ये मत मत पूछो साहब कि
इस धरती से गिला क्या क्या है
यह पूछो कि इस धरती से मिला क्या-क्या है ।
जिस नदिया ने शीतल जल दिया पीने को
हमने उस नदिया को
मैले कपड़ों और तन को धोकर
कितना गन्दा कर दिया ।
जिन पेड़ों ने फल दिए खाने को
सांस दी जिन्दा रहने को
उन पेड़ों को हमने काट कर बेच दिया
चंद सिक्कै कमाने को ।
जिस धरती ने सीना दिया घर बनाने को
तन दिया अन्न उपजा कर पेट कि बुझाने को
हमने उसमें भी ज़हर घोल दिया
उपजाऊ शक्ति बढ़ाने को ।
ऊपर वाले ने तो इंसान बनाया था
एक दूसरे की मदद करने को
मगर इंसान के पेट की भूख इतनी बढ़ गई
पेट तो भर गया मगर भूख नह मिटी
इंसान ने उन्नति के नाम पर प्रकृति का
कितना ही विनाश कर दिया ।
मत पूछो साहब इस धरती से गिला क्या क्या है
यह पूछो साहब इस धरती से मिला क्या क्या है।
हिसाब करने बैठो तो हिसाब नहीं कर पाऊंगा
क्योंकि प्रकृति मां है मां देना जानती है लेना नहीं जानती है इसका हिसाब करना बहुत मुश्किल है
जिस तरह इंसान जन्म देने वाली मां का
हिसाब नहीं कर सकता है
उसी तरह जीवन भर अपने आंचल में पालने वाली
प्रकृति मां का हिसाब करना भी मुश्किल है ।
मत पूछो साहब इस धरती से गिला क्या क्या है
यह पूछो साहब इस धरती मां से मिला क्या क्या है।