समाज की बेड़ियों को पहन
आसमां छूने वो चली
अंगारों पर चलकर पैदल
'अर्श को पाने वो चली
समाज की ऐसी दक़ियानूसी
कोई बैठे करे जासूसी
कभी ना खुद को परखे वो
पर दिन भर करते कानाफुश़ी |
कोई कहे के ब्याह करा दो
कहता कोई घर बिठा दो
क्यों देखेगी 'अर्श के सपने
पहले ही तुम ख्वाब मिटा दो
बेड़ियों को तोड़ के वो
रूढ़िवादी छोड़ के वो
हासिल 'अर्श को कर रही
दक़ियानूसी मसल रही
समाज बदलाव के खातिर भी
बेटियां भी पढ़ रही
बिटिया रानी रफ्ता - रफ्ता
देखो आगे बढ़ रही |||