My Eventual Poem..!!!
यारों अब अपना यह शहर
हम सबको पराया-सा लगता है
कोम-ए-आदम का तो बस
अब नामका साया-सा लगता है
आज हर शख़्स ख़ौफ़ज़दा
हर घर छाया मातम-सा लगता है
मज़मा-भीड़-मेला-त्योहार
किससे कहानियों-सा लगता है
थियेटरों-मोल-प्रदर्शनी होल
पुराने महलों खंडहर-सा लगता है
हर खाँसी या छींकनेवाला तो
मानो आज दुश्मनों-सा लगता है
शमशान-ओ-क़ब्रिस्तानों में
लाशोंका तो अम्बार-सा लगता है
प्रभुजी प्रभुजी दया याचिका
ख़ताओं-गुनाह बख्श कृपया करो
आज हर नास्तिक-आस्तिक
आपसे आपकी पनाहों-शरण माँगता ..
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