भजन:मुझको कहाँ तू ढूंढें बन्दे
ना तीरथ में ना मूरत में,
ना एकांत निवास में,
ना मंदिर मे, ना मस्जिद में,
ना काशी कैलाश में,
मुझको कहाँ तू ढूंढें बन्दे,
मैं हूँ तेरे पास में,
मुझको कहाँ तू ढूंढें बन्दे,
मैं हूँ तेरे पास में।
ना मैं जप में, ना मैं तप में,
ना व्रत उपवास में,
ना मैं किरिया करम में रहता,
नहीं योग संन्यास में,
मुझको कहाँ तू ढूंढें बन्दे...
ना मैं पिंड में, ना प्राण में,
नहीं ब्रह्मण्ड आकाश में,
ना मैं भरकुटी भंवर गुफा में
नहीं स्वांशों की स्वांश में,
मुझको कहाँ तू ढूंढें बन्दे...
खोजी होए तुरत मिल जाऊं
एक पल की ही तलाश में,
कहे कबीर सुनो भाई साधो,
मैं तो हूँ विशवास में,
मुझको कहाँ तू ढूंढें बन्दे...
रचयिता: संत कबीरदास जी
कबीर साहेब कहते हैं की साधुजन, संतजन मेरी बात सुनों, ईश्वर तो तुम्हारे विश्वास में ही है।
इस भजन का मूल भाव यही की लोगों ने हजारों तरह के टोटके और पाखंड फैला रखें की ऐसा करने से ईश्वर मिल जाएगा, यहाँ ईश्वर है यहाँ नहीं है। वस्तुतः कबीर साहेब ने अनेकों स्थान पर कहा की ईश्वर तो कण कण में व्याप्त है लेकिन यदि उसे सच्चे हृदय के अभाव में ढूंढने जाओगे तो आप उसे कहीं नहीं पाओगे। यह तो सहजता से मिलता है। अब सहजता पर भी गौर कर लीजिये की सहजता इतनी सहज नहीं है जितनी यह दिखती है।