शीर्षक: वाणी
वाणी, तुम तो मधुर हो, मन ही कर्कश हो जाता
तुम ह्रदय वीणा हो, तन ही, नगाड़ा बन जाता
तुम दृश्य को नयनभिराम कर ऊर्जा प्रदान करती
कभी क्रोध में आँखे ही , खुद काला रंग डाल लेती
उदर के संग रहकर भी तुम, अमृत संचय करती
स्वाद वशीभूत हो, जीभ अपच जहर, उगल देती
तुम पवित्रआत्मा से सत्य का सदा आशीर्वाद लेती
भ्रमित आत्मा, प्रदूषण, कह झूठ के साथ कर देती
सन्तों और ज्ञानियों ने तुम्हें सदा माना प्रभु की रानी
कुछ "स्वार्थों" ने बना दिया तुम्हें काया की नौकरानी
आत्मा का "अंहकार", अंधकार ही पसन्द करता
तुम्हारी चमक से संसार, विश्ववास से," मुस्कराता"
भूले दिमाग कि, सदा उपासित साथ निभाती रही
जीवन पथ को संभाल, मंजिल का ज्ञान कराती रही
सरस्वती बन जब निकलती,दिल को सरगम बना देती
न समझे आत्मा, मृदुलता से तुम लहर बन रुक जाती
तुम सदा रहोगी महान, बाकी हम सब जग-मेहमान
तुम्हारी चर्चा होगी ,हाँ, हम हो जाएंगे एक दिन बेजान
✍️ कमल भंसाली