कौन हिसाब करे उन लम्हों का
जब चिल्लर ही हमारी जागीर हुआ करती थी,
कभी उसी से हमारी ख्वाहिशें पूरी हुआ करती थी ।
इसी जेबखर्ची से मेले में इठलाते हुए घूमा करते थे ,
इन्हीं चव्वनी - अठन्नी से हम सरताज बने फिरते थे ।
बचपन की उसी जागीर में अब शून्य अनेक लग गए हैं ,
पर लम्हे वही अनमोल थे जो अब रेत से फिसल गए हैं ।