एक छोटा सा कंकड...नदी में झूलता रहा
नदी के हर सुख दुःख में उसे सहानुभूति देता रहा...
नदी को लगा था कि शायद उससे बेहतर कोई नहीं
पर वो अनजान थी कंकड़ का उससे कोई लगाव नहीं...
पहाड़ की उस चोटी से वो कंकड़ उसके साथ रहा...
जैसे ही समुन्दर नज़दीक आया वो उसका होता रहा...
नदी को बताने लगा कि देखो समुन्दर से बेहतर कुछ भी नहीं...
तकलीफ़ बहुत हुई पर अब बताने लायक़ कुछ भी नहीं...
नदी चुपचाप सी रहने लगी कंकड़ समुन्दर में घूमता रहा...
समुन्दर इतना विशाल कंकड़ वहाँ चिल्लाता रहा...
पर यहाँ उसकी आवाज़ को सुनने वाला कोई भी नहीं...
अब कंकड़ को समझ आया किसी का भी दिल दुखाने का उसको कोई हक़ नहीं...
-स्मृति