गर्मियों का प्यार — एक ख़ामोश एहसास
कभी-कभी प्यार किसी मौसम की तरह आता है — चुपचाप, बिना दस्तक दिए।
जैसे पहाड़ों की गर्मियाँ — तेज़ नहीं, ठंडी भी नहीं, बस धीमी-धीमी सी महसूस होती हुई।
काठगोदाम की एक शाम, हल्की सी हवा, और दो अजनबी — जो पहली बार मिले, लेकिन जैसे बरसों से एक-दूसरे को जानते हों।
प्यार में हमेशा शोर नहीं होता।
कई बार, सिर्फ़ एक चाय का कप और सामने बैठा कोई इंसान ही काफी होता है, जिसे देखकर तुम्हें लगे — “बस यही तो चाहिए था ज़िंदगी में।”
गर्मियों का प्यार वैसा ही होता है —
ना बहुत लंबा, ना बहुत तेज़…
लेकिन जब चला जाता है, तो उसकी छाया पूरे साल साथ चलती है।
सर्दियों में उसका इंतज़ार होता है, और बरसातों में उसकी याद।
कभी किसी की चुप्पी में प्रेम छुपा होता है,
तो कभी किसी की बेवजह की हँसी में।
कोई जब बिना पूछे तुम्हारे मन की बात समझ ले — वही तो होता है असली रिश्ता।
और अगर वो इंसान,
जिससे तुमने कुछ कहे बिना बहुत कुछ कह दिया,
अगर वो एक दिन यूँ ही तुम्हारे सामने खड़ा हो जाए…
तो समझ लेना — कुछ रिश्ते सिर्फ़ किस्मत से नहीं, कहानी से बनते हैं।
कई बार हमें लगता है हम भूल गए,
लेकिन एक पुरानी फोटो, एक पहाड़ी गंध, एक नाम… और सब कुछ फिर से ताज़ा हो जाता है।
काठगोदाम की गर्मियाँ सिर्फ़ एक किताब नहीं है,
ये एक ऐसा आईना है जिसमें हर कोई अपना कोई अधूरा रिश्ता देख सकता है।
एक शहर, एक लड़की, एक लड़का — और वो गर्मियाँ, जो लौटकर तो नहीं आतीं,
लेकिन दिल में हमेशा के लिए रह जाती हैं।
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“काठगोदाम की गर्मियाँ”
✍️ लेखक: धीरेंद्र सिंह बिष्ट
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