धर्म गुरु — धर्म के पतन ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
धर्म का सबसे गहरा पतन तब शुरू हुआ,
जब गुरु ने “माध्यम” होना छोड़कर “मालिक” बनना शुरू किया।
गुरु का अर्थ था — वह जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए,
पर जैसे-जैसे धर्म सत्ता और संगठन में बदला,
वैसे-वैसे गुरु भी देवता की जगह व्यापारी बन गया।
शास्त्रों ने कहा — “गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः।”
यह वाक्य श्रद्धा से बोला गया था,
पर अब वही स्वामित्व का प्रमाण-पत्र बन गया है।
गुरु स्वयं को ब्रह्मा घोषित कर बैठा,
और शिष्य उसकी आराधना में झुक गया।
सत्य मौन में था,
पर प्रचार ने उसे मंच पर चढ़ा दिया।
गुरु का काम था प्यास जगाना,
अब वह प्यास बेच रहा है।
धर्म का उद्देश्य था व्यक्ति को भीतर ले जाना,
अब वह भीड़ को बाहर बाँध रहा है।
आज हर मंच पर उद्धार का सौदा चल रहा है —
“मेरी शरण लो, तभी मुक्ति है।”
यह वाक्य सुनने में पवित्र लगता है,
पर इसका सार डर है,
और डर में कभी मुक्ति नहीं होती।
माता-पिता, गुरु, धर्म —
तीनों का अर्थ सेवा था,
पर जब सेवा को अधिकार में बदला गया,
तभी पतन शुरू हुआ।
माता कहती है — “मैंने जन्म दिया”,
पिता कहता है — “मैंने पाला”,
गुरु कहता है — “मैंने ज्ञान दिया।”
तीनों ही प्रेम को लेन-देन में बदल रहे हैं।
सच्चा गुरु वही है
जो कहने की ज़रूरत नहीं समझता कि “मैं गुरु हूं।”
सूरज कभी घोषणा नहीं करता कि “मैं उजाला हूं।”
उसका मौन ही प्रमाण है।
पर आज धर्म में मौन मर चुका है,
हर दिशा में केवल उद्घोष है।
सत्य का धर्म मौन है,
और मौन में कोई भी विशेष नहीं होता।
पर धर्म ने “विशेष” की खेती की है —
कपड़े, पद, नाम, संस्था,
सब उसी “मैं” के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं।
और जहाँ “मैं” बढ़ता है,
वहाँ सत्य मिटता है।
जब गुरु अपने होने का प्रचार करता है,
तब वह गुरु नहीं, अभिनेता बन जाता है।
जब धर्म खुद को बचाने में लग जाए,
तब समझो कि वह जीना भूल चुका है।
धर्म को बचाने का रास्ता धर्म नहीं है —
बल्कि ईमानदारी से उसे देखने की हिम्मत है।
सच्चा गुरु वही है जो कहे —
“मुझसे नहीं, अपने भीतर देखो।”
और सच्चा शिष्य वही है जो उस मौन को सुन ले
जहाँ कोई वचन नहीं, केवल सत्य है।
धर्म तभी बचेगा,
जब गुरु फिर से मौन होगा।
और मौन तभी लौटेगा,
जब मनुष्य फिर से अपने भीतर देखेगा।
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