कविता
स्त्री हूं मैं
कभी पुरुष
कभी समाज
कभी सोच
कभी मर्यादा
देते हैं मुझे धक्का
पेङ की
पतली टहनी से
पर मैं....
गिरने से पहले
सीख जाती हूं उङना
अनंत आसमान में
जहां ख्वाहिशों के
सतरंगी रंग
सजते हैं
मेरी रंगोली में
आंचल में मचलती है
किलकारियां
क्यों कि स्त्री हूं मैं
गिरना स्वभाव नहीं मेरा
मैं जानती हूं
सूखे तिनकों से
घोंसला बनाने का हुनर।
डॉ पूनम गुजरानी