मिलना था इत्तफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था
वो इतन दूर हो गया जितना क़रीब था
मैं उसको देखने को तरसती ही रह गयी
जिस शख़्स की हवेली में मेरा नसीब था
बस्ती के सारे लोग ही आतिश परस्त थे
घर जल रहा था और समन्दर क़रीब था
दफना दिया गया मुझे चाँदी की कब्र में
मैं जिसको चाहती थी वो लड़का गरीब था
लहजे के फूल शाख़ पे मुरझा रह गये
तर्के ताअल्लुकात का मौसम क़रीब था
घर के बुझे दियों का ख़्याल आ गया मुझे
सूरज गुरुब होने का मंजर अजीब था॥
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