जलते जेठ का महीना चुरा लिया है,
धूप ने जिस्म से पसीना चुरा लिया है।
रख के पत्थर को अपने सिर पे उसने
छाती के भीतर से सीना चुरा लिया है।
धूल धूसर हो गये हैं लिबास भी उसके
और थकन ने खाना-पीना चुरा लिया है।
फिर भी यूँ मुस्कुरा कर के जीती है वो
कि उसने इल्म-ए-जीना चुरा लिया है।
-दिनेश कुमार कीर