"कभी नाटक, कभी ताना"
कल मैं सासू माँ के पास बैठी थी।
गाँव की एक महिला का ज़िक्र आया —
जिसे रोज़ दर्द होता था।
मामा जी की बात सुनाई गई —
"अरे! रोज़ बहाने बनाती है।
चिता पर बैठा दो,
सब नाटक ख़त्म हो जाएगा।"
ये सुनकर मैं सन्न रह गई।
मुझे लगा यह बात मुझे सुनाने के लिए कही गई है।
मैं भी तो पाँच साल से बीमार हूँ।
पैसा, इलाज, दवाइयाँ — सब झेल चुकी हूँ।
मन भी थक चुका है।
सोचती हूँ —
अगर ये बात पति को बताऊँ,
तो शायद क्लेश होगा।
शायद वे विश्वास भी न करें।
यही वजह है कि अक्सर हम औरतें चुप रह जाती हैं।
अपने दर्द को अंदर ही अंदर निगल लेती हैं।
पर जो औरत जवाब देना सीख जाती है,
खुद के लिए खड़ी हो जाती है —
उसे लोग सह नहीं पाते।
उसे बाग़ी कह देते हैं।
और अक्सर ऐसे ही घर टूट जाते हैं।
घर मजबूरी से नहीं,
सहयोग से चलता है।
पत्नी अगर सही है,
तो उसका साथ दीजिए,
उसकी रक्षा कीजिए।
वरना चुप्पी और ताने
किसी भी रिश्ते को खत्म कर देते हैं।
--- फिर कुछ मर्द यही जो स्त्री स्त्री के लिए लड़ी उनके घर नहीं बस पाए
क्या उस महिला को जला के बस पाया ।