मैं लड़ता ही कब तलक उससे आख़िर
जिसने ख़ुद को मिटा दिया मेरे खातिर।
उसकी तो मजबूरियां थी बिछड़ने की
इल्ज़ाम बेवफ़ा का लिया मेरे खातिर।
बेशक था मैं मोहब्बत का दरिया
तरस गया हूँ इक बूंद प्यार के खातिर।
जिस्म-फ़रोसी से निकाल कर लायी है
उससे ज्यादा उसका दिमाग था शातिर।
चलो अब इक राह नयी बनाते हैं
कुछ और नहीं ,अपने प्यार के ख़ातिर।
दुनिया का एक सच ये भी है 'दरिया'
भेंट होती रहती है पेट के ख़ातिर।
सेहत गिरती रही मेरी दिन - ब - दिन
पीछे भागता रहा मैं स्वाद के ख़ातिर।
हर कोई तुम्हारा हम दर्द है दरिया
तरसोगे नहीं चुटकी भर नमक ख़ातिर।
उलझ जाते हैं सारे रिस्ते सही गलत में
लड़ना पड़ता है यहां प्यार के ख़ातिर।
हर फ़ैसला हमारा सही हो ज़रूरी तो नहीं
बहुत कुछ करना पड़ता है व्यापार के ख़ातिर।
-रामानुज दरिया