जानवर
कभी-कभी औरत की आँखों में
ममता नहीं, बदला जलता है,
और मर्द की रगों में
इश्क़ नहीं, बस शिकारी लहू दौड़ता है।
वही वक़्त होता है,
जब जानवर जागता है।मर्द सोचता है,
“देह मिली है, तो हक़ भी मेरा है।”
औरत सोचती है,
“साज़िश बनी है, तो ज़हर मैं भी रखूँगी।”
दोनों की मुट्ठियाँ कसती हैं,
उंगलियाँ काँपती नहीं काटती हैं।सड़कें, कमरे, बिस्तर सब गवाह हैं,
कि इंसानियत यहाँ मरती नहीं,
बल्कि धीरे-धीरे नशा बनकर चढ़ती है।
वो हँसते हैं, रोते नहीं,
क्योंकि शर्म अब नज़र का हिस्सा नहीं,
सिर्फ़ जिस्म का कपड़ा रह गई है।और जब सब ख़ामोश हो जाता है,
तो वही जानवर
थोड़ा थका हुआ, थोड़ा पछताया,
दिल की गंदगी में सो जाता है-
अगली भूख तक।
आर्यमौलिक (21/05/2002)