"साहेब सायराना"
दिलीप कुमार की शूटिंग देखने की इस ख्वाहिश के उजागर होते समय टीन एज में कदम रखती बेटी की आंखों की चमक ने नसीम बानो को भीतर से कहीं गुदगुदा दिया। उन्हें वो दिन याद आ गए जब उन्हें भी एक फ़िल्म की शूटिंग देखते हुए ही फ़िल्मों में काम करने का चस्का लगा था।
उन दिनों फिल्मों में लड़कियों का काम करना अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। जो लड़की कैमरे के सामने अभिनय करने को तैयार हो जाती थी उसे लोग ललचाई नज़रों से देखने लग जाते थे। तमाम यूनिट भी यही समझती थी कि जो लड़की ढेरों लड़कों के अरमान जगायेगी वही फ़िल्म को भी कामयाब बनाएगी। उन पर चांदी बरसाएगी। लड़की को नाम मिलेगा और फिल्मकार को नामा!
उस ज़माने में लड़की के बड़ी होते ही उसके मां- बाप कोशिश करते थे कि किसी एक लड़के को ये पसंद आ जाए तो उनकी जान छूटे। उसके साथ बांध कर इसके हाथ पीले करें और इससे छुटकारा पाएं।
ऐसे में जो लड़की हज़ारों लड़कों को पसंद आने के लिए घर से निकल पड़ती थी वो भला मां- बाप को कैसे स्वीकार होती।
लेकिन अभिनेत्री मां के लिए बिटिया को शूटिंग दिखाने की ख्वाहिश पूरी करना भला कौन सा मुश्किल था। जबकि सोहराब मोदी जैसे नामी - गिरामी एक्टर के साथ उसकी ख़ुद की फ़िल्म पुकार बेहद कामयाब रही थी।
दिलीप कुमार भी उन दिनों के. आसिफ़ के साथ फ़िल्म "मुगले आज़म" में व्यस्त थे। मधुबाला और पृथ्वीराज कपूर के साथ भव्यता से फिल्माए जा रहे सलीम और अनारकली के इस शाहकार ने बनने से पहले ही तूफ़ान उठा लिए थे।
बेटी सायरा बानो को साथ लेकर नसीम बानो हिंदुस्तान की धरती पर कदम रखते ही इसी मुगले आज़म फ़िल्म के सेट पर सायरा को ले जाने के लिए अपने साथियों को निर्देश देने में लग गईं।
मुश्किल से दो दिन बीते कि एक दिन फिल्मिस्तान के सेट पर नसीम की मोटर रुकी।
दोपहर का समय था। स्टूडियो में बाहर तो सन्नाटा था पर भीतर से शूटिंग की चहल- पहल सुनाई दे रही थी।
पर ये क्या?
दिलीप कुमार तो स्वयं सामने से चले आ रहे थे और चेहरे का मेकअप उतार कर अपनी कार में बैठने वाले थे।
- ओह !
दिलीप के दुआ सलाम का ये जवाब दिया नसीम बानो ने। पर दिलीप कुमार नसीम बानो के पीछे- पीछे आती तेरह बरस की गोरी चिट्टी बिटिया की अनदेखी नहीं कर सके।