वह बचपन के भी क्या दिन थे ,,
आसमान में बादल,,और धरती पर ,,,बारिश की बूंदे थे
जिसे देख होठों पर खिल-खिलाहट ,,और हाथों में ,,,कागज की कश्ती थी
भाग रहे थे हम भी उन बारिश की बूंद की तरह ,,,,उन कागज की नाव के पीछे ,,
जिसका ना कोई मंजिल,,,,,ना कोई रास्ते थे
,,वह भी बचपन के क्या दिन थे
आसमान में बादल और धरती पर बारिश की बूंदे थे
काश वह बचपन वापस फिर आ जाते,,
होठों पर मुस्कुराहट ला जाते ,
छोड़-छाड़ सारे शर्म लाज को,,,,,
कागज की कश्ती फिर बन जाते
भूल जाते हम अपने सभी उन गम को,,,,
जो भूल जाते थे,,बचपन में ,,कागज की कश्ती चलाते वक्त हम,,सबको
वह बचपन के भी क्या दिन थे ,,,,
,ना कोई बंदिशे और ना कोई गम थे