हर रोज हम दोस्त एक विषय का चयन करते हैं लिखने के लिए। कई बार वो शब्द खुद चलकर मेरे पास आते हैं, और मैं उन्हें पकड़कर एक कहानी में ढाल देता हूँ। जैसे वो पहले से ही मेरे अंदर मौजूद हों, बस बाहर आने का इंतज़ार कर रहे हों।
आज का विषय था – "जुड़वा"। लगा, कितना आसान होगा। कितनी कहानियाँ देखी, पढ़ी, सुनी हैं इस विषय पर। जुड़वा भाई, बहनें, वो गहरा रिश्ता, वो आपसी समझ… सब कुछ मेरे ज़ेहन में था।
पर जैसे ही लिखने बैठा, कुछ भी शुरू नहीं हो सका। हर बार कुछ सोचता, पर अधूरा रह जाता। एक वाक्य भी पूरी तरह काग़ज़ पर नहीं उतर सका। कुछ था जो रुक रहा था। शायद इस बार शब्दों ने साथ नहीं दिया।
मैंने बहुत कोशिश की। कोई पुरानी याद, कोई देखा-सुना किस्सा, कोई कल्पना—सबको खंगाल डाला। पर जुड़वा शब्द के साथ कोई कहानी नहीं जुड़ सकी। ऐसा नहीं कि कहानियाँ नहीं थीं, बस उन्हें कहने का साहस नहीं था, या शायद उनकी सच्चाई मेरे लिखे से बड़ी थी।
आज मैं असफल रहा। और इसे स्वीकार करना भी ज़रूरी है। क्योंकि हर दिन लिखना आसान नहीं होता। कुछ दिन ऐसे होते हैं जब शब्द हमारे नहीं होते, और हम बस अकेले बेबस रह जाते हैं। "मन में विचारों का सैलाब होता है, लेकिन शब्दों का साथ नहीं मिलता।
लेकिन यही तो लेखन की खूबसूरती है—हर हार में एक सीख, और हर चुप्पी में एक नई शुरुआत छुपी होती है।
आज की कहानी नहीं लिख सका, पर मैं जानता हूँ, कल फिर कोशिश करूंगा।
"क्योंकि कहानी भले ही आज न बन पाई हो, पर भरोसा है—कल के शब्द, आज की कमी पूरी कर देंगे।