जिस आस से गुजरे लम्हे यादो के
कभी न रास आए पल मुलाकातों के
कुछ इर्द गिर्द सी बातें की
कुछ गैरो सा अनदेखा व्यवहार
ना फूल सी कोई निशानी थी
ना माथे की लकीर चूमने की झलक
सादगी जरा ना भा रही
ना रुतबा अनोखा नजर आया
इक बिखरी हुई सी डोर पर
पुल बांधे सागर पार के
ना आई वह सुबह जिसका इंतजार हो
वह शाम ढल चली फिर कभी ना भोर हुई
- उर्मि