Hindi Quote in Quotes by Umakant

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काव्य गोष्ठी
(१०१)
चाँदनी बनाई, धूप रची,
भूतल पर व्योम विशाल रचा,
कहते हैं, ऊपर स्वर्ग कहीं,
नीचे कोई पाताल रचा।
दिल - जले देहियों को केवल
लीला कहकर सन्तोष नहीं;
ओ रचनेवाले! बता, हाय!
आखिर क्यों यह जंजाल रचा?

(१०२)
था अनस्तित्व सकता समेट
निज में क्या यह विस्तार नहीं?
भाया न किसे चिर-शून्य, बना
जिस दिन था यह संसार नहीं?
तू राग-मोह से दूर रहा,
फिर किसने यह उत्पात किया?
हम थे जिसमें, उस ज्योति याकि
तम से था किसको प्यार नहीं?

(१०३)
सम्पुटित कोष को चीर, बीज-
कण को किसने निर्वास दिया?
किसको न रुचा निर्वाण? मिटा
किसने तुरीय का वास दिया?
चिर-तृषावन्त कर दूर किया
जीवन का देकर शाप हमें,
जिसका न अन्त वह पन्थ, लक्ष्य--
सीमा-विहीन आकाश दिया।

(१०४)
क्या सृजन-तत्व की बात करें,
मिलता जिसका उद्देश नहीं?
क्या चलें? मिला जो पन्थ हमें
खुलता उसका निर्देश नहीं।
किससे अपनी फरियाद करें
मर-मर जी-जी चलने वाले?
गन्तव्य अलभ, जिससे होकर
जाते वह भी निज देश नहीं।

(१०५)
कितने आये जो शून्य - बीच
खोजते विफल आधार चले,
जब समझ नहीं पाया जग को,
कह असत् और निस्सार चले।
माया को छाया जान भुला,
पर, वे कैसे निश्चिंत चलें?
अगले जीवन की ओर लिये
सिर पर जो पिछला भार चले।
🙏🏻
- Umakant

Hindi Quotes by Umakant : 111960697
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