**"किस्म-किस्म के दरबार"**
इस संसार में इंसान किस्म-किस्म का है,
यहाँ दरबार किस्म-किस्म के जिस्म का है।
कहीं नक़ली तबस्सुम, कहीं सच्ची चीख़ें,
कहीं ख़ुशबू में भी सड़ांध रिस्म का है।
कोई मसले पर खड़ा, कोई मसले में डूबा,
हर चेहरा किसी दास्ताँ की सज़ा-ख़्वार है।
कहीं मुफ़लिसी अपने लिबास समेटे सोई है,
कहीं दौलत का शहज़ादा भी बेज़ार है।
शहर के दिल में आज भी धुंआ और डर है,
इंसान मगर अब भी छलावा मिज़ाज है।
जो जिस्म बेच दे वो भी शर्मिंदा नहीं,
जो रूह बेचता है वो इज़्ज़तदार है।
इस बाज़ार में, मल्लाह भी तूफ़ान हैं,
और किनारे भी एक पुराना गुनाह हैं।
आर्यमौलिक
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**अफ़साना**
शहर के बीचोंबीच एक चौराहा था — धूप में पिघलता, रात में चमकता, और हर वक्त कुछ कहता हुआ। वहाँ रोज़ सैकड़ों लोग गुजरते थे — आईने की तरह अलग-अलग शक्लों में, मगर अन्दर से सब कुछ एक सरीखा — टूटा हुआ, बिखरा हुआ, शर्मिंदा।
एक तरफ़ ठेले पर लड्डू बेचने वाला सलमान था, जिसके हाथों की महक अब भी शक्कर सी मीठी थी, मगर किस्मत नमक जैसी कड़वी। दिनभर हँसता था, रात को साया भी उससे बात नहीं करता। कहता था — *"हुज़ूर, आजकल तो हँसी भी उधार लेनी पड़ती है!"*
दूसरी तरफ़ माया बैठी थी — रंगीन सी, मगर भीतर राख सी उदास। वो जिस्म बेचती थी, मगर हर रात रूह को सज़ा मिलती थी। कहती थी — *"यहाँ दरबार किस्म-किस्म के जिस्म का है जनाब, हर ख़रीदार अपनी मर्ज़ी का खुदा बना बैठा है!"*
किसी को पैसे चाहिए, किसी को ज़र्रे भर इज़्ज़त। किसी को सिर्फ़ तवज्जो चाहिए, ताकि उसका अस्तित्व साबुत लगे, — जहाँ हर नक़ाब के पीछे एक सच है, और हर सच के आगे एक झूठ का बैनर।
तीसरे मोड़ पर एक मौलवी साहब रोज़ तक़रीर करते — "इंसानियत सबसे बड़ा मज़हब है", और उसी पल बगल के कूड़े में कोई बच्चा भूख से सो जाता। पास से गुज़रते ताजर अपने कानों में ईयरफोन डाल लेते, ताकि इन आवाज़ों से उनकी नींद न टूटे।
कोई कहता — *"इस शहर में दर्द सस्ता है, मगर महसूस करने वाले महँगे हैं!"*
और किसी की आँखों में हँसी और आँसू का फ़र्क़ मिट चुका था।
यह संसार, सच में, किस्म-किस्म का है — कोई अपने झूठ पर नाज़ करता है, कोई सच्चाई पर शरमाता है।
मगर अजीब बात यह है कि यहाँ हर इंसान किसी न किसी दरबार का हिस्सा है —
कहीं रूह का, कहीं जिस्म का,
कहीं झूठ का, और कहीं उम्मीद का।
और आख़िर में, एक भिखारी पास से गुज़रते हुए बोला —
*"मियाँ, सबको बस अपनी दुकान चलानी है। फर्क बस इतना है कि कोई चीजें बेचता है, कोई खुद को!"*
आर्यमौलिक