अपने दोनो कंधो पर मैं,
अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।
अपने पैरों में मैं
इनके सम्मान की बेड़ियां पाती हूं।
अपने दोनो कंधो पर मैं,
अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।
अपनी उमर के साथ साथ
मैं उनके लिए और भी
कीमती हो जाती हूं
अगर हूं मैं सुंदर
तो उनके मन में
अनजाना डर बैठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।
अपने दोनो कंधो पर मैं,
अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।
ना हो जो रंग रुप मेरा
तो भी उनकी चिंता बन जाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।
सारे अरमान पूरे कर उनके
विदा हो कर मैं उन्हें छोड़ जाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।
अपने दोनो कंधो पर मैं,
अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।
छोड़ जाने के बाद उनको मैं
जब अपने ढर को जाती हूं
तो खुद को उस घर में
अब मैं मेहमान पाती हूं।
अपने दोनो कंधो पर मैं,
अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं।
शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं