोगों का जमघट देखकर चौंक गयी। वहाँ तो बारिश की आशंका की पूर्वसूचना मिलते ही पिताजी बाज़ार का काम तुरंत निपटा आते हैं और माँ पानी भर जाने के डर से ही दालान का सारा सामान कमरों में रखकर उसे खाली कर देती है।जल्दी घर जाने की उनकी सलाह पर उसने हँसते हुए हामी भर दी।वह माँ को समझा नहीं सकती कि मुंबई हर परिस्थिति में अपने लिये जीने का बहाना खोज लेती है...और चुराये हुए हर उस पल को समय की रफ़्तार में सहेजकर समेट लेती है...कैसे समझाये कि इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में वही पल जीने की उमंग जगाते हैं...मुंबई के मॉनसून की ख़बर समाचारों की सुर्खियों में जितनी छायी रहती हैं,यहाँ रहने वालों के जीवन में उतनी ही बड़ी खुशखबरी लाती है। " मुंबई पानी-पानी "...यह हेडलाइन चिंता नहीं,उत्साह जगाती है! थोड़ी देर में ही ऐसी तेज़ झड़ी लग गयी कि वापसी में चर्नी रोड़ स्टेशन पहुँचने तक ही छतरियों के बावजूद वे चारों सराबोर हो गयी।उसे बचपन में छत पर बेफ़िक्री से भीगना फिर याद आ गया।

" विनीत कैसा है ?" अनिरुद्ध यह प्रश्न दूसरी बार पूछ रहा था।
लिफ्ट में हुई आकस्मिक भेंट के बाद उतरते-चढ़ते दोनों का कई बार आमना-सामना हुआ लेकिन बात करने का अवसर नहीं मिला।आज दफ्तर से निकलते समय फिर उनकी भेंट हो गयी।संयोग से आज वह अकेली थी और लिफ्ट में दाखिल होते ही अनिरुद्ध मिल गया।बाहर निकलते ही वह साथ हो लिया।उसके स्वभाव का दोस्ताना अंदाज़ बदला नहीं है।स्टेशन तक पैदल चलते हुए दोनों बातचीत करते रहे।तभी अनिरुद्ध ने यह पूछ लिया।
" हम अब साथ नहीं हैं," उसने सहजता से कह दिया।अनिरुद्ध भी सुनकर असहज होता नहीं लगा।
" कब से ?" उसका लहजा किसी उत्सुकता से परे सामान्य था।
" पाँच साल हो गये।"
" तब से यहीं हो ?"
" छह महीने से, पहले वहीं थी, बंगलूरू।"
" यहाँ कहाँ रहती हो?" स्टेशन पहुँचने पर अनिरुद्ध ने पूछा।
" अंधेरी, और तुम ?" पूछते ही उसे खयाल आया कि अनिरुद्ध के विषय में उसने उससे कुछ भी नहीं पूछा।
" प्रभादेवी ।"

एम बी ए के दौरान अनिरुद्ध के साथ विनीत या उसका दोस्ती जैसा गहरा संबंध नहीं था लेकिन अच्छी जानपहचान थी।आज उसके और विनीत के अलग होने की बात पर अनिरुद्ध की प्रतिक्रिया के बारे में वह देर तक सोचती रही।किसी भी पूर्व-परिचित ने इस बात को इतनी सहजता से नहीं लिया था।यूँ तो उसके साथ पढ़ चुके किसी भी सहपाठी से शायद यह पहली भेंट है।एक ही इमारत में होने के कारण अनिरुद्ध से कहीं न कहीं भेंट हो ही जाती।किसी दिन उसे दफ्तर से निकलने में देर हो जाती तो अनिरुद्ध लिफ्ट में मिल जाता।फिर स्टेशन तक दोनों साथ जाते।उसने ग़ौर किया कि अनिरुद्ध ने उस दिन के बाद कभी विनीत या उससे जुड़ी कोई बात नहीं की।प्रियंवदा ने भी अपनी ओर से अनिरुद्ध से उसके विषय में कुछ नहीं पूछा।कई बार उसने चाहा कि उससे उसकी पत्नी अथवा परिवार के बारे में पूछे लेकिन हर बार उसने स्वयं को रोक लिया।उसे लगा अनिरुद्ध बताना चाहेगा तो खुद ही बता देगा लेकिन वह परिवार की बात करता ही नहीं।

" दीवाली में घर जाओगी?" अनिरुद्ध ने पहली बार घर से जुड़ा सवाल किया।
" नहीं, इतनी लीव मिलनी मुश्किल है...अभी एक साल भी नहीं हुआ जॉइन किये।"

दीवाली की छुट्टियों में बीस दिन के लिए रोहन के घर आने पर प्रियंवदा ने उसके साथ ही कुछ समय बिताने और वीकेंड पर आसपास ही कहीं घूम आने की योजना बनायी लेकिन उसने इस बारे में अनिरुद्ध को कुछ नहीं बताया।दीवाली की छुट्टियों के दौरान रोहन को रखने के बारे में वह चिंतित थी लेकिन इस मामले में भी उसने किसी से बात नहीं की।माँ भी बार-बार फोन पर उसे घर आने के लिए कहती रही।उसने छुट्टी न मिल पाने की बात कहकर रोहन का ध्यान रखने के बहाने से माँ को ही आने को कह दिया।रोहन की छुट्टियों से पहले माँ पहुँच गयी।माँ के साथ ही पंचगनी जाकर वह रोहन को ले आयी।दफ्तर से उसे चार दिन की छुट्टी मिल गयी।वीकेंड मिलाकर छह दिनों तक तीनों मुंबई घूमते रहे।माँ के रहते उसे रोहन की छुट्टियों में उसकी चिंता नहीं करनी पड़ी।दफ्तर से वह कोशिश कर के थोड़ा जल्दी निकल लेती।घर पहुँच कर पर्स में चाभी तलाशनी नहीं पड़ती, उससे पहले ही बालकनी से रोहन उसे देख दरवाज़ा खोलकर खड़ा मिलता।माँ ने गॅस पर चाय का पानी रखा होता।बीस दिनों तक उसके घर की सूरत बदली रही।रोहन को छोड़कर आने के अगले ही दिन माँ भी लौट गयी।

इस बीच अनिरुद्ध से उसकी मुलाकात नहीं हुई।फिर एक दिन शाम को लौटते हुए वह दफ्तर के नीचे मिला।
" अरे,तुम तो कह रही थी कि घर नहीं जाओगी।तुम दिखी नहीं बहुत दिनों से, तुम्हारी कलीग ने बताया कि यू वर ऑन लीव!"
" माँ आ गयी थी..." जाने क्यों उसने रोहन के बारे में अब भी कुछ नहीं कहा।
" तुम्हारा नम्बर भी नहीं था, दीवाली ही विश कर देता लेकिन किसी और से लेना ठीक नहीं लगा....इफ यू डोंट माइंड..." कहकर अनिरुद्ध ने उसका नम्बर लेने के लिए अपना मोबाइल निकाला।नम्बर लेकर अनिरुद्ध ने 'पीपी ' नाम से उसे सेव कर लिया।बरसों बाद किसी ने उसे इस नाम से सम्बोधित किया था।तब उसके सहपाठी उसे प्रियंवदा प्रसाद न कहकर पीपी बुलाते थे।यह याद आते ही उसके होंठों पर अनायास मुस्कान आ गयी।
" तुम्हें उस दिन पहली बार लिफ्ट में देखकर पीपी ही याद आया था,दिमाग पर ज़ोर डालकर असली नाम याद किया..." उसे मुस्कुराता देख अनिरुद्ध बोला।

अब अनिरुद्ध से फोन या व्हाट्सऐप पर बात हो जाती।एक दिन दफ्तर छूटने से पहले उसका मेसेज आया, " विश मी हैप्पी बर्थडे...एक सेलिब्रेशन तो बनता है ना...सी यू इन द इवनिंग।"

शाम को उसके दफ्तर से निकलने से पहले ही मेसेज आ गया, " वेटिंग " और लिफ्ट से बाहर निकलते ही उसने अनिरुद्ध को खड़ा पाया।
" हैप्पी बर्थडे...पहले बताते तो कोई तोहफ़ा ही ले आती।"
" इसीलिए तो नहीं बताया," अनिरुद्ध हँसते हुए बोला।उसने बाहर निकल कर टॅक्सी रोक ली।
" कहीं दूर जाना है क्या?"
" नहीं, बस मरीन ड्राइव तक...मेरा फ़ेवरेट हैंगआउट है।"

थोड़ी देर बाद वे एक शानदार रूफटॉप रेस्तरां में थे।रिजर्व्ड की तख़्ती लगे एक मेज़ पर उसे बिठाकर अनिरुद्ध हाथ धोने चला गया।उसने आसपास नज़र घुमायी।अधिकतर मेज़ों के इर्दगिर्द युवा युगल ही बैठे दिखायी दिये।सामने अरब सागर का निर्बाध विस्तार था जहाँ सूरज का सिंदूरी वृत्त अर्धाकार में क्षितिज को छू रहा था।मरीन ड्राइव की घुमावदार सड़क पर रंगबिरंगी गाड़ियों का अनवरत रेला चल रहा था।ऊँची इमारतों में जलती रोशनियों के बिम्ब से किनारे से टकराती लहरें चमकने लगी।उसे मुंबई और विशेषकर मरीन ड्राइव की शाम बहुत आकर्षित करती है।दिन जैसा भी हो, मुंबई की शाम बेहद सुहानी होती है।शाम के धुंधलके में शहर की खूबसूरती और निखरती है।समंदर के किनारे बने फुटपाथ पर शाम ढलने के साथ-साथ भीड़ बढ़ने लगी।वह इस तरह बैठकर आते-जाते रेले को घण्टों देख सकती है।भीड़ में अपने आप को खो देने का अहसास उसे सुक़ून देता है।
" कैसी लगी ये जगह?" उसे पता ही नहीं लगा,अनिरुद्ध वापस आ गया था।
" तुम कब से हो यहाँ ?" उसने पहली बार अनिरुद्ध से उसके बारे में कुछ पूछा।
" जब से पैदा हुआ हूँ," वह हँसा," शुद्ध मुंबईकर हूँ,एम बी ए करने गया था बंगलूरू।इस बीच चार साल सिंगापुर में जॉब भी की, लेकिन मज़ा नहीं आया...नथिंग लाइक मुंबई !"

उसने आगे कुछ नहीं पूछा...नथिंग लाइक मुंबई...अनिरुद्ध का यह वाक्य उसके दिमाग में घुमड़ता रहा।वापसी के लिए जब उन्होंने चर्चगेट से लोकल पकड़ी,रात के साढ़े-दस बज रहे थे।अनिरुद्ध ने उसे लेडीज़ डिब्बे के सामने छोड़ दिया।शहर की आवाजाही से रात के उस प्रहर का अहसास ही नहीं होता था।भीड़ के बीच अपना अस्तित्व खोकर भी सुरक्षित रहने का अनुभव सिर्फ मुंबई दे सकती है।विनीत से अलग होने के बाद बंगलूरू में रहते हुए उसे यह सुख नहीं मिला।खिड़की से बाहर देखते हुए उसे फिर माँ का खयाल आया।बात करने के लिए फोन निकाला लेकिन समय देखकर रख दिया।इस समय फोन की घन्टी से ही माँ घबरा जायेगी।

अनिरुद्ध के साथ इतना वक़्त उसने पहली बार बिताया था।वह आज भी उससे उसके परिवार के विषय में पूछ नहीं सकी।लेकिन वह यह भी नहीं समझ पायी कि अनिरुद्ध ने भी इस बारे में स्वयं कुछ क्यों नहीं बताया।उसे लगा जिस तरह वह विनीत के बारे में कोई बात नहीं करती, अनिरुद्ध के पास भी उस विषय से बचने का कोई कारण होगा।यूँ भी दूसरों से बात करते समय एक निश्चित परिधि में रहना प्रियंवदा की आदत बन गयी है।

दफ्तर में अब तक उसकी सहेलियों से भी अनिरुद्ध का उसके सहपाठी के तौर पर परिचय हो गया था,लेकिन इस बारे में कभी किसी ने कोई बात नहीं की।लौटते हुए कभी अनिरुद्ध मिल भी जाता तो सहेलियों के सामने बात हैलो कहने तक ही करता।

मई में रोहन की गरमी की छुट्टियों में उसके लिए घर के पास ही उसे एक बुज़ुर्ग दम्पत्ति के यहाँ डे केयर की व्यवस्था मिल गयी।रोहन के रहने तक वह शेष दुनिया से जैसे कट गयी।दफ्तर से कभी पूरी कभी आधे दिन की छुट्टी ले लेती ताकि रोहन के साथ अधिक से अधिक समय बिता सके।अनिरुद्ध से व्हाट्सऐप पर मैसेज के ज़रिये बात होती रही लेकिन मुलाकात का अवसर नहीं मिला।जून में रोहन की छुट्टियों के बाद वह उसके साथ दो दिन पंचगनी भी रह आयी।

रोहन को छोड़ आने के बाद अकेले कई दिन उसका जी नहीं लगा।दिन दफ्तर की आपाधापी में बीत जाता लेकिन घर पहुँचकर समय काटना कठिन होता।जून की गरमी और उमस से आसपास के चेहरे भी बेहाल दिखायी देते।सबकी आँखों में फिर एक प्रतीक्षा है...उस फुहार की जो एकरसता से शहर का मूड बदल देगी।

आज भी दफ्तर से निकलने में उसे देर हो गयी।बहुत दिनों बाद अनिरुद्ध मिल गया।
" तुम्हें जल्दी न हो तो चलो तुम्हें कोल्ड कॉफ़ी पिलाता हूँ, यू विल लाइक इट, चलोगी? " अनिरुद्ध ने पूछ लिया।
गरमी में कोल्ड कॉफ़ी की कल्पना सुखद लगी।उसके हामी भरने पर अनिरुद्ध ने टॅक्सी रोक ली।
" यॉर फ़ेवरेट हैंगआउट ?" उसने मुस्कुराते हुए पूछा तो अनिरुद्ध हँस दिया।
" तुम समझ गयी...अच्छी जगह है ना?"
भीड़ के बावजूद उन्हें रूफटॉप में जगह मिल गयी।सूरज ढल चुका था।मरीन ड्राइव की जगमगाती शाम में खुले आसमान के नीचे समंदर की ठंडी हवा सुकून दे रही थी।
" आज काफी देर हो गयी तुम्हें, है न ?"
" हाँ, पिछले कुछ दिन लीव पर थी,इसलिए पेंडिंग काम था।"
तभी बैरा कॉफ़ी दे गया।
" प्रियंवदा..."
उसने अनिरुद्ध की तरफ देखा।
"....मुझसे शादी करोगी ?"
अकस्मात पूछे गये इस प्रश्न से वह सकपका गयी।अनिरुद्ध शांत दृष्टि से उसे देख रहा था।वह कुछ भी नहीं बोल सकी।जो सवाल उसने स्वयं से कभी नहीं पूछा उसका वह क्या जवाब देती!
" आय एम सीरियस," उसे चुप देखकर अनिरुद्ध ने कहा।वह फिर भी चुप रही।कुछ देर दोनों के बीच की खामोशी मरीन ड्राइव पर टकराते समंदर की थपकियों और गाड़ियों की सरसराहट से भरी रही।
" मैं इसी समय जवाब नहीं माँग रहा...टेक योर ओन टाइम, लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम इस बात पर सीरियसली सोचने के बाद ही कोई फैसला लेना..."
उसके मस्तिष्क में एक साथ कई विचार और चेहरे गुत्थमगुत्था होने लगे...विनीत...माँ...पिताजी...रोहन....
" तुम्हें नहीं लगता हम तीनों को एक परिवार की ज़रूरत है ?"
" तीनों...?" चौंककर प्रश्नवाचक दृष्टि से अनिरुद्ध को देखकर लगभग बुदबुदाते हुए उसने पूछा।
" ह्म्म्म, मुझे, तुम्हें और तुम्हारे बेटे को..."
स्ट्रॉ को पकड़कर कॉफ़ी पीता प्रियंवदा का हाथ एकबारगी काँप गया।उसकी आँखों के प्रश्न और आश्चर्य को समझते हुए अनिरुद्ध बोला,
" तुम्हारे डी पी में तुम दोनों की फ़ोटो देखकर पता चला मुझे, लेकिन तुमनें कभी कोई बात नहीं की इसलिए मैंने भी नहीं पूछा...तुमनें मेरे बारे में भी नहीं पूछा कभी...," वह मुस्कुराया तो प्रियंवदा भी थोड़ा मुस्कुरायी।
" तुमनें...
" मैंने शादी नहीं की...कोई पसंद नहीं आयी इसलिए सोचा ही नहीं, लेकिन पिछले कुछ दिनों से सचमुच सोच रहा हूँ..." अनिरुद्ध ने उसकी बात बीच में ही काट दी।
" मेरे घर पर मैं और मेरे पेरेंट्स हैं।एक बड़ी बहन है, शादी के बाद पुणे में रहती है...और कुछ जानना चाहो तो पूछ सकती हो।" अनिरुद्ध का स्वर सधा हुआ और आत्मविश्वास से भरा लगा।लेकिन प्रियंवदा का मन-मस्तिष्क कुंद हो गये।अपने सामने रखी गयी बात पर कुछ जानने समझने की क्षमता जैसे अंदर से रिसती जा रही हो।
" तुम बुरा तो नहीं मान गयी ना," अनिरुद्ध ने उसे चुप देखकर कहा।उसने नहीं में सिर हिलाया।
" एक्चुअली कभी इस बारे में सोचा ही नहीं..."
" तो अब सोच लो...बेटा कहाँ है ?"
" पंचगनी, बोर्डिंग में...अकेले यहाँ रखना मुश्किल लगा।"
" कितना बड़ा है ?"
" आठ साल..." कहते हुए उसका जी कसमसाया।
" नाम क्या है ?...उसे भी तो फॅमिली चाहिये।"
" रोहन... तुम्हारे पेरेंट्स..."
" उनकी ओर से बेफ़िक्र रहो,दे आर वेरी ओपन माइंडेड।"

वह आगे कुछ नहीं बोल सकी।अनिरुद्ध इस बात को लेकर जितना विश्वस्त और तैयार लग रहा था, वह स्वयं को उतना ही उलझा हुआ महसूस कर रही थी।

" क्या सोच रही हो ?" अनिरुद्ध ने ही चुप्पी तोड़ी।
" कुछ नहीं..."
" मेरी बात से परेशान मत होना...लेकिन मैं चाहूँगा कि इस बारे में सोचना ज़रूर।"
वह कुछ नहीं बोली।
" प्रियंवदा,किसी रिश्ते के खत्म हो जाने से ज़िंदगी तो खत्म नहीं होती...नये रिश्ते की गुंजाइश तो रहती ही है...लाइफ गोज़ ऑन,वन मस्ट कीप गोइंग। "
अनिरुद्ध ही बोलता रहा।वह केवल सुनती रही।कुछ कहने या सोचने के लिए शब्द नहीं मिले और विचार इतने गड्डमड्ड हुए जा रहे थे कि उन्हें सुलझा पाना कठिन लगने लगा।
" कुछ भी नहीं कहोगी क्या...?तुमसे यहीं के यहीं फैसला लेने के लिए नहीं कह रहा हूँ,बट थिंक इट ओवर,ठीक है ? "
" ह्म्म्म..." उसने लम्बी साँस लेते हुए कहा।

घर लौटकर भी मरीन ड्राइव की शाम का एक टुकड़ा उसके साथ चिपका रहा।उसे लगा जैसे बरसों से बंद पड़े कमरे की दीवारों में एक सुराख हो गया है जहाँ से उस शाम की सुनहरी रोशनी और समंदर की ठंडी हवा उसे छू रही है।आज अनिरुद्ध ने बरसों से बंद पड़े उस दरवाज़े पर दस्तक दी जिसे खोलने की सम्भावना पर भी उसने विचार नहीं किया था।माँ और पिताजी को भी यह चिंता तो थी कि सारा जीवन वह अकेले कैसे गुज़ारेगी लेकिन उसके जीवन में किसी नये रिश्ते की सम्भावना का विचार उन्हें कभी छू भी नहीं गया।उनके सामाजिक परिवेश में आठ साल के बच्चे की माँ के लिए नये दाम्पत्य की कोई गुंजाइश होती भी कैसे ! हालाँकि उस परिवेश से अब वह स्वयं को जुड़ा हुआ नहीं पाती, फिर भी आज अनिरुद्ध की बात पर वह स्वयं को उस सामाजिक परिदृश्य से अलग करके सोचना कितना कठिन है उसके लिए ! इस बारे में उसके किसी निर्णय के बारे में रिश्तेदारों के सामने फिर कोई कहानी गढ़ी जायेगी...

अगले दो दिन वह व्यस्त रही लेकिन मस्तिष्क का एक कोना अनिरुद्ध के प्रश्न में उलझा रहा।व्हाट्सऐप पर अनिरुद्ध ने उसका हालचाल पूछा तो उसने सामान्य-सी प्रतिक्रिया दे दी।जीवन में एक बार फिर वह किसी निर्णायक मोड़ पर थी।विनीत के बाद उसके जीवन में न कोई पुरूष आया था और न ही उसने इस बारे में कभी सोचा।उसका पूरा ध्यान रोहन पर था जिसके लिए वह सबकुछ करने को तत्पर थी।इसीलिए वह अनिरुद्ध की बात पर सोचने के लिए मजबूर हो गयी कि रोहन को एक परिवार की आवश्यकता है।अनायास ही वह अनिरुद्ध और विनीत के बीच तुलना करने लग गयी।विनीत ने कभी रोहन के विषय में गम्भीरता से नहीं सोचा।पति के साथ उसने पिता की भूमिका से भी स्वयं को मुक्त कर दिया।अभी तक अनिरुद्ध ने अपने व्यवहार में परिपक्वता का परिचय दिया था।

" तुम मुझसे शादी क्यों करना चाहते हो ?" उसने अनिरुद्ध से सीधा सवाल किया।पिछली मुलाकात के तीन दिन बाद वे फिर उसी रेस्तरां में थे।अनिरुद्ध ने मिलने की बात की तो वह भी मान गयी।इस बारे में बहुत सोचने के बाद कुछ प्रश्न उसके पास भी थे।वह जल्दबाज़ी में कोई कदम नहीं उठाना चाहती।
" क्योंकि तुम मुझे पसंद हो...सिंपल।"
" मैं सिर्फ तलाकशुदा नहीं हूँ, एक बच्चे की माँ भी हूँ।"
" पता है...सो वॉट ?"
" तुम्हारे परिवार वालों को पता लगेगा तब?"
" उनको पता है..."
" तुमनें मेरा जवाब जानने से पहले ही उन्हें बता दिया?" प्रियंवदा ने हैरानी से कहा।
" मुझे तुमसे ही शादी करनी है, मना कर दोगी तो किसी और से तो करूँगा नहीं...जैसे पहले रह रहा था,रहता रहूँगा।"
" कल घर चलोगी...आई...मतलब मम्मी ने कहा है..." उसे चुप देखकर अनिरुद्ध बोला।
" कुछ तय करने से पहले...
" उनसे मिलने के बाद शायद तय करने में आसानी हो जाये तुम्हारे लिए...उन्हें भी जान जाओगी।" उसे लगा कि अनिरुद्ध ने इस मामले पर पूरी तैयारी कर रखी है।

अगली शाम वह अनिरुद्ध के साथ ही उसके घर गयी।वह जानबूझकर साड़ी पहनकर आयी।अनिरुद्ध ने मुस्कुराकर उसे देखा और घर तक की टॅक्सी कर ली।अनिरुद्ध के माता-पिता उससे बहुत सहजता और आत्मीयता से मिले।कुछ देर में ही प्रियंवदा भी उनके साथ सहज हो गयी।उन्होंने विनीत या उसके विषय में कोई बात नहीं की लेकिन रोहन के बारे में पूछते रहे।उसने छुट्टियों के दौरान माँ और रोहन के साथ ली हुई तसवीरें दिखायी जो दोनों ने उत्सुकता से देखी।वह जाने के लिए उठी तो माँ ने उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा," जब अनिरुद्ध ने शादी करने की बात की, मैं तभी समझ गयी कि इसकी पसंद ख़ास ही होगी।"

लौटते हुए लोकल ट्रेन में बैठे हुए उसके मन में काल्पनिक चित्र घुमड़ने लगे।एक साल से पंचगनी में उससे दूर अकेले रह रहे रोहन के एक भरेपूरे परिवार में रहने की कल्पना उसे सुखद लगी।उसने फैसला कर लिया हो ऐसा नहीं,फिर भी रात को उसे अच्छी नींद आयी।

सुबह उठी तब तेज़ बारिश हो रही थी।मौसम यकायक सुहाना हो गया।उसने लोकल में बैठते ही माँ को फोन किया और मुंबई में देर से ही सही मॉनसून पहुँच जाने की खुशखबरी दे दी।अगले दो-तीन हफ्तों में वहाँ भी मॉनसून की दस्तक हो जायेगी।

दफ्तर पहुँच कर मोबाइल देखा तो अनिरुद्ध का मैसेज था - ' सीज़न्स ग्रीटिंग्स, एन्जॉय द मॉनसून '।क्षण भर में बारिश की आशंका से चिंतित अपने घरवालों के चेहरे उसके सामने आ गये और उसे उस विरोधाभास का अहसास हुआ जो एक ही परिस्थिति में दोनों को अलग करता है।अपने घरवालों को उसने जीवन की जिन छोटी-बड़ी घटनाओं को समाज और परिवार के सन्दर्भ में आँककर प्रति आशंकित होकर चिंता करते देखा है,मुंबई में अपने आसपास लोगों को उन्हीं बातों को जीवन का एक गुज़रता हिस्सा समझकर उसका सामना करते हुए जीते देखा है।उसके तलाक के कारण माँ-पिताजी उसके लिए चाहते हुए भी जो न सोच सके,अनिरुद्ध के माता-पिता ने सहजता से सहर्ष स्वीकार भी कर लिया।इस विचार ने यकायक उसे भी सोचने पर मजबूर कर दिया।अनिरुद्ध के घरवालों से मिलने के बाद से वह स्वयं को ही दूसरे दृष्टिकोण से देख रही है। जीवन से विनीत के चले जाने के बाद वह रोहन के प्रति अन्याय तो नहीं कर रही...यदि अनिरुद्ध को रोहन पिता के रूप में अपना न सका तो...उस स्थिति में अनिरुद्ध और रोहन दोनों के साथ अन्याय न होगा...?

" मम्मा sss" ,उसे अचानक सामने देखकर रोहन खुशी से उससे लिपट गया।प्रिंसिपल से अनुमति लेकर वह उसे एक सप्ताह के लिए अपने साथ ले जाने आ गयी।उसने अनिरुद्ध से कह दिया था कि वह रोहन से पहले बात करने के बाद ही कोई निर्णय ले सकती है और अनिरुद्ध ने भी इस बात का समर्थन किया।

मुंबई पहुँचने के बाद अनिरुद्ध उन्हें उसी रूफटॉप रेस्तरां में ले गया।पहली बार में ही रोहन और उसके बीच अच्छा तालमेल नज़र आया।यूँ भी रोहन अपनी इस आकस्मिक छुट्टी से बहुत खुश था, उसपर अनिरुद्ध उसकी रुचि के अनुसार पशु-पक्षियों और चाँद-तारों के विषय में उसे नयी-नयी बातें बता रहा था।एक दिन वह उन्हें नेहरू प्लेनेटेरियम की सैर पर ले गया।वहाँ शो देखने के बाद वे अनिरुद्ध के माता-पिता से मिलने उसके घर गये।प्रियंवदा अनिरुद्ध से अधिक उसके घरवालों की रोहन के साथ मुलाकात को लेकर उत्सुक और आशंकित थी।लेकिन उसके माता-पिता जितनी सहजता और आत्मीयता से उससे मिले थे उससे अधिक स्नेह और ममता से वे रोहन को मिले।प्रियंवदा को लगा कि अनिरुद्ध और उसका परिवार उनके
सम्बन्ध पर पूरी तरह सहमत हो चुके हैं...उसे भी तो रोहन की मुहर लगने की प्रतीक्षा है....

उनके घर लौटने तक बारिश ने ज़ोर पकड़ लिया।अगले दिन भी सारा दिन मूसलाधार बारिश होती रही।प्रियंवदा ने रोहन की पसंद की पूरी-सब्ज़ी बनायी और दोनों ने फ्रेंच विंडो के पास बैठकर खाया।अनिरुद्ध का फोन आया तो उससे कहा कि वे खिड़की से बाहर देखते हुए बारिश का आनंद उठा रहे हैं।
" मम्मा, अनिरुद्ध अंकल आपके फ्रेंड हैं ?" रोहन के ऐसा पूछने पर उसे इस विषय पर बात करने का बहाना मिल गया।
" हाँ बेटा...कैसे लगे वो आपको...और उनके मम्मी-पापा ?"
" बहुत अच्छे।मम्मा...अंकल अकेले हैं क्या, उनकी आंटी तो मिली नहीं।"
" ह्म्म्म,उनकी शादी नहीं हुई..."
" मम्मा, तो आप अंकल से शादी कर लो..." कहते ही वह झेंप गया।प्रियंवदा भी यकायक उसके मुँह से यह बात सुनकर सकपका गयी।कहाँ तो वह रोहन से यह बात पूछने के लिए शब्द और बहाने ढूँढ रही थी!उसने मुस्कुराते हुए रोहन को देखा तो वही शरमा गया।
" इतने अच्छे लगे आपको ?"
" मम्मा, आप भी तो अकेले रहते हो...फिर आपको अकेले नहीं रहना पड़ेगा।"
" मेरा बच्चा ,मेरे अकेलेपन के लिए सोच रहा है...?" प्रियंवदा ने उसे छाती से लगा लिया,"...फिर मेरा बेटा भी मेरे साथ ही रहेगा, है ना ?"
रोहन के बालमन में इतनी दूरगामी योजना नहीं थी।यह बात सुनकर उसने माँ की छाती में चेहरा छुपा लिया।प्रियंवदा ने उसका चेहरा ऊपर उठाया तो उसकी आँखें भर गयी।
" मैं आपके साथ रहूँगा मम्मा..." बुदबुदाते हुए वह फिर माँ से चिपट गया।उसके स्वर में अकेलेपन की पीड़ा ने प्रियंवदा का हृदय भेद दिया।माँ-बेटा लिपटकर एक दूसरे से अपने आँसू छुपाने की कोशिश करते रहे।

टीवी के समाचारों में देश भर में मॉनसून के आगमन के साथ "मुंबई पानी-पानी" शीर्षक फिर सुर्खियों में छा गया।घर में पता चला तो माँ ने प्रियंवदा को फोन किया।उन्हें रोहन ने खिड़की के बाहर के दृश्य का आँखों देखा हाल खुश होकर सुनाया...लेकिन माँ ने बताया कि वहाँ पास वाली नदी का जलस्तर बढ़ने के साथ बाढ़ की आशंका है...


© भारती बब्बर