Datiya ki Bundela kshatrani Rani Sita ju - 3 in Hindi Women Focused by Ravi Thakur books and stories PDF | दतिया की बुंदेला क्षत्राणी रानी सीता जू - 3

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दतिया की बुंदेला क्षत्राणी रानी सीता जू - 3

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जिस साइफन सिस्टम की आधुनिकता की हम बात करते हैं वह तो सीता जू ने अपने तालाबों में, जल संचय, जल निकास, जल प्रदाय, नहर चालन, पेयजल आपूर्ति, फव्वारे आदि के संचालनार्थ, आज से 300 वर्ष पूर्व ही प्रयुक्त कर लिया था। नगरीय सौंदर्य, सिंचाई तथा पेयजल प्रदाय की इस वैज्ञानिक सोच के लिए कोटिसः प्रणम्य हैं महारानी सीता जू।
सीता जू का जन्म 1679 ईस्वी में साँकिनी के परमार जागीरदार भरतपाल की पुत्री के रूप में हुआ। इनके बचपन का नाम कंचन कुंवरि था । 14 वर्ष की उम्र में इनका पाणिग्रहण, दतिया राज्य के तत्कालीन युवराज रामचंद्र के साथ हुआ और तब इनका नामकरण हुआ, सीता कुँवरि, जिन्हें बोलचाल की भाषा में सीता जू कहा जाने लगा।
छोटी सी जागीर से एक बड़े राजघराने में ब्याह कर आई सीता जू के तो जैसे पांव ही जमीन पर नहीं पढ़ रहे थे । परंतु विधि ने तो कुछ और ही विधान रच रखा था । नववधू सीता जू के तो जैसे सिर मुड़ाते ही ओले पड़े ।
दरअसल युवराज राजचंद्र के पिता, महाराजा राव प्रताप सिंह "दलपति" अर्थात दलपत राव, दतिया-ओरछा राज्य की पैतृक संधि परंपरानुसार मुगल सेना में बड़े मनसबदार और सेनानायक थे। अपने पिता एवं बुंदेलखंड के सूबेदार रह चुके महाराजा शुभकरण के समय में ही दलपति राव मुगल सेना के दक्षिण विजय अभियान में जाने लगे थे।
सर्वप्रथम 1664 ईस्वी में दलपत राव मुगल सेना में पिता के साथ सम्मिलित हुए। अपनी बहादुरी और रणकौशल के चलते, अगले 8 वर्षों की उनकी भूमिका से, उन्हें 1772 आते आते 300 जात, 300 सवार का स्वतंत्र मनसब हासिल हो चुका था। इसके साथ ही दलपत राव को दक्षिण विजय अभियान पर निकली मुगल सेना के हरावल दस्ते का प्रधान बना दिया गया, और वे, प्रताप सिंह से दलपति प्रताप सिंह हो गए। निरंतर 42 वर्षों तक, साल दर साल, मराठों तुर्कों, पठानों के विरुद्ध, भीषण पराक्रम का प्रदर्शन करते, विजयश्री हासिल करते, दलपत राव 5000 जात 5000 सवार का मनसब प्राप्त कर, मुगल सेना के बड़े सेना नायकों में शुमार हो गये थे।
मराठा सरदार शिवाजी शासित रायगढ़ किले को ध्वस्त करने पर, औरंगजेब ने दलपति प्रताप सिंह को " राव " की उपाधि दी। महाराजा शुभकरण उस समय जीवित थे तथा बादशाह के विशेष कृपापात्र भी थे, इसलिए 'राजा' उपाधि न देकर, राव की उपाधि दी गई। कमोवेश ऐसे ही कारणों से, मुगल बादशाहों द्वारा समय-समय पर, शुभकरण तथा उनके पिता को भी राव की उपाधि दी जा चुकी थी। अब प्रतापसिंह जू देव, दलपति राव प्रताप सिंह हो चुके थे। धीरे-धीरे लोग उन्हें दलपति राव तथा दलपत राव ही कहने लगे। दलपत राव ने दक्षिण में मराठों आदि के विरुद्ध 19 लड़ाइयाँ लड़ीं, जिनमें से अधिकांश में उन्हें सफलता प्राप्त हुई।
आदौनी ( बाद में इम्तियाज गढ़ ) विजय पर उन्हें आदौनी का किलेदार बना दिया गया। दलपत राव ने आदौनी, रायगढ़, इब्राहिम गढ़, पन्हाला,मेराज गढ़, जिंजी गढ़,बांडीबास, पेरुक्कुल, तंजौर, पालमकोट तथा कृष्णागिरी के दुर्ग फतेह किए। साथ ही लाल टेकरी, गढ़पुरा, तरवर खेरा, वाकिन खेरा, ब्रह्मपुरी, परतूर, रत्नागिरी, रतनगांव आदि क्षेत्रों पर भी कब्जा किया। दलपत राव द्वारा इब्राहिम गढ़ पर कब्जे से मुगलों की गोलकुंडा विजय आसान साबित हुई।
दक्षिण के सबसे दुर्गम और अभेद्य किले जिंजी गढ़ को जीतने पर उन्हें " जिंजी विजेता " व " माही मरातब" का खिताब दिया गया, मुगल निशान ( अलम ) के साथ-साथ जिंजी व मिरज दुर्ग के फाटक एवं एक तोप पुरस्कार में दी गई। ( यह फाटक, दतिया किले के फूलबाग के दोनों दरवाजों में लगे हैं। इसके अलावा इटावा, एरच कनार तथा पनवाड़ी (राठ) जागीर में दिए गए।
1679 ईस्वी में महाराजा राव शुभकरण का दक्षिण में ही बहादुरगढ़ के युद्ध में, घायल होने के बाद, परिंदा दुर्ग में निधन हो गया। वहीं उनका स्मारक बनवाया गया। पिता की मृत्यु के पश्चात 1679 में दलपत राव दतिया के राजा हुए और इन्होंने 1707 तक दतिया राज्य पर शासन किया, किंतु इनका सारा जीवन युद्धों में ही बीता।