ग्रीष्म ऋतु के दोहे....
सूरज आँख दिखा रहा, सूखे नद तालाब।
व्याकुल कुँआ निहारता, हालत हुई खराब।।
सूरज की गर्मी बढ़ी, उगल रहा अंगार।
धरा गगन पाताल सब, व्यथित लगे संसार।।
लगे नवतपा दिवस जब, चढ़ी हंडिया आग।
उबल रही है यह धरा, वर्षा ऋतु का राग।।
ग्रीष्म तपिश से झर रहे, वृक्षों के सब पात।
नव-पल्लव का आगमन, देता शुभ्र-प्रभात।।
वर्षा ऋतु का आगमन, सुनकर लगता हर्ष।
जीव जन्तु निर्जीव जन, तन-मन का उत्कर्ष।।
पगडंडी थी गाँव की, मिली सखीं जब चार ।
सिर पर गगरी ले चलीं, प्यास बुझाने नार।।
मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "