दुविधा, श्री कृष्ण की
बैठा था मैं मंदिर में,
अश्रु लिए इन आंखों में।
रोकर मैं कह रहा था,
दुख सारे अपने सखा से।
इतने में आवाज पड़ी एक,
मेरे इन कानों में।
देखा तो सामने सखा थे बोल रहे,
और अश्रु थे उनकी आंखों में।
देख कर मुस्कान इन अधरों पर,
सोचते हो मैं खुश हूं बड़ा।
किंतु मुझसे पूछो कि इस ,
मुस्कान के पीछे क्या है छिपा।
कष्ट तो तुम अपने कह देते,
किंतु मुझसे पूछा क्या?
हाल मेरा क्या है यहां,
कभी तुमने ये सोचा क्या?
जन्म से पहले ही मेरा मामा,
था मेरा शत्रु बन गया।
मेरे जन्म से पहले ही,
छः भाइयों का वध कर गया।
जेल में जन्मा था मैं,
एक राजकुमार निराला था।
मुझे बचाने को बाबा ने,
मुझे स्वयं से दूर कर डाला था।
भाग्य का खेल था जो,
मैं गोकुल पहुंचा था।
मैया यशोदा मां बनीं,
और नंद बाबा का मैं दुलारा था।
किंतु कंस का आतंक,
वहां भी मेरे पीछे रहा।
मुझे मारने के लिए वो,
हर प्रयत्न करता रहा।
पहले पूतना राक्षसी आई,
विषपान मुझे कराने को।
उसका वध किया था मैंने,
मुक्ति उसे दिलाने को।
फिर आया शकटासुर,
मन में मुझसे बैर लेकर।
हश्र किया मैंने उसका भी वैसा ही,
बैलगाड़ी उस पर फेंक कर।
और न जाने कितने ही असुर आए,
अंत मेरा बनने को।
और मैंने उनका अंत किया,
उनका ध्येय पूर्ण करने को।
कंस का तो फिर भी ठीक था,
शत्रु था वो बन गया।
लेकिन इंद्र भी उससे,
पीछे कहां रह गया।
परीक्षा लेने मेरी उसने,
वर्षा यहां घनघोर की।
गोवर्धन गिरी उठा कर मैंने,
सबकी तब रक्षा की थी।
कालिया नाग ने भी आकर,
विष अपना फैलाया था।
उसका भी दमन तय था किंतु,
उसकी पत्नियों ने उसे बचाया था।
इसी तरह बचपन बिता मेरा,
दाऊ के संग मैं खेला था।
बरसाना में मिली थी राधा,
जिससे मुझको प्रेम हुआ था।
फिर आया वो भी समय,
जब मैं 16 साल का था।
कंस ने मुझे मारने को,
षड्यंत्र एक रचाया था।
पहुंचा मैं वहां दाऊ संग,
था कंस का वध किया।
मां देवकी, पिता वासुदेव को,
फिर कारागार से मुक्त किया।
फिर मैं वापस कभी भी,
गोकुल न जा सका।
मित्रों का भी साथ छूटा,
प्रेम को भी अपने ना पा सका।
दक्ष मैं सोलह कलाओं में,
द्वंद्व युद्ध में माहिर था ।
किंतु भाग्य के आगे मैं भी,
तुम सबकी तरह ही विचलित था ।
काल्यवन का वध करने,
जब मैंने रण को छोड़ा था ।
संसार ने तब मुझको,
रणछोड़ कह मुंह मोड़ा था ।
16000 हैं मेरी रानियां,
इसलिए मैं अपमानित हुआ ।
किंतु क्या गलत किया था मैंने जो,
उन्हें नरकासुर के यातनाओं से मुक्त किया ।
महाभारत के युद्ध को रोकने,
का था अथक प्रयास किया ।
ये ही नहीं, निहत्था ही रहूंगा,
इस बात का भी था प्रण लिया ।
किंतु माता गांधारी ने,
केवल मुझको दोष दिया ।
श्राप दिया था ऐसा मुझको,
कि मेरे पूरे कुल का अंत किया ।
लेटा हुआ था आँखें मूंदें,
शीतल हवा का लेने आनंद ।
आ लगा एक तीर मेरे पग में,
कर दिया प्राणों का हनन ।
जीवन था मेरा दुखों से भरा,
मृत्यु भी वैसी हो गई।
जिस द्वारका को रचा था मैंने,
मुझ संग ही वो भी डूब गई।
अब बताओ सखा मेरे,
किसका दुख है कितना बड़ा।
प्रश्न उनके सुन कर मैं,
कुछ भी न बोल सका।
~ देव श्रीवास्तव ✍