भारतीय समाज ने धर्म के नाम पर पत्नी को व्यवस्था दी —
शरीर की, परिवार की, वंश की।
पर प्रेमिका को कोई स्थान नहीं दिया,
क्योंकि प्रेमिका व्यवस्था नहीं होती —
वह स्वच्छंद होती है, आत्मा की अग्नि में जन्मी।
पत्नी देह का धर्म निभाती है,
प्रेमिका हृदय का।
एक बंधन में टिकती है,
दूसरी उस बंधन को भस्म कर देती है।
कृष्ण और राधा का संबंध इसी रहस्य का प्रतीक है।
राधा पत्नी नहीं थीं —
वह तो कृष्ण की आत्मा का दर्पण थीं।
उनका प्रेम सांसारिक नहीं था,
बल्कि उस बिंदु पर था जहाँ दो आत्माएँ मिलकर
अपनी अलग पहचान खो देती हैं।
विवाह का धर्म देह को बाँधता है,
प्रेम का धर्म आत्मा को मुक्त करता है।
इसलिए राधा का न मिलना ही उनका मिलन था —
क्योंकि वहाँ कोई पाने की इच्छा नहीं थी,
सिर्फ पूर्ण समर्पण था।
कृष्ण किसी के पति नहीं थे —
वे स्वयं प्रेम थे।
उनकी १६,१०८ स्त्रियाँ पत्नी नहीं थीं,
वे आत्माएँ थीं —
जो जन्मों से कृष्ण के प्रति प्रेम में जलीं,
भक्ति में पिघलीं,
और अंततः उसी में मुक्त हुईं।
कृष्ण ने उन्हें विवाह का बंधन नहीं दिया,
बल्कि मुक्ति का आशीर्वाद दिया।
समाज ने उन्हें “पत्नी” कहा ताकि व्यवस्था संभली रहे,
पर वे वास्तव में प्रेमिकाएँ थीं —
जिनका संबंध देह से नहीं,
प्रेम से था।
रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती —
ये थीं धर्म के अंतर्गत पत्नियाँ,
जो कृष्ण के जीवन का भाग थीं।
पर राधा और वे १६,००० स्त्रियाँ —
कृष्ण के अस्तित्व का विस्तार थीं।
राधा प्रेम की अग्नि थीं,
वे कृष्ण में जल गईं,
इसलिए पत्नी नहीं बन सकीं।
पत्नी धर्म निभाती है,
प्रेमिका धर्म भस्म कर देती है।
कृष्ण ने जिन स्त्रियों को “अपनी” कहा,
उनका अर्थ स्वामित्व नहीं था,
बल्कि एकता थी —
जहाँ “मैं” और “तू” मिट जाते हैं,
और केवल प्रेम बचता है।
जहाँ प्रेम शुद्ध होता है,
वहाँ न पाप बचता है, न पुण्य —
न धर्म, न अधर्म —
केवल रस रहता है,
और वही रस लीला कहलाता है।
कृष्ण–राधा का प्रेम उसी लीला का शिखर है —
जहाँ देह विलीन हो जाती है,
और केवल प्रेम शेष रहता है।
वहीं से आरंभ होता है वह सत्य —
जहाँ मनुष्य कुछ पाना नहीं चाहता,
क्योंकि वह पहले ही प्रेम में खो चुका होता है।
✍🏻 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲