भयभीत मन कंटको का पथ कठिन है।
पूस की निशा युक्त व्याकुल चितवन है।
झींगुर का संगीत जुगनुओं के उजाले हैं।
हिय की प्रतीक्षा में प्राण संकट में डाले हैं।
मन मौन है अंधकार की वेदना प्रबल है।
हृदय झंकृत है ओष्ठ प्यास में विह्वल है।
तनिक नही अपितु पूर्णता को अग्रसर है।
जहाँ देह की अभिलाषा नहीं प्रेम अमर है।
मृगांक मुख मोहिनी सारंग लोचन भाँति।
कैसे जियें बिन प्रिय कटे कैसे बनवास।
अर्जुन इलाहाबादी
-arjun verma