“पत्थर से विशाल माँगती हुं “
पत्थर से विशाल माँगती हुं
मैं आदमियों से कट गई हूँ
शायद पाउं सुरागे-ए-उल्फत
मुठ्ठी में ख़ाक-भर रही। हु
तर लम्स है जब तपिश सें जारी
किसी आँच से यूँ पिघल रही हूँ
वो ख़्वाहिश-ए-बोसा भी नहीं अब
हेरत से होंट काटतीं हूँ
इक तिफ्लक-ए-जुस्तजू हूँ शायद
मैं अपने बदन से खेलती हूँ
अब तब्अ’ किसी पे क्यूँ रागिब
इंसानों को बरत चुकीं है
….,.. फहमिदा रियाज
- Umakant