ईश्वर की प्रसन्नता और मानव की भ्रांति ✧
मनुष्य का स्वभाव है कि वह प्रसन्नता और अप्रसन्नता को हमेशा बाहरी साधनों से जोड़कर देखता है।
कभी किसी को उपहार देकर, कभी मधुर शब्दों से, कभी मन बहलाकर — वह दूसरों को प्रसन्न करता है। यही संसार के नियम हैं।
जब मनुष्य ईश्वर की ओर बढ़ता है, तो यही तरकीबें वहाँ भी आज़माता है।
वह सोचता है — जप, व्रत, हवन, त्याग या भेंट से भगवान को प्रसन्न किया जा सकता है।
किन्तु यह धारणा स्वयं में एक गहरी भ्रांति है।
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देवता और मानव का अंतर
मानव-मन कल्पना में बंधा है।
वह शब्द, वस्तु और भावनाओं की अदला-बदली से तुरंत प्रभावित हो जाता है।
परंतु ईश्वर अथवा देवत्व की सत्ता इन काल्पनिक विनिमयों से परे है।
उसे न प्रसन्न किया जा सकता है और न अप्रसन्न —
क्योंकि वह मानव-स्वभाव के द्वैतों से पूर्णतया मुक्त है।
यदि कोई देवता बाहरी विधान या अर्पण से प्रसन्न होता प्रतीत होता है,
तो समझना चाहिए कि वह मनुष्य की मानसिक कल्पना का ही प्रतिरूप है।
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प्रसन्नता का असली स्रोत
सच्ची आध्यात्मिकता में ईश्वर की प्रसन्नता कहीं बाहर नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर है।
जब अंतःकरण निर्मल होता है, वासनाएँ शांत हो जाती हैं, और प्रेम का प्रवाह भीतर से उमड़ता है —
तब आत्मा स्वयं आनंदमय हो उठती है।
यही आंतरिक आनंद ही ईश्वर का सच्चा प्रसाद है,
और यही वास्तविक "ईश्वर की प्रसन्नता" कहलाता है।
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भक्ति और अहंकार
मनुष्य अक्सर अपनी भक्ति को भी अहंकार का साधन बना लेता है।
"मैंने इतने उपवास किए", "मैंने इतने मंत्र बोले", "मैंने इतना दान दिया" —
ये सब अहंकार के अंक हैं, भक्ति नहीं।
भक्ति का सार निष्काम भाव है —
जहाँ न प्रसन्न करने की इच्छा होती है और न फल पाने की लालसा।
जब प्रेम सहज रूप से बहता है और आनंद स्वाभाविक हो जाता है,
तभी ईश्वर का साक्षात्कार संभव है।
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दार्शनिक निष्कर्ष
ईश्वर को प्रसन्न करना किसी कर्मकांडीय विधि से संभव नहीं।
वह स्वयं में परिपूर्ण आनंद है।
साधक का प्रयास केवल इतना होना चाहिए —
कि वह अपने भीतर वही आनंद खोज ले, वही प्रेम जागृत कर ले।
तभी ईश्वर का अनुभव होता है —
प्रसन्नता के रूप में नहीं, बल्कि आत्मानुभूति के रूप में।
वस्तुतः "ईश्वर की प्रसन्नता" का सही अर्थ है —
आपकी अपनी आत्मिक अनुभूति।
और इस अनुभूति तक पहुँचने का मार्ग है —
स्वयं को अहंकार की परतों से मुक्त करना,
और प्रेम-आनंद की शुद्ध लहर में उतर जाना।
शास्त्र-प्रमाण ✧
1. भगवद्गीता (9.22)
> अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
अर्थ — जो भक्त निष्काम भाव से केवल मेरा चिन्तन करते हैं, उन्हें मैं स्वयं योग-क्षेम प्रदान करता हूँ।
👉 यहाँ प्रसन्न करने का कोई उपाय नहीं बताया, केवल निष्काम शरणागति का महत्व है।
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2. कठोपनिषद् (II.23)
> नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम्॥
अर्थ — आत्मा न तो प्रवचन, न बुद्धि, न शास्त्र-पाठ से मिलता है; वह केवल उसी को प्राप्त होता है जिसे आत्मा स्वयं प्रकट होना चाहता है।
👉 यहाँ कोई रिझाने की तरकीब नहीं, केवल भीतर की योग्यता और शुद्धता।
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3. श्वेताश्वतर उपनिषद् (III.20)
> यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः।
तस्मात् एतानि भूतानि जातानि जीवन्ति यानि च॥
अर्थ — वही परमेश्वर सर्वज्ञ, सर्वविद् है; उसी से सब कुछ उत्पन्न होता और चलता है।
👉 ऐसा ईश्वर प्रसन्न-अप्रसन्न से परे है, क्योंकि वही मूल आधार है।
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4. भक्तिमार्ग का संकेत (भागवत पुराण, 11.14.20)
> नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदयेषु वा।
यत्र गायन्ति मद्भक्ता तत्र तिष्ठामि नारद॥
अर्थ — मैं न तो वैकुण्ठ में रहता हूँ, न योगियों के हृदय में; पर जहाँ मेरे भक्त प्रेम से गाते हैं, वहीं उपस्थित होता हूँ।
👉 यहाँ भी प्रेम और आनंद की स्थिति को ही ईश्वर की "प्रसन्नता" बताया गया।
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निष्कर्ष
शास्त्रों का स्वर एक ही है:
ईश्वर को प्रसन्न करने का कोई बाहरी उपाय नहीं।
प्रेम, निष्काम भाव और आंतरिक आनंद ही उसके सान्निध्य का द्वार हैं।
— अज्ञात अज्ञानी