शमा मोहब्बत की दिल में जलाने से डरते है
नज़रें उठाने और किसी से मिलाने से डरते है
महफ़िल सजाये और बुलाये कुछ अपनों को
पर उनके चेहरों के उस बेगानेपन से डरते है
दर्द भी कुछ यूँ घर कर गया है रूह तक में
अश्कों के ज़रिये उसे पिघलाने में भी डरते है
बिखरे मोती सी बुँदे किसी को दिखती कहाँ
अब तो लफ़्ज़ों की वाह वाही से भी डरते है
मिले दोस्त या हबीब , कहीं कुछ हम जैसे ही
इस तलाश के एक ख्याल तक से भी डरते है
छुपाया है खुद को कई चिलमनों के पीछे हमने
क्युंकि जमाने के अजीबो गरीब दस्तूरों से डरते है
रुद्र.... ......।।
-किरन झा मिश्री