शिर्षक: अँधकार
उलझनों में, मैं उलझता ही रहा
जिंदगी का दर्पण, धुँधलाता रहा
अपने ही कदमों पर, विश्वास न रहा
चल रहा, अब तो यकीन भी न रहा
कभी थी, राहगुज़र फूलों के रास्तों पर
बचपन ही, एक ऐसा था, सुहाना सफर
जवानी का दीवानापन, कुछ देर बेखबर
उसके बाद लग गई, जिंदगी को कोई नजर
उलझनें उलझाती रही, फिर भी चल रहा ये सफर
समझाता स्वयं को, सबके के पास नहीं होता मुकद्दर
अपनों की बस्ती में ही, अब करना है, ये तन्हा सफर
गिला नहीं जिंदगी, पर नहीं रहा, तेरे पर कोई एतबार
इँतजार रहा, अब कब होगा, खत्म मेरा, ये सफर
कल भूल जाएगी दुनिया, न कहेगा, कोई गुनहगार
एक खलिश तो रहेगी साथ, असफल हुआ बार बार
आशाओं के सँसार में, मेरे पास ही क्यों रहा अँधकार
✍️ कमल भंसाली
-Kamal Bhansali