Ek Ruh ki Aatmkatha - 61 - Last Part in Hindi Human Science by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | एक रूह की आत्मकथा - 61 - अंतिम भाग

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एक रूह की आत्मकथा - 61 - अंतिम भाग

मैं कामिनी ,हाँ वही मिस कामिनी ,जिसकी रूह की आत्मकथा आप पढ़ रहे थे।सात साल बाद एक बार फिर लौट आई हूँ ।बस थोड़ी देर के लिए अपनी बेटी से मिलने।उसको आखिरी बार देखने।उसको एस्टेब्लिश देखने का बड़ा मन था।मैं यहां सब कुछ ठीक देखकर बहुत खुश हूं।
कुछ परिवर्तन मुझे दिख रहे हैं।कामिनी प्राइवेट लिमिटेड का नाम में अमृता का नाम शामिल हो गया है।अब वह कम्पनी 'अमृता कामिनी प्राइवेट लिमिटेड' के नाम से जानी जाती है।कम्पनी पहले से ज्यादा ऊंचाई पर पहुंच गई है।समर और उमा की मेहनत की वज़ह से ही ऐसा सम्भव हुआ है।
समर और उमा अच्छे मित्र बन गए हैं।समर अमृता का उसी तरह ध्यान रखता है जैसे मेरा रखता था।मुझे इस बात से थोड़ी कसक हो रही है पर खुशी भी है कि उमा की वजह से समर फिर से जिंदगी को जीने लगा है।हालांकि दोनों के बीच वह नजदीकी नहीं है जो मेरे और समर के बीच थी।समर अभी तक मुझे नहीं भूल पाया है।वह जो कुछ भी कर रहा है मेरी वज़ह से कर रहा है।अमृता का ख्याल उसने उसी तरह रखा है जैसे मैं जिंदा होती तो रखती।शायद मैं भी उतना ध्यान नहीं रख पाती।सच यही है कि उसने मुझसे भी ज्यादा मेरी बेटी अमृता का ध्यान रखा है।
यहाँ तक कि अमृता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करने के प्रयास में उसने अपने बेटे की भावनाओं को चोट पहुंचाई है।मुझे पता है कि अमन अमृता से बहुत प्यार करता है।उसने पूरे सात साल उसका इंतज़ार किया है।अब तो उसे अपने इंतज़ार का सुफल मिलना ही चाहिए।
मैंने उसे एयरपोर्ट पर छुप- छुपकर अमृता को निहारते देखा था।मुझे उस बच्चे पर बड़ी दया आ रही है।
मैं जानती हूँ समर अपने बेटे के लिए कभी पहल नहीं करेगा।वह तो यह भी भूल गया है कि उसने अमन से क्या वादा किया था ?
अमन इंतज़ार कर रहा है।अमृता की चुप्पी उसे खल रही है।
प्रेम का स्वाभिमान उसे आगे बढ़ने से रोक रहा है।
मुझे अमृता को अमन के प्रेम का अहसास कराना होगा।मैं चाहती हूं कि अमृता और अमन की शादी हो जाए और वो दोनों अपने जीवन सफर में एक -दूसरे के साथ आगे बढ़े।
**********
वर्षों बाद अमृता को अपने बिस्तर पर लेटकर बड़ा सुकून मिला।देर रात तक वह अपनों से घिरी रही।रूचि और सुरुचि एक पल के लिए भी उसे छोड़ती ही नहीं थीं ।उसे लाए तोहफों को देखकर दोनों बहुत खुश थीं।वे बार -बार उससे लंदन के बारे में सवाल कर रही थीं।
"दीदी,वहाँ कोई गोरा लड़का आपका फ्रेंड बना कि नहीं।"सुरुचि ने एकांत होते ही शरारत भरा प्रश्न किया।
"बना क्यों नहीं।कई फ्रेंड थे पर सिर्फ फ्रेंड समझी न!"
अमृता ने हँसकर उत्तर दिया।
"छोड़ो तुम लोग दीदी को आराम करने दो।बाकी बातें कल कर लेना।"
उमा ने अचानक आकर रूचि और सुरुचि को वहाँ से हटाया था।
बिस्तर पर लेटकर अमृता अपनी माँ कामिनी की तस्वीर को देर तक निहारती रही फिर वह गहरी नींद में सो गई।सपने में उसने अपनी माँ को देखा,जो उसके सिरहाने बैठकर उसका सिर सहला रही थी।अमृता ने आँखें खोलकर माँ को देखा और फिर खुश होकर उससे लिपट गई।
"माँ,तुम आ गई।मैं तुम्हें बहुत मिस कर रही थी।देखो न ,मैं कितनी बड़ी हो गई हूं।मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली है और बिजनेस कोर्स भी कर लिया है।अब मैं बालिग हो गई हूं ।"
"हाँ,मेरी प्यारी बेटी इसीलिए तो मैं तुम्हें देखने आई हूँ। तुमने मेरे सपनों को साकार कर दिया है पर.....।"
कुछ कहते कहते कामिनी हिचक गई।
"पर क्या माँ?"अमृता ने अपनी उत्सुक आंखें माँ के चेहरे पर जमा दी।
"तुम्हें किसी और के सपनों को भी साकार करना है।" कामिनी ने मुस्कुराकर कहा।
"किसकी माँ?"
अमृता हैरान हुई।
"उसी का ,जिसने पूरे सात साल तुम्हारी प्रतीक्षा में गुजारी है।स्मृति पर जोर डालो कि कौन है?"
"तुम्हें पता है क्या?" अमृता शरमा गई।
"मुझसे कुछ नहीं छिपा है ।"
"माँ,मुझे लगता है कि वह मुझे भूल गया है।सात साल तक उसने मुझसे कोई सम्पर्क नहीं रखा।न कोई फोन ...न लेटर... न ईमेल।ऐसा भी कहीं होता है क्या?"
"तुमने भी तो उससे सम्पर्क की कोई कोशिश नहीं की।"
"मेरी बात और थी माँ,समर अंकल ने मुझे किसी भी लड़के से इन्वाल्व होने को मना किया था।मैं उनकी बात का मान कैसे नहीं रखती?"
"अमन को भी समर ने अपनी कसम दे दी थी कि विदेश से लौटने से पूर्व तक वह उससे बात न करे।"
"ओह,तभी वह लंदन जाते समय भी मुझसे नहीं मिला।मेरे लौट आने पर भी नहीं मिला है।"
"कितना संस्कारी लड़का है।अपने पिता की बात का मान रखने के लिए उसने अपने दिल पर पत्थर रख लिया।"
"हाँ,माँ अमन बहुत अच्छा लड़का है।"
"तुम उसे प्यार करती हो न कि इकतरफ़ा प्यार है उसका।"
"नहीं माँ,उसका प्यार इकतरफ़ा नहीं है। मैं भी उसे प्यार करती हूँ।"कहते हुए अमृता ने शरमाकर चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में छुपा लिया।
"तो अब देर न करो।अब तुम्हें खुद ही अमन से मिलना चाहिए।"
"हाँ,माँ मैं कल ही उससे मिलूँगी।"
"तुम्हें समर से भी अपने दिल की बात कहनी होगी।"
"मुझे शर्म आएगी माँ।"
"इसमें शर्म की क्या बात है?वो तुम्हारे पिता की जगह हैं।बचपन में तुम्हें अपनी गोद में खिलाए हैं।तुम्हें अपनी संतानों से ज्यादा प्यार करते हैं। इस बात को तुम मानती हो न।"कामिनी ने अमृता को समझाते हुए कहा।
"हाँ,माँ मानती हूँ।"अमृता ने सहमति में सिर हिलाया।
"तो फिर अब सब कुछ तुम्हें ही संभालना है।"
"आप तो साथ रहोगी न माँ।"
"नहीं बेटा,मुझे बस चौबीस घण्टे का समय मिला था।वह समय अब खत्म हो रहा है।मैं जा रही हूँ।"
कामिनी ने अमृता का माथा चूमकर कहा।
"नहीं माँ,मैं अकेले कुछ नहीं कर पाऊँगी।"अमृता ने कामिनी का हाथ पकड़ लिया।
"तुम सब कुछ करोगी,करना ही होगा। ये तुम्हारी जिंदगी है।
वैसे भी 'मिस कामिनी' की कहानी खत्म हो चुकी है ।अब 'अमृता कामिनी' की कहानी शुरू होगी।"
कहते हुए कामिनी की रूह हवा में विलीन हो गई।
"माँ....रुको...रूक जाओ न।"
कहते हुए अमृता चीख पड़ी।चीख के साथ ही अमृता की नींद टूट गई।उसने कामिनी की तस्वीर की ओर देखा।तस्वीर अब भी मुस्कुरा रही थी,पर बेज़ान थी जैसे कामिनी की रूह उसमें से निकल गई हो।
अमृता की चीख उमा ने भी सुन ली थी।वह बगल के कमरे में ही सो रही थी।वह भागी हुई अमृता के कमरे में पहुंची।
"क्या हुआ बेटा,कोई बुरा सपना देखा क्या?"
"नहीं मामी,बुरा नहीं अच्छा सपना।सपने में माँ आई थी।मुझे आगे की जिंदगी के लिए कुछ टिप्स देने।मामी अगर आपको नींद न आ रही हो तो आप मेरे पास बैठिए न।मुझे आपसे कुछ बात करनी है।"
"क्यों नहीं,मुझे भी अब नींद नहीं आएगी।"
अमृता ने उमा से अमन के बारे में सारी बातें बता दीं।उसे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उमा को यह सब पहले से पता था।शायद समर अंकल ने उन्हें सब बता दिया है।
"तुम अमन को फोन क्यों नहीं कर लेती।वह भी नहीं सोया होगा!"
"इतनी रात को..वह क्या सोचेगा?"
"कुछ नहीं सोचेगा।उल्टे बात हो जाने पर चैन की नींद सोएगा।"
"मेरे पास उसका नम्बर नहीं है।"
"मैं देती हूँ न।अब तुम आराम से बातें करो।मैं अपने कमरे में जाती हूँ।बच्चियाँ जग न जाएं।"
यह कहकर मुस्कुराती हुई उमा अपने कमरे की तरफ चल दी।
झिझकते हुए अमृता ने अमन को फोन मिलाया।पहली घण्टी भी पूरी नहीं बजी थी कि अमन ने फोन उठा लिया जैसे वह इसी फोन के इन्तज़ार में बैठा हुआ हो।
सच ही 'मिस कामिनी' की कहानी का अंत हो चुका था और 'अमृता कामिनी' की कहानी आगे बढ़ चली थी।
(समाप्त)