भीड़ में भागना भी कुछ इस तरह भागना होता है कि कोशिश तो कर रहे हैं पर मंज़िल नहीं मिल रही। ऐसी ही एक कौशिश मैं दो बार पहले ही कर चुकी थी और इस बार मेरी ये तीसरी कौशिश थी।
कहीं ना कहीं हमारी मानसिकता भी तीन कोशिशों तक सीमित होती है। हम मुश्किल ही किसी के बारे में सुनते है कि उसने पांच , दस या उससे ज्यादा बार कोशिश की या तब तक कौशिश की जब तक कि सफलता हासिल नहीं होती।
यहां अब मेरी बारी थी मैं किस तरह चुनाव करूं, अगर मैं तीन बार वाली कोशिश को महत्व दूं तो मुझे इस आख़िरी कौशिश में जी जान लगानी होगी। करो या मरो का सवाल खड़ा होगा मेरे सामने।
वहीं दूसरी ओर अगर ये सोच लू की कोशिश करते रहना है इस बार नहीं तो अगली बार तो शायद उतनी जी - जान लगा कर मेहनत ना करूं ।
तो थोड़ा मुश्किल ज़रूर था इसका चुनाव करना ।
दोनों के ही अपने फायदे थे और अपने नुकसान भी ।
बहुत सोचते - समझते हुए मैंने ये विचार बनाया की इस बार जो मेरी कौशिश होगी वो इस तरह होगी की ये मेरी तीसरी और आखिरी कौशिश होगी ।
पर अगर मैं इसमें किसी कारण से सफल नहीं हुई तो बजाय निराश होने के मैं खुद को फिर मौका दूंगी बिना खुद की काबिलियत पर शक किए।
इसी सोच के साथ मैं फिर भीड का हिसाब बन गई। इस भीड़ में मुझसे आगे लगभग पच्चीस से तीस लोग थे , पर बिना उस भीड़ की परवाह करते हुए जैसे ही स्टैंड पर बस पहुंचीं, मैं एक अनजानी सी रेस का हिस्सा बन गई।
ऐसे रेस जिसमे मैं फर्स्ट तो नहीं आई पर हां जो मेरी कौशिश थी वो पूरी हो गई थी।
मैं इस बार बस के अंदर थी और एक आरामदायक खिड़की के पास वाली सीट पर बैठी हुई थी।