“ये निगाहें मेरी ढूढ़ती हैं कारवों के निशां
जो खो गए है मंजिल को ढूढ़ते - ढूढ़ते
वक्त का भी पता अब नही चल रहा
क्या बताये कहाँ मंजिल सोचते - सोचते
हम भटकते ही रहे सफर में कहाँ से कहाँ
इन निगाहों को भी उनकी थी तलब
पर तलबगार को जो नजर आ न सके
ऐसी कोई राह अब है नही पर हमें भी
जिद कुछ ऐसी हुई ढूढ कर ही रहे
तेरी महफिल को हम ए -सनम”
🙏🏻